गुरदयाल सिंह ढिल्लों
गुरदयाल सिंह ढिल्लों
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पूरा नाम | डॉ. गुरदयाल सिंह ढिल्लों |
जन्म | 6 अगस्त, 1915 |
जन्म भूमि | अमृतसर, पंजाब |
मृत्यु | 23 मार्च, 1992 |
मृत्यु स्थान | दिल्ली |
नागरिकता | भारतीय |
पार्टी | भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस |
पद | लोकसभा अध्यक्ष |
कार्य काल | 8 अगस्त, 1971 - 1 दिसंबर, 1975 |
शिक्षा | वकालत |
विद्यालय | खालसा कालेज, अमृतसर, गवर्नमेंट कालेज, लाहौर और यूनिवर्सिटी लॉ कालेज, लाहौर |
अन्य जानकारी | लोगों को शिक्षित करने के उद्देश्य से उन्होंने 1947 में एक पंजाबी दैनिक "वर्तमान" का प्रकाशन भी शुरू किया और उसका सम्पादन किया। |
डॉ. गुरदयाल सिंह ढिल्लों (अंग्रेज़ी: Gurdial Singh Dhillon, जन्म: 6 अगस्त, 1915 - मृत्यु: 23 मार्च 1992) भारत के पाँचवें लोकसभा अध्यक्ष थे। ये 'जी. एस. ढिल्लों' नाम से भी प्रसिद्ध हैं। गुरदयाल सिंह ढिल्लों बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे जिन्हें क़ानून से लेकर पत्रकारिता तथा शिक्षा और खेलकूद से लेकर संवैधानिक अध्ययन में रुचि थी। सिद्धांतों से समझौता करना उन्हें क़तई पसंद नहीं था। उनके लिए संसद लोकतंत्र का मंदिर था और इसलिए सभा और इसकी परम्पराओं तथा परिपाटियों के प्रति उनके मन में अत्यधिक सम्मान था। उनमें सभा की मनःस्थिति को पल भर में भांपने की अद्भुत क्षमता थी तथा उनका दृष्टिकोण व्यावहारिक हुआ करता था। इन्हीं गुणों के कारण वे अध्यक्ष पद के गुरुतर दायित्व का निर्वहन गौरवशाली तरीके से कर पाए। अंतर-संसदीय संघ की अंतर-संसदीय परिषद के अध्यक्ष के रूप में ढिल्लों का चुनाव न केवल उनके लिए बल्कि भारत की पूरी जनता तथा भारतीय संसद के लिए भी बहुत सम्मान की बात थी।
जीवन परिचय
गुरदयाल सिंह ढिल्लों का जन्म पंजाब के अमृतसर ज़िले के पंजवार में 6 अगस्त, 1915 को हुआ था। वे एक मेधावी छात्र थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा खालसा कालेज, अमृतसर, गवर्नमेंट कालेज, लाहौर और यूनिवर्सिटी लॉ कालेज, लाहौर में हुई। 1937 से 1945 तक की अवधि के दौरान ढिल्लों ने वकालत की और एक सफल वकील के रूप में ख्याति अर्जित की। उनकी वकालत खूब चलती थी। इसके बावजूद वे अपनी देशभक्ति की भावना और अपने देशवासियों के प्रति चिंता को दबा नहीं सके। शीघ्र ही वे स्वतंत्रता संघर्ष तथा किसान आंदोलन में पूरी तरह कूद पड़े जिसके कारण उन्हें ब्रिटिश शासकों का कोपभाजन होना पड़ा। स्वतंत्रता संघर्ष से संबंधित गतिविधियों के लिए उन्हें दो बार जेल भेजा गया। लम्बे समय तक जेल में रहने के कारण उन्होंने वकालत छोड़ दी।
पत्रकारिता
आजादी के बाद उन्होंने पत्रकारिता का पेशा अपनाया और स्वयं को एक निडर और प्रभावशाली लेखक के रूप में स्थापित किया। उनके लेखों में वैचारिक दृढ़ता होती थी जिसने पाठकों को प्रभावित किया। सांप्रदायिक ताकतों के गंदे कारनामों के बावजूद सांप्रदायिक सौहार्द को बढ़ावा देने के उनके प्रयास अनुकरणीय थे। महत्त्वपूर्ण मामलों पर सहमति बनाने और विघटनकारी ताकतों के नापाक इरादों के बारे में लोगों को शिक्षित करने के उद्देश्य से उन्होंने 1947 में एक पंजाबी दैनिक "वर्तमान" का प्रकाशन भी शुरू किया और उसका सम्पादन किया। बाद में वे उर्दू दैनिक "शेर-ए-भारत" के मुख्य सम्पादक और नेशनल सिख न्यूजपेपर्स लि. के प्रबंध निदेशक भी बने। वे वर्ष 1952 तक पंजाब पत्रकार संघ की कार्यकारी समिति के सदस्य और 1953 तक राज्य प्रेस सलाहकार समितियों सदस्य भी रहे।
टीका टिप्पणी और संदर्भ