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08:05, 3 जनवरी 2012 का अवतरण

प्रभाकर मिश्र को अनेक विद्वानों ने अपने मतानुसार कुमारिल भट्ट का शिष्य स्वीकार किया है। इनका समय ई. 7वीं शती है। प्रभाकर मिश्र मीमांसा क्षेत्र में 'गुरुमत' के संस्थापक हैं। इनके गुरु कुमारिल भट्ट ने इन्हें 'गुरु' की उपाधि से अलंकृत किया था। प्रभाकर मिश्र ने अपनी दो महत्त्वपूर्ण टीकाओं की भी रचना की हैं।

उपाधि तथा टीका रचना

प्रभाकर मिश्र की आलोकिक कल्पना शक्ति पर मोहित होकर इनके गुरु कुमारिल भट्ट ने इन्हें ‘गुरु’ की उपाधि से गौरवान्वित किया। तब से इनका उल्लेख ‘गुरु’ के ही नाम से होने लगा। भारतीय दर्शन के इतिहास में मिश्र जी का शुभ नाम एक देदीप्यमान रूप में अंकित है। अपने स्वतंत्र मत की प्रतिष्ठापना करने हेतु, इन्होंने ‘शाबरभाष्य’ पर बृहती अथवा निबन्धन तथा लघ्वी अथवा विवरण नामक दो टीकाएँ भी लिखी हैं। उनमें से बृहती प्रकाशित हो चुकी है। अपनी अमोघ विचार शक्ति के बल पर मिश्र जी ने मीमांसा दर्शन को विचार शास्त्र बनाने में सहायती की, और दर्शन पर स्थापित कुमारिल भट्ट के एकाधिपत्य को दूर किया।

विद्वान मतभेद

कप्पुस्वामी शास्त्री ने प्रभाकर मिश्र का काल सन 610-690 के बीच तथा कुमारिल भट्ट का काल सन 600 से 660 के बीच निश्चित किया है। प्रोफ़ेसर कीथ वा डॉक्टर गंगानाथ झा के मतानुसार मिश्र जी सन 600 से 650 के बीच हुए तथा कुमारिल भट्ट उनसे कुछ काल के उपरान्त हुए। इन विद्वानों का मत है कि मिश्र जी के ग्रन्थों के अनुशीलन से वे भट्ट जी से प्राचीन प्रतीत होते हैं।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय संस्कृति कोश, भाग-2 |प्रकाशक: यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई दिल्ली-110002 |संपादन: प्रोफ़ेसर देवेन्द्र मिश्र |पृष्ठ संख्या: 515 |

  1. सं.वा.को. (द्वितीय खण्ड), पृष्ठ 377

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