एस. श्रीनिवास आयंगार
एस. श्रीनिवास आयंगार
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जन्म | 11 सितम्बर, 1874 |
जन्म भूमि | रामानाथपुरम (रामनाड) ज़िला मद्रास |
मृत्यु | 19 मई, 1941 |
नागरिकता | भारतीय |
पार्टी | भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस |
कार्य काल | 1916 से 1920 -भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष |
अन्य जानकारी | दिसम्बर 1927) में उनके प्रयासों को सफलता मिली, जहां पर हिन्दू मुसलमानों की एकता के प्रस्ताव को पूर्ण समर्थन से पारित कर दिया गया। |
अद्यतन | 18:24, 3 जून 2017 (IST)
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एस. श्रीनिवास आयंगार (अंग्रेज़ी: S. Srinivasa Iyengar, जन्म: 11 सितम्बर, 1874,रामानाथपुरम (रामनाड) ज़िला मद्रास; मृत्यु: 19 मई, 1941) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष व भारतीय वकील थे।[1]
जीवन परिचय
एक रुढ़िवादी श्री वैष्णव ब्राह्मण तथा रामानाथपुरम (रामनाड) ज़िला मद्रास के प्रतिष्ठित धनाढ्य ज़मींदार के पुत्र के रूप में श्रीनिवास 11 सितम्बर 1874 को पैदा हुए। श्रीनिवास आयंगर ने 1898 में मद्रास उच्च न्यायालय में प्रैक्टिस प्रारम्भ की और अविश्वसनीय रूप से थोड़े समय में ही वे अपने पेशे में उच्च स्थान हासिल कर लिया।[1] हिन्दू धर्म शास्त्रों तथा विधिशास्त्र और संविधानी कानून के गौरवग्रन्थों के गहरे ज्ञान के साथ-साथ उनके जांच पड़ताल करने वाले मौलिक दिमाग ने उन्हें खुद-ब-खुद कानूनी विचारक बना दिया और उनके मेटानस हिन्दू कानून के संस्करण को एक गौरव ग्रंथ माना गया। कानून के अलावा, उनके अन्य शौक शिक्षा, सामाजिक सुधार तथा राजनीति थे। सर शंकरन नायर (जिन्होंने अमरौती कांग्रेस का अध्यक्ष पद संभाला) तथा श्री सी. विजयराघवाचारियार (जिन्होंने 1920 में नागपुर कांग्रेस का अध्यक्ष पद संभाला) थे, जिन्होंने शुरुआती तौर पर उन्हें प्रभावित किया। वह गोखले (जिनके नाम पर उन्होंने एक पारितोषिक के लिये धन प्रदान किया) तथा बाद में गांधी जी के प्रशंसक थे।[1]
राजनैतिक करियर की शुरुआत
लगभग 1910 के बाद श्रीनिवास आयंगर ने भारत में विकसित होती हुई राजनीतिक स्थिति के बारे में दिलचस्पी महसूस की, 1920 में ही उन्होंने एडवोकेट जनरल के पद से त्यागपत्र देने के बाद राजनीति में छलांग लगायी। 1920 में त्रिपोली में उन्होंने मद्रास प्रान्तीय सभा का अध्यक्ष पद संभाला, बेहतरीन तरीके से चलती हुई वकालत को छोड़ दिया। वैधानिक समिति (जिसके लिये रजिस्टर्ड स्नातक के रूप में वह वापस लौट कर गये) की सदस्यता से त्याग पत्र दिया, सरकार को सी0आई0ई0 लौटा दिया और कांग्रेस के कामों में प्रमुखता से भाग लिया। उन्होंने अहमदाबाद (1921) से लाहौर (1929) के कांग्रेस के अधिवेशनों में सक्रिय तौर पर हिस्सा लिया, और लगभग 10 वर्षों तक मद्रास में कांग्रेस की लाजवाब अगुआई की। कांग्रेस के सभा-प्रवेश पर फैसला लेने के बाद उन्होंने 1925 में पार्टी का मद्रास में विजय प्राप्त करने के लिये मार्गदर्शन किया, और मद्रास से केन्द्रीय सभा के लिये चुने गये, और उस समय के दौरान जब मोतीलाल नेहरू भारत में नहीं थे, उन्होंने नेता के रूप में कार्य किया।[1]
व्यक्तिगत जीवन
मद्रास में अपनी व्यापक शैक्षिक यात्राओं के जरिये, दूर-दूर के गांवों तक वह राष्ट्रवाद का संदेश ले गये और यह उनका नाम ही था कि उन्होंने मद्रास प्रान्त को कांग्रेस-मय बना दिया। उनकी महान् बौद्धिक ख्याति, उनके व्यक्तिगत जीवन की अनोखी पवित्रता तथा भारत की स्वतंत्रता के मामले में उनकी शक्तिशाली वकालत ने पूरे भारत में असंख्य प्रशंसकों का दिल जीत लिया। विरुधुनगर के युवा कामराज श्रीनिवास आयंगर की कई खोजों में से एक थे और उनके पक्के समर्थकों में सत्यमूर्ति, मुथुरंगा मुदलियार तथा सुभाषचन्द्र बोस थे। श्रीनिवास आयंगर ‘‘जुड़े हुए नेतृत्व’’ में विश्वास रखते थे, जिसके लिये वह मानते थे कि असली नेता को राजनीतिक संगठन में तथा गांव से लेकर शहरों तक सभी स्तर, हर ढांचे के साथ अर्थपूर्ण सम्पर्क को बनाये रखना चाहिये। हाल के दशकों में, उनके आदर्शों को उच्च सफलता के लिये प्रयोग में लाया गया है।[1]
राजनैतिक सफर
एस. श्रीनिवास आयंगर ने (दिसम्बर 1926) के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गुवहाटी अधिवेशन में अध्यक्ष पद संभाला और अध्यक्ष पद पर सेवा अवधि के दौरान हिन्दू तथा मुसलमानों के सम्प्रदायों के नेताओं के पुनर्मिलन के लिये काफ़ी कुछ किया और मद्रास कांग्रेस (दिसम्बर 1927) में उनके प्रयासों को सफलता मिली, जहां पर हिन्दू मुसलमानों की एकता के प्रस्ताव को पूर्ण समर्थन से पारित कर दिया गया। इसी समय के दौरान उन्होंने भविष्य की भारत की सरकार की संघात्मक नीति का खुलासा करते हुए, ‘‘स्वराज कांस्टीट्यूशन’’ का प्रकाशन किया। जब 1928 में स्वतंत्र उपनिवेश वाले दर्जे को रेखांकित करने वाले भारत के संविधान पर सर्वदलीय रिपोर्ट (जिसे नेहरु रिपोर्ट के नाम से जाना जाता था) का प्रकाशन हुआ तो श्रीनिवास आयंगर ने स्वयं को अध्यक्ष तथा जवाहर लाल नेहरु और सुभाष चन्द्र बोस को सचिव के रूप में नियुक्त कर स्वतंत्र लीग को संगठित किया।[1]
मोतीलाल नेहरू और श्रीनिवास अयंगर
मोतीलाल नेहरु तथा श्रीनिवास अयंगर के बीच ‘‘स्वतंत्र उपनिवेश दर्जे’’ तथा ‘‘स्वतंत्रता’’ के मामले में 1929 के दौरान मतभेद काफ़ी बढ़ गये और हालांकि दिसम्बर 1929 में लाहौर कांग्रेस में स्वतंत्रता के पक्ष में अन्तिम निर्णय ले लिया गया, श्रीनिवास आयंगर ने 1930 के प्रारम्भ में सक्रिय सार्वजनिक जीवन से सेवानिवृत्त होने का स्वयं ही फैसला ले लिया।[1]
मृत्यु
फिर भी, 1939 में एक संगठन कार्यकर्ता की अपेक्षा जोशीले राजनीतिक विचारक के रूप में थोड़े समय के लिये राजनीतिक जीवन में लौटे। 19 मई को मद्रास में अपने घर पर उनकी अकस्मात मृत्यु हो गयी। निसंदेह श्रीनिवास बहुत बुद्धिमान, बहुत गतिशील तथा युद्ध के दौरान दक्षिण भारत के नेताओं में सबसे ज्यादा बहुमुखी थे।[1]
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