"गोपाल कृष्ण गोखले": अवतरणों में अंतर
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|अन्य जानकारी=बालगंगाधर तिलक और गोखले परस्पर मतभेद | |अन्य जानकारी=अपनी शिक्षा पूरी करने पर गोपाल कृष्ण कुछ दिन 'न्यू इंग्लिश हाई स्कूल' में अध्यापक रहे थे। बाद में [[पूना]] के प्रसिद्ध 'फर्ग्यूसन कॉलेज' में [[इतिहास]] और [[अर्थशास्त्र]] के प्राध्यापक रहे। [[बालगंगाधर तिलक]] और गोखले में परस्पर कई मतभेद थे। | ||
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'''गोपाल कृष्ण गोखले''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Gopal Krishna Gokhale'', जन्म: [[9 मई]], [[1866]] ई., [[कोल्हापुर]], [[महाराष्ट्र]]; मृत्यु: [[19 फ़रवरी]], [[1915]] ई.) अपने समय के अद्वितीय संसदविद और राष्ट्रसेवी थे। यह एक स्वतंत्रता सेनानी, समाजसेवी, विचारक एवं सुधारक भी थे। [[1857]] ई. के [[1857 का स्वतंत्रता संग्राम|स्वतंत्रता संग्राम]] के नौ वर्ष बाद गोखले का जन्म हुआ था। यह वह समय था, जब स्वतंत्रता संग्राम असफल अवश्य हो गया था, किंतु [[भारत]] के अधिकांश देशवासियों के [[हृदय]] में स्वतंत्रता की [[आग]] धधकने लगी थी।<ref name="bck">{{cite book | last =शर्मा | first =लीलाधर | title =भारतीय चरित कोश | edition = | publisher =शिक्षा भारती, दिल्ली | location =भारतडिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिन्दी | pages =पृष्ठ 246-247 | chapter =}}</ref> | |||
गोपाल कृष्ण गोखले (जन्म: [[9 मई]] [[1866]] ई., | |||
==जीवन परिचय== | ==जीवन परिचय== | ||
गोपाल कृष्ण गोखले का जन्म 9 मई, 1866 ई. को | गोपाल कृष्ण गोखले का जन्म 9 मई, 1866 ई. को महाराष्ट्र में कोल्हापुर नामक ग्राम में हुआ था। इनके [[पिता]] कृष्णराव श्रीधर गोखले एक ग़रीब किंतु स्वाभिमानी [[ब्राह्मण]] थे। पिता के असामयिक निधन ने गोपाल कृष्ण को बचपन से ही सहिष्णु और कर्मठ बना दिया था। स्नातक की डिग्री प्राप्त कर गोखले गोविन्द रानाडे द्वारा स्थापित 'देक्कन एजुकेशन सोसायटी' के सदस्य बने। बाद में ये महाराष्ट्र के 'सुकरात' कहे जाने वाले गोविन्द रानाडे के शिष्य बन गये। शिक्षा पूरी करने पर गोपालकृष्ण कुछ दिन 'न्यू इंग्लिश हाई स्कूल' में अध्यापक रहे। बाद में [[पूना]] के प्रसिद्ध फर्ग्यूसन कॉलेज में इतिहास और अर्थशास्त्र के प्राध्यापक बन गए। | ||
==ईमानदारी== | ====ईमानदारी==== | ||
गोपाल कृष्ण तब तीसरी कक्षा के छात्र थे। अध्यापक ने जब बच्चों के गृहकार्य की कॉपियाँ जाँची, तो गोपाल कृष्ण के अलावा किसी के जवाब सही नहीं थे। उन्होंने गोपाल कृष्ण को जब शाबाशी दी, तो गोपाल कृष्ण की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। सभी हैरान हो उठे। गृहकार्य उन्होंने अपने बड़े भाई से करवाया था। | गोपाल कृष्ण तब तीसरी कक्षा के छात्र थे। अध्यापक ने जब बच्चों के गृहकार्य की कॉपियाँ जाँची, तो गोपाल कृष्ण के अलावा किसी के जवाब सही नहीं थे। उन्होंने गोपाल कृष्ण को जब शाबाशी दी, तो गोपाल कृष्ण की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। सभी हैरान हो उठे। गृहकार्य उन्होंने अपने बड़े भाई से करवाया था। यह एक तरह से उस निष्ठा की शुरुआत थी, जिसके आधार पर गोखले ने आगे चलकर अपने चार सिद्धांतों की घोषणा की- | ||
एक तरह से | |||
#सत्य के प्रति अडिगता | #सत्य के प्रति अडिगता | ||
#अपनी भूल की सहज | #अपनी भूल की सहज स्वीकृती | ||
#लक्ष्य के प्रति निष्ठा | #लक्ष्य के प्रति निष्ठा | ||
#नैतिक आदर्शों के प्रति आदरभाव | #नैतिक आदर्शों के प्रति आदरभाव | ||
==वाकपटुता का कमाल== | ==वाकपटुता का कमाल== | ||
बाल गंगाधर तिलक से मिलने के बाद गोखले के जीवन को नई दिशा मिल | [[बाल गंगाधर तिलक]] से मिलने के बाद गोखले के जीवन को नई दिशा मिल गई। गोखले ने पहली बार [[कोल्हापुर]] में एक सार्वजनिक सभा को संबोधित किया। सन [[1885]] में गोखले का भाषण सुनकर श्रोता मंत्रमुग्ध हो गए थे, भाषण का विषय था- | ||
'''अंग्रेजी हुकूमत के अधीन भारत।'''<ref name="bss">{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=3923 |title=गोपाल कृष्ण गोखले |accessmonthday=[[6 मई]] |accessyear=[[2011]] |last= |first= |authorlink= |format=पी.एच.पी |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह |language=[[हिन्दी]]}}</ref> | '''अंग्रेजी हुकूमत के अधीन भारत।'''<ref name="bss">{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=3923 |title=गोपाल कृष्ण गोखले |accessmonthday=[[6 मई]] |accessyear=[[2011]] |last= |first= |authorlink= |format=पी.एच.पी |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह |language=[[हिन्दी]]}}</ref> | ||
==सार्वजनिक कार्य== | ====सार्वजनिक कार्य==== | ||
न्यायमूर्ति महादेव गोविन्द | न्यायमूर्ति [[महादेव गोविन्द रानाडे]] के संपर्क में आने से गोपाल कृष्ण सार्वजनिक कार्यों में रुचि लेने लगे। उन दिनों पूना की 'सार्वजनिक सभा' एक प्रमुख राजनीतिक संस्था थी। गोखले ने उसके मंत्री के रूप में कार्य किया। इससे उनके सार्वजनिक कार्यों का विस्तार हुआ। कांग्रेस की स्थापना के बाद वे उस संस्था से जुड़ गए। कांग्रेस का [[1905]] का [[बनारस]] अधिवेशन गोखले की ही अध्यक्षता में हुआ था। उन दिनों देश की राजनीति में दो विचारधाराओं का प्राधान्य था। [[लोकमान्य तिलक]] तथा [[लाला लाजपत राय]] जैसे नेता गरम विचारों के थे। सवैधानिक रीति से देश को स्वशासन की ओर ले जाने में विश्वास रखने वाले गोखले नरम विचारों के माने जाते थे। आपका क्रांति में नहीं, सुधारों में विश्वास था।<ref name="bck"/> | ||
== | ==राजनीति में प्रवेश== | ||
महादेव गोविंद रानाडे के शिष्य गोपाल कृष्ण गोखले को वित्तीय मामलों की अद्वितीय समझ और उस पर अधिकारपूर्वक बहस करने की क्षमता से उन्हें | गोखले का राजनीति में पहली बार प्रवेश [[1888]] ई. में [[इलाहाबाद]] में हुए [[कांग्रेस]] के अधिवेशन में हुआ। [[1897]] ई. में दक्षिण शिक्षा समिति के सदस्य के रूप में गोखले और वाचा को इंग्लैण्ड जाकर 'वेल्बी आयोग' के समक्ष गवाही देने को कहा गया। [[1902]] ई. में गोखले को 'इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउन्सिल' का सदस्य चुना गया। उन्होंने नमक कर, अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा एवं सरकारी नौकरियों में भारतीयों को अधिक स्थान देने के मुद्दे को काउन्सिल में उठाया। उग्रवादी दल ने उनकी संयम की गति की बड़ी आलोचना की। उन्हें प्रायः शिथिल उदारवादी बताया गया। सरकार ने उन्हें कई बार उग्रवादी विचारों वाले व्यक्ति तथा छदम् विद्रोही की संज्ञा दी। | ||
[[महादेव गोविंद रानाडे]] के शिष्य गोपाल कृष्ण गोखले को वित्तीय मामलों की अद्वितीय समझ और उस पर अधिकारपूर्वक बहस करने की क्षमता से उन्हें 'भारत का ग्लेडस्टोन' कहा जाता है। वे [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] में सबसे प्रसिद्ध नरमपंथी थे। [[चित्र:Gopal-Krishna-Gokhle-1.jpg|thumb|left|गोपाल कृष्ण गोखले के हस्ताक्षर करा हुआ चित्र]] [[1905]] में गोखले ने 'भारत सेवक समाज' (सरवेंट्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी) की स्थापना की, ताकि नौजवानों को सार्वजनिक जीवन के लिए प्रशिक्षित किया जा सके। उनका मानना था कि वैज्ञानिक और तकनीकी शिक्षा [[भारत]] की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। इसीलिए इन्होंने सबसे पहले प्राथमिक शिक्षा लागू करने के लिये सदन में विधेयक भी प्रस्तुत किया था। इसके सदस्यों में कई प्रमुख व्यक्ति थे। उन्हें नाम मात्र के वेतन पर जीवन-भर देश सेवा का व्रत लेना होता था। गोखले ने राजकीय तथा सार्वजनिक कार्यों के लिए 7 बार [[इंग्लैण्ड]] की यात्रा की।<ref name="bck"/> | |||
;सुधारक की कड़ी भाषा | ;सुधारक की कड़ी भाषा | ||
'केसरी' और 'मराठा' अख़बारों के माध्यम से तिलक जहाँ | 'केसरी' और 'मराठा' अख़बारों के माध्यम से [[लोकमान्य तिलक]] जहाँ [[अंग्रेज़]] हुकूमत के विरुद्ध लड़ रहे थे, वहीं 'सुधारक' को गोखले ने अपनी लड़ाई का माध्यम बनाया हुआ था। 'केसरी' की अपेक्षा 'सुधारक' का रूप आक्रामक था। सैनिकों द्वारा बलात्कार का शिकार हुई दो महिलाओं ने जब आत्महत्या कर ली, तो 'सुधारक' ने भारतीयों को कड़ी [[भाषा]] में धिक्कारा था- | ||
'''तुम्हें धिक्कार है, जो अपनी माता-बहनों पर होता हुआ अत्याचार चुप्पी साधकर देख रहे हो। इतने निष्क्रिय भाव से तो पशु भी अत्याचार सहन नहीं करते।'''<br />इन शब्दों ने भारत में ही नहीं, इंग्लैंड के सभ्य समाज में भी खलबली मचा दी थी। 'सर्वेन्ट ऑफ़ सोसायटी' की स्थापना गोखले द्वारा किया गया महत्त्वपूर्ण कार्य था। इस तरह गोखले ने राजनीति को आध्यात्मिकता के ढांचे में ढालने का अनुठा कार्य किया। इस सोसाइटी के सदस्यों को ये 7 शपथ ग्रहण करनी होती थीं- | '''तुम्हें धिक्कार है, जो अपनी माता-बहनों पर होता हुआ अत्याचार चुप्पी साधकर देख रहे हो। इतने निष्क्रिय भाव से तो पशु भी अत्याचार सहन नहीं करते।'''<br />इन शब्दों ने भारत में ही नहीं, इंग्लैंड के सभ्य समाज में भी खलबली मचा दी थी। 'सर्वेन्ट ऑफ़ सोसायटी' की स्थापना गोखले द्वारा किया गया महत्त्वपूर्ण कार्य था। इस तरह गोखले ने राजनीति को आध्यात्मिकता के ढांचे में ढालने का अनुठा कार्य किया। इस सोसाइटी के सदस्यों को ये 7 शपथ ग्रहण करनी होती थीं- | ||
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#पवित्र जीवन बिताएगा। किसी से झगड़ा नहीं करेगा। | #पवित्र जीवन बिताएगा। किसी से झगड़ा नहीं करेगा। | ||
#सोसायटी का अधिकतम संरक्षण करेगा तथा ऐसा करते समय सोसायटी के उद्देश्यों पर पूरा ध्यान देगा।<ref name="bss"/> | #सोसायटी का अधिकतम संरक्षण करेगा तथा ऐसा करते समय सोसायटी के उद्देश्यों पर पूरा ध्यान देगा।<ref name="bss"/> | ||
==सच्चे राष्ट्रवादी== | |||
गोखले उदारवादी होने के साथ-साथ सच्चे राष्ट्रवादी भी थे। वे अंग्रेज़ों के प्रति भक्ति को ही राष्ट्रभक्ति समझते थे। गोखले यह कल्पना नहीं कर सकते थे कि अंग्रेज़ी साम्राज्य के बाहर भारत कुछ प्रगति कर सकता है। अंग्रेज़ी साम्राज्य को चुनौती देने के दुष्परिणामों की कल्पना करके ही वे अंग्रेज़ी साम्राज्य के भारी समर्थक बन गये। [[लॉर्ड हार्डिंग]] से गोखले ने कहा था कि "यदि अंग्रेज़ भारत छोड़कर चले गये, तब उनके पहुँचने से पूर्व भारतीय नेता उनको लौट आने के लिए तार द्वारा आमंत्रित करेंगें।" [[गरम दल]] के लोगों ने उन्हें 'दुर्बल [[हृदय]] का उदारवादी एवं छिपा हुआ राजद्रोही कहा। उन्होंने [[1909]] ई. के [[मार्ले-मिण्टो सुधार]] के निर्माण में सहयोग किया। [[1912]]-[[1915]] ई. तक गोखले '[[लोक सेवा आयोग | भारतीय लोक सेवा आयोग]]' के अध्यक्ष रहे। राष्ट्र की सेवा के लिए राष्ट्रीय प्रचारकों को तैयार करने हेतु गोखले ने [[12 जून]], [[1905]] को 'भारत सेवक समिति' की स्थापना की। इस संस्था से पैदा होने वाले महत्वपुर्ण समाज सेवकों में वी. श्रीनिवास शास्त्री, जी.के. देवधर, एन.एम. जोशी, पंडित हृदय नारायण कुंजरू आदि थे। उन्होंने 'पूना सार्वजनिक सभा' की पत्रिका तथा 'सुधारक' का सम्पादन भी किया। | |||
==गांधी जी को मिली थी गोखले से प्रेरणा== | ==गांधी जी को मिली थी गोखले से प्रेरणा== | ||
{{दाँयाबक्सा|पाठ='केसरी' और 'मराठा' अख़बारों के माध्यम से तिलक जहाँ अंग्रेज़ी हुकूमत के विरुद्ध लड़ रहे थे, वहीं 'सुधारक' को गोखले ने अपनी लड़ाई का माध्यम बनाया हुआ था। 'केसरी' की अपेक्षा 'सुधारक' का रूप आक्रामक था। सैनिकों द्वारा बलात्कार का शिकार हुई दो महिलाओं ने जब आत्महत्या कर ली, तो 'सुधारक' ने भारतीयों को कड़ी भाषा में धिक्कारा था- | {{दाँयाबक्सा|पाठ='केसरी' और 'मराठा' अख़बारों के माध्यम से तिलक जहाँ अंग्रेज़ी हुकूमत के विरुद्ध लड़ रहे थे, वहीं 'सुधारक' को गोखले ने अपनी लड़ाई का माध्यम बनाया हुआ था। 'केसरी' की अपेक्षा 'सुधारक' का रूप आक्रामक था। सैनिकों द्वारा बलात्कार का शिकार हुई दो महिलाओं ने जब आत्महत्या कर ली, तो 'सुधारक' ने भारतीयों को कड़ी भाषा में धिक्कारा था- | ||
'''तुम्हें धिक्कार है, जो अपनी माता-बहनों पर होता हुआ अत्याचार चुप्पी साधकर देख रहे हो। इतने निष्क्रिय भाव से तो पशु भी अत्याचार सहन नहीं करते।''' | '''तुम्हें धिक्कार है, जो अपनी माता-बहनों पर होता हुआ अत्याचार चुप्पी साधकर देख रहे हो। इतने निष्क्रिय भाव से तो पशु भी अत्याचार सहन नहीं करते।''' | ||
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[[गाँधी जी]] गोखले को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। आपके परामर्श पर ही उन्होंने सक्रिय राजनीति में भाग लेने से पूर्व एक वर्ष तक देश में घूमकर स्थिति का अध्ययन करने का निश्चय किया था। साबरमती आश्रम की स्थापना के लिए गोखले ने गाँधी जी को आर्थिक सहायता दी। गोखले सिर्फ गांधी जी के ही नहीं बल्कि [[मोहम्मद अली जिन्ना]] के भी राजनीतिक गुरु थे। गांधी जी को अहिंसा के जरिए स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई की प्रेरणा गोखले से ही मिली थी। गोखले की प्रेरणा से ही गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के ख़िलाफ़ आंदोलन चलाया। सन् [[1912]] में गांधी के आमंत्रण पर वह खुद भी दक्षिण अफ्रीका गए और वहां जारी रंगभेद की निन्दा की। जन नेता कहे जाने वाले गोखले नरमपंथी सुधारवादी थे। उन्होंने आज़ादी की लड़ाई के साथ ही देश में व्याप्त छुआछूत और जातिवाद के ख़िलाफ़ आंदोलन चलाया। वह जीवनभर हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए काम करते रहे। मोहम्मद अली जिन्ना ने भी उन्हें अपना राजनीतिक गुरु माना था। यह बात अलग है कि बाद में जिन्ना गोखले के आदर्शों पर | [[गाँधी जी]] गोखले को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। आपके परामर्श पर ही उन्होंने सक्रिय राजनीति में भाग लेने से पूर्व एक वर्ष तक देश में घूमकर स्थिति का अध्ययन करने का निश्चय किया था। साबरमती आश्रम की स्थापना के लिए गोखले ने गाँधी जी को आर्थिक सहायता दी। गोखले सिर्फ गांधी जी के ही नहीं बल्कि [[मोहम्मद अली जिन्ना]] के भी राजनीतिक गुरु थे। गांधी जी को अहिंसा के जरिए स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई की प्रेरणा गोखले से ही मिली थी। गोखले की प्रेरणा से ही गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के ख़िलाफ़ आंदोलन चलाया। सन् [[1912]] में गांधी के आमंत्रण पर वह खुद भी दक्षिण अफ्रीका गए और वहां जारी रंगभेद की निन्दा की। जन नेता कहे जाने वाले गोखले नरमपंथी सुधारवादी थे। उन्होंने आज़ादी की लड़ाई के साथ ही देश में व्याप्त छुआछूत और जातिवाद के ख़िलाफ़ आंदोलन चलाया। वह जीवनभर हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए काम करते रहे। मोहम्मद अली जिन्ना ने भी उन्हें अपना राजनीतिक गुरु माना था। यह बात अलग है कि बाद में जिन्ना गोखले के आदर्शों पर क़ायम नहीं रह पाए और देश के बंटवारे के नाम पर भारी ख़ूनख़राबा कराया।<ref>{{cite web |url=http://www.samaylive.com/gallery/ipl-2-194/12921.html |title=गांधी जी को मिली थी गोखले से प्रेरणा |accessmonthday=[[6 मई]] |accessyear=[[2011]] |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=समय लाइव |language=[[हिन्दी]]}}</ref> | ||
==सवैधानिक सुधार== | ==सवैधानिक सुधार== | ||
वाइसराय की कौंसिल में रहते हुए गोखले ने किसानों की स्थिति की ओर अनेक बार ध्यान दिलाया। वे सवैधानिक सुधारों के लिए निरंतर ज़ोर देते रहे। '[[मॉर्ले मिण्टो सुधार|मिंटो मार्ले सुधारों]]' का बहुत कुछ श्रेय गोखले के प्रत्यनों को है। नरम विचारों के होते हुए देश के बदलते तेवर से गोखले बिल्कुल अलग नहीं थे। इसलिए 'बंग भंग' के विरोध में आरंभ में बहिष्कार के संबंध में उन्होंने कहा था- | वाइसराय की कौंसिल में रहते हुए गोखले ने किसानों की स्थिति की ओर अनेक बार ध्यान दिलाया। वे सवैधानिक सुधारों के लिए निरंतर ज़ोर देते रहे। '[[मॉर्ले मिण्टो सुधार|मिंटो मार्ले सुधारों]]' का बहुत कुछ श्रेय गोखले के प्रत्यनों को है। नरम विचारों के होते हुए देश के बदलते तेवर से गोखले बिल्कुल अलग नहीं थे। इसलिए 'बंग भंग' के विरोध में आरंभ में बहिष्कार के संबंध में उन्होंने कहा था- | ||
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'''यदि सहयोग के सारे मार्ग अवरुद्ध हो जाएँ और देश की लोक-चेतना इसके अनुकूल हो, बहिष्कार का प्रयोग सर्वथा उचित है।'''<ref name="bck"/> | '''यदि सहयोग के सारे मार्ग अवरुद्ध हो जाएँ और देश की लोक-चेतना इसके अनुकूल हो, बहिष्कार का प्रयोग सर्वथा उचित है।'''<ref name="bck"/> | ||
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गोपाल कृष्ण गोखले मधुमेह, दमा जैसी कई गंभीर बीमारियों से परेशान रहने लगे और अंतत: [[19 फरवरी]], [[1915]] ई. को [[मुम्बई]], [[महाराष्ट्र]] में उनका निधन हो गया। | गोपाल कृष्ण गोखले [[मधुमेह]], दमा जैसी कई गंभीर बीमारियों से परेशान रहने लगे और अंतत: [[19 फरवरी]], [[1915]] ई. को [[मुम्बई]], [[महाराष्ट्र]] में उनका निधन हो गया। गोखले ने भारत के लिए 'काउंसिल ऑफ़ द सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट' और 'नाइटहुड' की उपाधि में पद ग्रहण करने से इन्कार कर दिया था। उन्होंने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि वे निम्न जाति के [[हिन्दू|हिन्दुओं]] की शिक्षा और रोज़गार में सुधार की मांग कर रहे थे, जिससे कि उन्हें आत्म-सम्मान और सामाजिक स्तर प्रदान किया जा सके। गोखले ने स्वदेशी का प्रचार करते हुए भारत में औद्योगिकीकरण का समर्थन किया, किन्तु वे बायकाट की नीति के विरुद्ध थे। अपने समझौतावादी स्वभाव के वशीभूत होकर [[1906]] के कलकत्ता अधिवेशन में उन्होंने बायकाट के प्रस्ताव का समर्थन किया। गोखले की मृत्यु के बाद [[महात्मा गांधी]] ने अपने इस राजनीतिक गुरु के बारे में कहा "सर फिरोजशाह मुझे [[हिमालय]] की तरह दिखाई दिये, जिसे मापा नहीं जा सकता और [[लोकमान्य तिलक]] महासागर की तरह, जिसमें कोई आसानी से उतर नहीं सकता, पर गोखले तो [[गंगा]] के समान थे, जो सबको अपने पास बुलाती है।" तिलक ने गोखले को 'भारत का [[हीरा]]', '[[महाराष्ट्र]] का लाल' और 'कार्यकर्ताओं का राजा' कहकर उनकी सराहना की। | ||
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05:20, 9 मई 2018 के समय का अवतरण
गोपाल कृष्ण गोखले
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पूरा नाम | गोपाल कृष्ण गोखले |
जन्म | 9 मई, 1866 ई. |
जन्म भूमि | कोल्हापुर, महाराष्ट्र (भारत) |
मृत्यु | 19 फरवरी, 1915 ई. |
मृत्यु स्थान | मुम्बई, महाराष्ट्र |
मृत्यु कारण | मधुमेह, दमा |
अभिभावक | श्री कृष्णराव श्रीधर गोखले |
नागरिकता | भारतीय |
प्रसिद्धि | स्वतंत्रता सेनानी, समाजसेवी, विचारक एवं समाज सुधारक; आप महात्मा गांधी के राजनीतिक गुरु भी थे। |
पार्टी | भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस |
शिक्षा | स्नातक |
विशेष योगदान | 'भारत सेवक समाज' (सरवेंट्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी) की स्थापना |
अन्य जानकारी | अपनी शिक्षा पूरी करने पर गोपाल कृष्ण कुछ दिन 'न्यू इंग्लिश हाई स्कूल' में अध्यापक रहे थे। बाद में पूना के प्रसिद्ध 'फर्ग्यूसन कॉलेज' में इतिहास और अर्थशास्त्र के प्राध्यापक रहे। बालगंगाधर तिलक और गोखले में परस्पर कई मतभेद थे। |
गोपाल कृष्ण गोखले (अंग्रेज़ी: Gopal Krishna Gokhale, जन्म: 9 मई, 1866 ई., कोल्हापुर, महाराष्ट्र; मृत्यु: 19 फ़रवरी, 1915 ई.) अपने समय के अद्वितीय संसदविद और राष्ट्रसेवी थे। यह एक स्वतंत्रता सेनानी, समाजसेवी, विचारक एवं सुधारक भी थे। 1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम के नौ वर्ष बाद गोखले का जन्म हुआ था। यह वह समय था, जब स्वतंत्रता संग्राम असफल अवश्य हो गया था, किंतु भारत के अधिकांश देशवासियों के हृदय में स्वतंत्रता की आग धधकने लगी थी।[1]
जीवन परिचय
गोपाल कृष्ण गोखले का जन्म 9 मई, 1866 ई. को महाराष्ट्र में कोल्हापुर नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता कृष्णराव श्रीधर गोखले एक ग़रीब किंतु स्वाभिमानी ब्राह्मण थे। पिता के असामयिक निधन ने गोपाल कृष्ण को बचपन से ही सहिष्णु और कर्मठ बना दिया था। स्नातक की डिग्री प्राप्त कर गोखले गोविन्द रानाडे द्वारा स्थापित 'देक्कन एजुकेशन सोसायटी' के सदस्य बने। बाद में ये महाराष्ट्र के 'सुकरात' कहे जाने वाले गोविन्द रानाडे के शिष्य बन गये। शिक्षा पूरी करने पर गोपालकृष्ण कुछ दिन 'न्यू इंग्लिश हाई स्कूल' में अध्यापक रहे। बाद में पूना के प्रसिद्ध फर्ग्यूसन कॉलेज में इतिहास और अर्थशास्त्र के प्राध्यापक बन गए।
ईमानदारी
गोपाल कृष्ण तब तीसरी कक्षा के छात्र थे। अध्यापक ने जब बच्चों के गृहकार्य की कॉपियाँ जाँची, तो गोपाल कृष्ण के अलावा किसी के जवाब सही नहीं थे। उन्होंने गोपाल कृष्ण को जब शाबाशी दी, तो गोपाल कृष्ण की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। सभी हैरान हो उठे। गृहकार्य उन्होंने अपने बड़े भाई से करवाया था। यह एक तरह से उस निष्ठा की शुरुआत थी, जिसके आधार पर गोखले ने आगे चलकर अपने चार सिद्धांतों की घोषणा की-
- सत्य के प्रति अडिगता
- अपनी भूल की सहज स्वीकृती
- लक्ष्य के प्रति निष्ठा
- नैतिक आदर्शों के प्रति आदरभाव
वाकपटुता का कमाल
बाल गंगाधर तिलक से मिलने के बाद गोखले के जीवन को नई दिशा मिल गई। गोखले ने पहली बार कोल्हापुर में एक सार्वजनिक सभा को संबोधित किया। सन 1885 में गोखले का भाषण सुनकर श्रोता मंत्रमुग्ध हो गए थे, भाषण का विषय था-
अंग्रेजी हुकूमत के अधीन भारत।[2]
सार्वजनिक कार्य
न्यायमूर्ति महादेव गोविन्द रानाडे के संपर्क में आने से गोपाल कृष्ण सार्वजनिक कार्यों में रुचि लेने लगे। उन दिनों पूना की 'सार्वजनिक सभा' एक प्रमुख राजनीतिक संस्था थी। गोखले ने उसके मंत्री के रूप में कार्य किया। इससे उनके सार्वजनिक कार्यों का विस्तार हुआ। कांग्रेस की स्थापना के बाद वे उस संस्था से जुड़ गए। कांग्रेस का 1905 का बनारस अधिवेशन गोखले की ही अध्यक्षता में हुआ था। उन दिनों देश की राजनीति में दो विचारधाराओं का प्राधान्य था। लोकमान्य तिलक तथा लाला लाजपत राय जैसे नेता गरम विचारों के थे। सवैधानिक रीति से देश को स्वशासन की ओर ले जाने में विश्वास रखने वाले गोखले नरम विचारों के माने जाते थे। आपका क्रांति में नहीं, सुधारों में विश्वास था।[1]
राजनीति में प्रवेश
गोखले का राजनीति में पहली बार प्रवेश 1888 ई. में इलाहाबाद में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में हुआ। 1897 ई. में दक्षिण शिक्षा समिति के सदस्य के रूप में गोखले और वाचा को इंग्लैण्ड जाकर 'वेल्बी आयोग' के समक्ष गवाही देने को कहा गया। 1902 ई. में गोखले को 'इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउन्सिल' का सदस्य चुना गया। उन्होंने नमक कर, अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा एवं सरकारी नौकरियों में भारतीयों को अधिक स्थान देने के मुद्दे को काउन्सिल में उठाया। उग्रवादी दल ने उनकी संयम की गति की बड़ी आलोचना की। उन्हें प्रायः शिथिल उदारवादी बताया गया। सरकार ने उन्हें कई बार उग्रवादी विचारों वाले व्यक्ति तथा छदम् विद्रोही की संज्ञा दी।
महादेव गोविंद रानाडे के शिष्य गोपाल कृष्ण गोखले को वित्तीय मामलों की अद्वितीय समझ और उस पर अधिकारपूर्वक बहस करने की क्षमता से उन्हें 'भारत का ग्लेडस्टोन' कहा जाता है। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सबसे प्रसिद्ध नरमपंथी थे।

1905 में गोखले ने 'भारत सेवक समाज' (सरवेंट्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी) की स्थापना की, ताकि नौजवानों को सार्वजनिक जीवन के लिए प्रशिक्षित किया जा सके। उनका मानना था कि वैज्ञानिक और तकनीकी शिक्षा भारत की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। इसीलिए इन्होंने सबसे पहले प्राथमिक शिक्षा लागू करने के लिये सदन में विधेयक भी प्रस्तुत किया था। इसके सदस्यों में कई प्रमुख व्यक्ति थे। उन्हें नाम मात्र के वेतन पर जीवन-भर देश सेवा का व्रत लेना होता था। गोखले ने राजकीय तथा सार्वजनिक कार्यों के लिए 7 बार इंग्लैण्ड की यात्रा की।[1]
- सुधारक की कड़ी भाषा
'केसरी' और 'मराठा' अख़बारों के माध्यम से लोकमान्य तिलक जहाँ अंग्रेज़ हुकूमत के विरुद्ध लड़ रहे थे, वहीं 'सुधारक' को गोखले ने अपनी लड़ाई का माध्यम बनाया हुआ था। 'केसरी' की अपेक्षा 'सुधारक' का रूप आक्रामक था। सैनिकों द्वारा बलात्कार का शिकार हुई दो महिलाओं ने जब आत्महत्या कर ली, तो 'सुधारक' ने भारतीयों को कड़ी भाषा में धिक्कारा था-
तुम्हें धिक्कार है, जो अपनी माता-बहनों पर होता हुआ अत्याचार चुप्पी साधकर देख रहे हो। इतने निष्क्रिय भाव से तो पशु भी अत्याचार सहन नहीं करते।
इन शब्दों ने भारत में ही नहीं, इंग्लैंड के सभ्य समाज में भी खलबली मचा दी थी। 'सर्वेन्ट ऑफ़ सोसायटी' की स्थापना गोखले द्वारा किया गया महत्त्वपूर्ण कार्य था। इस तरह गोखले ने राजनीति को आध्यात्मिकता के ढांचे में ढालने का अनुठा कार्य किया। इस सोसाइटी के सदस्यों को ये 7 शपथ ग्रहण करनी होती थीं-
- वह अपने देश की सर्वोच्च समझेगा और उसकी सेवा में प्राण न्योछावर कर देगा।
- देश सेवा में व्यक्तिगत लाभ को नहीं देखेगा।
- प्रत्येक भारतवासी को अपना भाई मानेगा।
- जाति समदाय का भेद नहीं मानेगा।
- सोसाइटी उसके और उसके परिवार के लिए जो धनराशि देगी, वह उससे संतुष्ट रहेगा तथा अधिक कमाने की ओर ध्यान नहीं देगा।
- पवित्र जीवन बिताएगा। किसी से झगड़ा नहीं करेगा।
- सोसायटी का अधिकतम संरक्षण करेगा तथा ऐसा करते समय सोसायटी के उद्देश्यों पर पूरा ध्यान देगा।[2]
सच्चे राष्ट्रवादी
गोखले उदारवादी होने के साथ-साथ सच्चे राष्ट्रवादी भी थे। वे अंग्रेज़ों के प्रति भक्ति को ही राष्ट्रभक्ति समझते थे। गोखले यह कल्पना नहीं कर सकते थे कि अंग्रेज़ी साम्राज्य के बाहर भारत कुछ प्रगति कर सकता है। अंग्रेज़ी साम्राज्य को चुनौती देने के दुष्परिणामों की कल्पना करके ही वे अंग्रेज़ी साम्राज्य के भारी समर्थक बन गये। लॉर्ड हार्डिंग से गोखले ने कहा था कि "यदि अंग्रेज़ भारत छोड़कर चले गये, तब उनके पहुँचने से पूर्व भारतीय नेता उनको लौट आने के लिए तार द्वारा आमंत्रित करेंगें।" गरम दल के लोगों ने उन्हें 'दुर्बल हृदय का उदारवादी एवं छिपा हुआ राजद्रोही कहा। उन्होंने 1909 ई. के मार्ले-मिण्टो सुधार के निर्माण में सहयोग किया। 1912-1915 ई. तक गोखले ' भारतीय लोक सेवा आयोग' के अध्यक्ष रहे। राष्ट्र की सेवा के लिए राष्ट्रीय प्रचारकों को तैयार करने हेतु गोखले ने 12 जून, 1905 को 'भारत सेवक समिति' की स्थापना की। इस संस्था से पैदा होने वाले महत्वपुर्ण समाज सेवकों में वी. श्रीनिवास शास्त्री, जी.के. देवधर, एन.एम. जोशी, पंडित हृदय नारायण कुंजरू आदि थे। उन्होंने 'पूना सार्वजनिक सभा' की पत्रिका तथा 'सुधारक' का सम्पादन भी किया।
गांधी जी को मिली थी गोखले से प्रेरणा
गाँधी जी गोखले को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। आपके परामर्श पर ही उन्होंने सक्रिय राजनीति में भाग लेने से पूर्व एक वर्ष तक देश में घूमकर स्थिति का अध्ययन करने का निश्चय किया था। साबरमती आश्रम की स्थापना के लिए गोखले ने गाँधी जी को आर्थिक सहायता दी। गोखले सिर्फ गांधी जी के ही नहीं बल्कि मोहम्मद अली जिन्ना के भी राजनीतिक गुरु थे। गांधी जी को अहिंसा के जरिए स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई की प्रेरणा गोखले से ही मिली थी। गोखले की प्रेरणा से ही गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के ख़िलाफ़ आंदोलन चलाया। सन् 1912 में गांधी के आमंत्रण पर वह खुद भी दक्षिण अफ्रीका गए और वहां जारी रंगभेद की निन्दा की। जन नेता कहे जाने वाले गोखले नरमपंथी सुधारवादी थे। उन्होंने आज़ादी की लड़ाई के साथ ही देश में व्याप्त छुआछूत और जातिवाद के ख़िलाफ़ आंदोलन चलाया। वह जीवनभर हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए काम करते रहे। मोहम्मद अली जिन्ना ने भी उन्हें अपना राजनीतिक गुरु माना था। यह बात अलग है कि बाद में जिन्ना गोखले के आदर्शों पर क़ायम नहीं रह पाए और देश के बंटवारे के नाम पर भारी ख़ूनख़राबा कराया।[3]
सवैधानिक सुधार
वाइसराय की कौंसिल में रहते हुए गोखले ने किसानों की स्थिति की ओर अनेक बार ध्यान दिलाया। वे सवैधानिक सुधारों के लिए निरंतर ज़ोर देते रहे। 'मिंटो मार्ले सुधारों' का बहुत कुछ श्रेय गोखले के प्रत्यनों को है। नरम विचारों के होते हुए देश के बदलते तेवर से गोखले बिल्कुल अलग नहीं थे। इसलिए 'बंग भंग' के विरोध में आरंभ में बहिष्कार के संबंध में उन्होंने कहा था-
यदि सहयोग के सारे मार्ग अवरुद्ध हो जाएँ और देश की लोक-चेतना इसके अनुकूल हो, बहिष्कार का प्रयोग सर्वथा उचित है।[1]
निधन
गोपाल कृष्ण गोखले मधुमेह, दमा जैसी कई गंभीर बीमारियों से परेशान रहने लगे और अंतत: 19 फरवरी, 1915 ई. को मुम्बई, महाराष्ट्र में उनका निधन हो गया। गोखले ने भारत के लिए 'काउंसिल ऑफ़ द सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट' और 'नाइटहुड' की उपाधि में पद ग्रहण करने से इन्कार कर दिया था। उन्होंने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि वे निम्न जाति के हिन्दुओं की शिक्षा और रोज़गार में सुधार की मांग कर रहे थे, जिससे कि उन्हें आत्म-सम्मान और सामाजिक स्तर प्रदान किया जा सके। गोखले ने स्वदेशी का प्रचार करते हुए भारत में औद्योगिकीकरण का समर्थन किया, किन्तु वे बायकाट की नीति के विरुद्ध थे। अपने समझौतावादी स्वभाव के वशीभूत होकर 1906 के कलकत्ता अधिवेशन में उन्होंने बायकाट के प्रस्ताव का समर्थन किया। गोखले की मृत्यु के बाद महात्मा गांधी ने अपने इस राजनीतिक गुरु के बारे में कहा "सर फिरोजशाह मुझे हिमालय की तरह दिखाई दिये, जिसे मापा नहीं जा सकता और लोकमान्य तिलक महासागर की तरह, जिसमें कोई आसानी से उतर नहीं सकता, पर गोखले तो गंगा के समान थे, जो सबको अपने पास बुलाती है।" तिलक ने गोखले को 'भारत का हीरा', 'महाराष्ट्र का लाल' और 'कार्यकर्ताओं का राजा' कहकर उनकी सराहना की।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 1.3 शर्मा, लीलाधर भारतीय चरित कोश (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: शिक्षा भारती, दिल्ली, पृष्ठ 246-247।
- ↑ 2.0 2.1 गोपाल कृष्ण गोखले (हिन्दी) (पी.एच.पी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 6 मई, 2011।
- ↑ गांधी जी को मिली थी गोखले से प्रेरणा (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) समय लाइव। अभिगमन तिथि: 6 मई, 2011।
बाहरी कड़ीयाँ
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