अग्नि

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अग्नि

अग्नि रासायनिक दृष्टि से अग्नि जीवजनित पदार्थों के कार्बन तथा अन्य तत्वों का ऑक्सीजन से इस प्रकार का संयोग है कि गरमी और प्रकाश उत्पन्न हों। अग्नि की बड़ी उपयोगिता है: जाड़े में हाथ-पैर सेंकने से लेकर परमाणु बम द्वारा नगर का नगर भस्म कर देना, सब अग्नि का ही काम है। इसी से हमारा भोजन पकता है, इसी के द्वारा खनिज पदार्थों से धातुएँ निकाली जाती हैं और इसी से शक्ति उत्पादक इंजन चलते हैं। भूमि में दबे अवशेषों से पता चलता है कि प्राय पृथ्वी पर मनुष्य के प्रादुर्भाव काल से ही उसे अग्नि का ज्ञान था। आज भी पृथ्वी पर बहुत सी जंगली जातियाँ हैं जिनकी सभ्यता एकदम प्रारंभिक है, परंतु ऐसी कोई जाति नहीं है जिसे अग्नि का ज्ञान न हो।

आदिम मनुष्य ने पत्थरों के टकराने से उत्पन्न चिंगारियों को देखा होगा। अधिकांश विद्वानों का मत है कि मनुष्य ने सर्वप्रथम कड़े पत्थरों को एक-दूसरे पर मारकर अग्नि उत्पन्न की होगी।

उत्पत्ति के सम्बन्ध में पौराणिक गाथा

अग्नि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पौराणिक गाथा इस प्रकार है-सर्वप्रथम धर्म की वसु नामक पत्नी से अग्नि उत्पन्न हुआ। उसकी पत्नी स्वाहा से उसके तीन पुत्र हुए-

  1. पावक
  2. पवमान
  3. शुचि

छठे मन्वन्तर में वसु की वसुधारा नामक पत्नी से द्रविणक आदि पुत्र हुए, जिनमें 45 अग्नि-संतान उत्पन्न हुए। इस प्रकार सब मिलाकर 49 अग्नि हैं। विभिन्न कर्मों में अग्नि के भिन्न-भिन्न नाम हैं। लौकिक कर्म में अग्नि का प्रथम नाम पावक है। गृहप्रवेश आदि में निम्नांकित अन्य नाम प्रसिद्ध हैं-

अग्नेस्तु मारुतो नाम गर्भाधाने विधीयते।
पुंसवने चन्द्रनामा शुगांकर्मणि शोभन:।।
सीमन्ते मंगलो नाम प्रगल्भो जातकर्मणि।
नाग्नि स्यात्पार्थिवी ह्यग्नि: प्राशने च शुचिस्तथा।।
सत्यनामाथ चूडायां व्रतादेशे समुद्भव:।
गोदाने सूर्यनामा च केशान्ते ह्यग्निरुच्यते।।
वैश्वानरो विसर्गे तु विवाहे योजक: स्मृत:।
चतुर्थ्यान्तु शिखी नाम धृतिरग्निस्तथा परे।।
प्रायश्चित्ते विधुश्चैव पाकयज्ञे तु साहस:।
लक्षहोमे तु वह्नि:स्यात कोटिहोमे हुताश्न:।।
पूर्णाहुत्यां मृडो नाम शान्तिके वरदस्तथा।
पौष्टिके बलदश्चैव क्रोधाग्निश्चाभिचारिके।।
वश्यर्थे शमनी नाम वरदानेऽभिदूषक:।
कोष्ठे तु जठरी नाम क्रव्यादो मृतभक्षणे।।[1]

विभिन्न नाम

गर्भाधान में अग्नि को "मारुत" कहते हैं। पुंसवन में "चन्द्रमा', शुगांकर्म में "शोभन", सीमान्त में "मंगल", जातकर्म में 'प्रगल्भ", नामकरण में "पार्थिव", अन्नप्राशन में 'शुचि", चूड़ाकर्म में "सत्य", व्रतबन्ध (उपनयन) में "समुद्भव", गोदान में "सूर्य", केशान्त (समावर्तन) में "अग्नि", विसर्ग (अर्थात् अग्निहोत्रादिक्रियाकलाप) में "वैश्वानर', विवाह में "योजक", चतुर्थी में "शिखी" धृति में "अग्नि", प्रायश्चित (अर्थात् प्रायश्चित्तात्मक महाव्याहृतिहोम) में "विधु', पाकयज्ञ (अर्थात् पाकांग होम, वृषोत्सर्ग, गृहप्रतिष्ठा आदि में) 'साहस', लक्षहोम में "वह्नि", कोटि होम में "हुताशन", पूर्णाहुति में "मृड", शान्ति में "वरद", पौष्टिक में "बलद", आभिचारिक में "क्रोधाग्नि", वशीकरण में "शमन", वरदान में "अभिदूषक", कोष्ठ में "जठर" और मृत भक्षण में "क्रव्याद" कहा गया है।[2]

घर्षण विधि

घर्षण (रगड़ने की) विधि से अग्नि बाद में निकली होगी। पत्थरों के हथियार बन चुकने के बाद उन्हें सुडौल, चमकीला और तीव्र करने के लिए रगड़ा गया होगा। रगड़ने पर जो चिंगारियाँ उत्पन्न हुई होंगी उसी से मनुष्य ने अग्नि उत्पन्न करने की घर्षण विधि निकाली होगी।

घर्षण तथा टक्कर इन दोनों विधियों से अग्नि उत्पन्न करने का ढंग आजकल भी देखने में आता है। अब भी अवश्यकता पड़ने पर इस्पात और चकमक पत्थर के प्रयोग से अग्नि उत्पन्न की जाती है। एक विशेष प्रकार की सूखी घास या रुई को चकमक के साथ सटाकर पकड़ लेते हैं और इस्पात के टुकड़े से चकमक पर तीव्र प्रहार करते हैं। टक्कर से उत्पन्न चिंगारी घास या रुई को पकड़ लेती है और उसी को फूँक-फूँककर और फिर पतली लकड़ी तथा सूखी पत्तियों के मध्य रखकर अग्नि का विस्तार कर लिया जाता है। घर्षण विधि से अग्नि उत्पन्न करने की सबसे सरल और प्रचलित विधि लकड़ी के पटरे पर लकड़ी की छड़ रगड़ने की है।

हवन कुण्ड में प्रज्वलित अग्नि
अन्य विधि

एक-दूसरी विधि में लकड़ी के तख्ते में एक छिछला छेद रहता है। इस छेद पर लकड़ी की छड़ी को मथनी की तरह वेग से नचाया जाता है। प्राचीन भारत में भी इस विधि का प्रचलन था। इस यंत्र को 'अरणी' कहते थे। छड़ी के टुकड़े को उत्तरा और तख्ते को अधरा कहा जाता था। इस विधि से अग्नि उत्पन्न करना भारत के अतिरिक्त लंका, सुमात्रा, आस्ट्रेलिया और दक्षिणी अफ्रीका में भी प्रचलित था। उत्तरी अमेरीका के इंडियन तथा मध्य अमेरीका के निवासी भी यह विधि काम में लाते थे। एक वार चार्ल्स डार्विन ने टाहिटी (दक्षिणी प्रशांत महासागर का एक द्वीप जहाँ स्थानीय आदिवासी ही बसते हैं) में देखा कि वहाँ के निवासी इस प्रकार कुछ ही सेकंड में अग्नि उत्पन्न कर लेते हैं, यद्यपि स्वयं उसे इस काम में सफलता बहुत समय तक परिश्रम करने पर मिली। फ़ारस के प्रसिद्ध ग्रंथ शाहनामा के अनुसार हुसेन ने एक भयंकर सर्पाकार राक्षसी से युद्ध किया और उसे मारने के लिए उन्होंने एक बड़ा पत्थर फेंका। वह पत्थर उस राक्षस को न लगकर एक चट्टान से टकराकर चूर हो गया और इस प्रकार सर्वप्रथम अग्नि उत्पन्न हुई।

दंतकथा

उत्तरी अमरीका की एक दंतकथा के अनुसार एक विशाल भैंसे के दौड़ने पर उसके खुरों से जो टक्कर पत्थरों पर लगी उससे चिंगारियाँ निकलीं। इन चिंगारियों से भयंकर दावानल भड़क उठा और इसी से मनुष्य ने सर्वप्रथम अग्नि ली।

अग्नि का मनुष्य की सांस्कृतिक तथा वैज्ञानिक उन्नति में बहुत बड़ा भाग रहा है। लैटिन में अग्नि को प्यूरस अर्थात्‌ पवित्र कहा जाता है। संस्कृत में अग्नि का एक पर्याय पावक भी है जिसका शब्दार्थ है पवित्र करने वाला। अग्नि को पवित्र मानकर उसकी उपासना का प्रचलन कई जातियों में हुआ और अब भी है।

सतत अग्नि

अग्नि उत्पन्न करने में पहले साधारणत: इतनी कठिनाई पड़ती थी कि आदिकालीन मनुष्य एक बार उत्पन्न की हुई अग्नि को निरंतर प्रज्ज्वलित रखने की चेष्टा करता था। यूनान और फारस के लोग अपने प्रत्येक नगर और गाँव में एक निरंतर प्रज्वलित अग्नि रखते थे। रोम के एक पवित्र मंदिर में अग्नि निरंतर प्रज्वलित रखी जाती थी। यदि कभी किसी कारणवश मंदिर की अग्नि बुझ जाती थी तो बड़ा अपशकुन माना जाता था। तब पुजारी लोग प्राचीन विधि के अनुसार पुन: अग्नि प्रज्वलित करते थे। सन्‌ 1830 के बाद से दियासलाई का आविष्कार हो जाने के कारण अग्नि प्रज्वलित रखने की प्रथा में शिथिलता आ गई। दियासलाइयों का उपयोग भी घर्षण विधि का ही उदाहरण है; अंतर इतना ही है कि उसमें फास्फोरस, शोरा आदि के शीघ्र जलने वाले मिश्रण का उपयोग होता है।

प्राचीन मनुष्य जंगली जानवरों को भगाने, या उनसे सुरक्षित रहने के लिए अग्नि का उपयोग बराबर करता रहा होगा। वह जाड़े में अपने को अग्नि से गरम भी रखता था। वस्तुत जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ी, लोग अग्नि के ही सहारे अधिकाधिक ठंडे देशों में जा बसे। अग्नि, गरम कपड़ा और मकानों के कारण मनुष्य ऐसे ठंडे देशों में रह सकता है जहाँ शीत ऋतु में उसे सर्दी से कष्ट नहीं होता और जलवायु अधिक स्वास्थ्यप्रद रहती है।

विद्युत काल में अग्नि

मोटरकार के इंजनों में पेट्रोल जलाने के लिए बिजली की चिंगारी का उपयोग होता है, क्योंकि ऐसी चिंगारी अभीष्ट क्षणों पर उत्पन्न की जा सकती है। मकानों में कभी-कभी बिजली के तार में ख़राबी आ जाने से आग लग जाती है। ताल (लेन्ज़) तथा अवतल (कॉनकेव) दर्पण से सूर्य की रश्मियों को एकत्रित करके भी अग्नि उत्पन्न की जा सकती है। ग्रीस तथा चीन के इतिहास में इन विधियों का उल्लेख है।

आग बुझाना

आग बुझाने के लिए साधारणत: सबसे अच्छी रीति पानी उड़ेलना है। बालू या मिट्टी डालने से भी छोटी आग बुझ सकती है। दूर से अग्नि पर पानी डालने के लिए रकाबदार पंप अच्छा होता है। छोटी-मोटी आग को थाली या परात से ढककर भी बुझाया जा सकता है। आरंभ में आग बुझाना सरल रहता है। आग बढ़ जाने पर उसे बुझाना कठिन हो जाता है। प्रारंभिक आग को बुझाने के लिए यंत्र मिलते हैं। ये लोहे की चादर के बरतन होते हैं, जिनमें सोडे (सोडियम कारबोनेट) का घोल रहता है। एक शीशी में अम्ल रहता है। बरतन में एक खूँटी रहती है। ठोंकने पर वह भीतर घुसकर अम्ल की शीशी को तोड़ देती है। तब अम्ल सोडे के घोल में पहुँचकर कार्बन डाइऑक्साइड गैस उत्पन्न करता है। इसकी दाब से घोल की धार बाहर वेग से निकलती है और आग पर डाली जा सकती है। अधिक अच्छे आग बुझाने वाले यंत्रों से साबुन के झाग (फेन) की तरह झाग निकलता है जिसमें कार्बन डाइऑक्साइड गैस के बुलबुले रहते हैं। यह जलती हुई वस्तु पर पहुँचकर उसे इस प्रकार छा लेता है कि आग बुझ जाती है।

गोदाम, दूकान आदि में स्वयंचल सावधान (ऑटोमैटिक अलार्म) लगा देना उत्तम होता है। आग लगने पर घंटी बजने लगती है। जहाँ टेलीफोन रहता है वहाँ ऐसा प्रबंध हो सकता है कि आग लगते ही अपने आप अग्निदल (फ़ायर ब्रिगेड) को सूचना मिल जाए। इससे भी अच्छा वह यंत्र होता है जिनमें से, आग लगने पर, पानी की फुहार अपने आप छूटने लगती है। प्रत्येक बड़े शहर में सरकार या म्युनिसिपैलिटी की ओर से एक अग्निदल रहता है। इसमें वैतनिक कर्मचारी नियुक्त रहते हैं जिनका कर्तव्य ही आग बुझाना होता है। सूचना मिलते ही ये लोग मोटर से अग्नि स्थान पर पहुँच जाते हैं और अपना कार्य करते हैं। साधारणत: आग बुझाने का सारा सामान उनकी गाड़ी पर ही रहता है; उदाहरणत पानी से भरी टंकी, पंप, कैनवस का पाइप (होज), इस पाइप के मुँह पर लगने वाली टोंटी (नॉज़ल), सीढ़ी (जो बिना दीवार का सहारा लिए ही तिरछी खड़ी रह सकती है और इच्छानुसार ऊँची, नीची या तिरछी की तथा घुमाई जा सकती है), बिजली के तेज रोशनी और लाउडस्पीकर आदि। जहाँ पानी का पाइप नहीं रहता वहाँ एक अन्य लारी पर केवल पानी की बड़ी टंकी रहती है। कई विदेशी शहरों में सरकारी प्रबंध के अतिरिक्त बीमा कंपनियाँ आग बुझाने का अपना निजी प्रबंध भी रखती हैं। जहाँ सरकारी अग्नि दल नहीं रहता वहाँ बहुधा स्वयंसेवकों का दल रहता है जो वचनबद्ध रहते हैं कि मुहल्ले में आग लगने पर तुरंत उपस्थित होंगे और उपचार करेंगे। बहुधा सरकार की ओर से उन्हें शिक्षा मिली रहती है और आवश्यक सामान भी उन्हें सरकार से उपलब्ध होता है। आग लगने पर तुरंत अग्निदल को सूचना भेजनी चाहिए (हो सके तो टेलीफोन से), और तुरंत स्पष्ट शब्दों में बताना चाहिए कि आग कहाँ लगी है।[3]

ग्रंथों के मतानुसार

अग्नि
ऋग्वेद के अनुसार

हिन्दू देवमण्डल का प्राचीनतम सदस्य, वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। अग्नि के तीन स्थान और तीन मुख्य रूप हैं-

  1. व्योम से सूर्य
  2. अन्तरिक्ष (मध्याकाश) में विद्युत
  3. पृथ्वी पर साधारण अग्नि

ऋग्वेद में सबसे अधिक सूक्त अग्नि की स्तुति में ही अर्पित किये गए हैं। अग्नि के आदिम रूप संसार के प्राय: सभी धर्मों में पाए जाते हैं। वह 'गृहपति' है और परिवार के सभी सदस्यों से उसका स्नेहपूर्ण घनिष्ठ सम्बन्ध है।[4] वह अन्धकार, निशाचर, जादू-टोना, राक्षस और रोगों को दूर करने वाला है।[5] अग्नि का यज्ञीय स्वरूप मानव सभ्यता के विकास का लम्बा चरण है। पाचन और शक्ति निर्माण की कल्पना इसमें निहित है। यज्ञीय अग्नि वेदिका में निवास करती है।[6] वह समिधा, धृत और सोम से शक्तिमान होता है।[7] वह मानवों और देवों के बीच मध्यस्थ और सन्देशवाहक है।[8] अग्नि की दिव्य उत्पत्ति का वर्णन भी वेदों में विस्तार से पाया जाता है।[9] अग्नि दिव्य पुरोहित है।[10] वह देवताओं का पौरोहित्य करता है। वह यज्ञों का राजा है।[11] नैतिक तत्वों से भी अग्नि का अभिन्न सम्बन्ध है। अग्नि सर्वदर्शी है। उसकी 100 अथवा 1000 आँखें हैं। जिनसे वह मनुष्य के सभी कर्मों को देखता है।[12] उसके गुप्तचर हैं, वह मनुष्य के गुप्त जीवन को भी जानता है। वह ऋत का संरक्षक है।[13] अग्नि पापों को देखता और पापियों को दण्ड देता है।[14] वह पाप को क्षमा भी करता है।[15]

वैज्ञानिक और दार्शनिक तत्त्वों पर प्रभाव

अग्नि की तुलना बृहस्पति और ब्रह्मणस्पति से भी की गई है। वह मंत्र, धी (बुद्धि) और ब्रह्म का उत्पादक है। इस प्रकार का अभेद सूक्ष्मतम तत्त्व से दर्शाया गया है। वैदिक साहित्य में अग्नि के जिस रूप का वर्णन है, उससे विश्व के वैज्ञानिक और दार्शनिक तत्त्वों पर काफ़ी प्रकाश पड़ता है। जैमिनी ने मीमांसासूत्र के "हवि:प्रक्षेपणाधिकरण" में अग्नि के छ: प्रकार बताये हैं-

  1. गार्हपत्य
  2. आहवनीय
  3. दक्षिणाग्नि
  4. सभ्य
  5. आवसथ्य
  6. औपासन

'अग्नि शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ इस प्रकार है : जो ऊपर की ओर जाता है'(अगि गतौ, अंगेनलोपश्च, अंग्+नि और नकार का लोप)।

वैदिक धर्म के अनुसार

अवेस्ता में अग्नि को पाँच प्रकार का माना गया है। परन्तु अग्नि की जितनी उदात्त तथा विशद कल्पना वैदिक धर्म में है, उतनी अन्यंत्र कहीं पर भी नहीं है। वैदिक कर्मकाण्ड का श्रौत भाग और गृह्य का मुख्य केन्द्र अग्निपूजन ही है। वैदिक देवमण्डल में इन्द्र के अनन्तर अग्नि का ही दूसरा स्थान है। जिसकी स्तुति लगभग दो सौ सूक्तों में वर्णित है। अग्नि के वर्णन में उसका पार्थिव रूप ज्वाला, प्रकाश आदि वैदिक ऋषियों के सामने सदा विद्यमान रहता है। अग्नि की तुलना अनेक पशुओं से की गई है। प्रज्वलित अग्नि गर्जनशील वृषभ के समान है। उसकी ज्वाला सौर किरणों के तुल्य, उषा की प्रभा तथा विद्युत की चमक के समान है। उसकी आवाज़ आकाश की गर्जन जैसी गम्भीर है। अग्नि के लिए विशेष गुणों को लक्ष्य कर अनेक अभिधान प्रयुक्त करके किए जाते हैं। अग्नि शब्द का सम्बन्ध लातोनी 'इग्निस्' और लिथुएनियाई 'उग्निस्' के साथ कुछ अनिश्चित सा है, यद्यपि प्रेरणार्थक अज् धातु के साथ भाषा शास्त्रीय दृष्टि से असम्भव नहीं है। प्रज्वलित होने पर धूमशिखा के निकलने के कारण धूमकेतु इस विशिष्टिता का द्योतक एक प्रख्यात अभिधान है। अग्नि का ज्ञान सर्वव्यापी है और वह उत्पन्न होने वाले समस्त प्राणियों को जानता है। इसलिए वह 'जातवेदा:' के नाम से विख्यात है। अग्नि कभी द्यावापृथिवी का पुत्र और कभी द्यौ: का सूनु (पुत्र) कहा गया है। उसके तीन जन्मों का वर्णन वेदों में मिलता है। जिनके स्थान हैं-स्वर्ग, पृथ्वी तथा जल। स्वर्ग, वायु तथा पृथ्वी अग्नि के तीन सिर, तीन जीभ तथा तीन स्थानों का बहुत निर्देश वेद में उपलब्ध होता है। अग्नि के दो जन्मों का भी उल्लेख मिलता है-भूमि तथा स्वर्ग। अग्नि के आनयन की एक प्रख्यात वैदिक कथा ग्रीक कहानी से साम्य रखती है। अग्नि का जन्म स्वर्ग में ही मुख्यत: हुआ, जहाँ से मातरिश्वा ने मनुष्यों के कल्याणार्थ उसका इस भूतल पर आनयन किया। अग्नि प्रसंगत: अन्य समस्त वैदिक देवों में प्रमुख माना गया है। अग्नि का पूजन भारतीय संस्कृति का प्रमुख चिह्न है और वह गृहदेवता के रूप में उपासना और पूजा का एक प्रधान विषय है। इसलिए अग्नि 'गृहा', 'गृहपति' (घर का स्वामी) तथा 'विश्वपति' (जन का रक्षक) कहलाता है।

शतपथ ब्राह्मण के अनुसार

शतपथ ब्राह्मण[16] में गौतम राहुगण तथा विदेध माधव के नेतृत्व में अग्नि का सारस्वत मण्डल से पूरब की ओर जाने का वर्णन मिलता है। इसका तात्पर्य यह है कि जो आर्य संस्कृति संहिता काल में सरस्वती के तीरस्थ प्रदेशों तक सीमित रही, वह ब्राह्मणयुग में पूरबी प्रान्तों में भी फैल गई। इस प्रकार अग्नि की उपासना वैदिक धर्म का नितान्त ही आवश्यक अंग है।[17]

रूप का वर्णन

अग्नि के रूप का वर्णन इस प्रकार है-

पिंगभ्रूश्मश्रुकेशाक्ष: पीनांगजठरोऽरुण:।
छागस्थ: साक्षसूत्रोऽग्नि: सप्तार्चि: शक्तिधारक:।।[18]

भौहें, दाढ़ी, केश और आँखें पीली हैं। अंग स्थूल हैं और उदर लाल है। बकरे पर आरूढ़ हैं, अक्षमाला लिये है। इसकी सात ज्वालाएँ हैं और शक्ति को धारण करता है।

शुभ लक्षण

होम योग्य अग्नि के शुभ लक्षण निम्नांकित हैं-
अर्चिष्मान् पिण्डितशिख: सर्पि:काञ्चनसन्निभ:।
स्निग्ध: प्रदक्षिणश्चैव वह्नि: स्यात् कार्यसिद्धये।।[19]

ज्वालायुक्त, पिण्डितशिख, घी एवं सुवर्ण के समान, चिकना और दाहिनी ओर गतिशील अग्नि सिद्धिदायक होता है।

शब्द उत्पादन

देहजन्य अग्नि में शब्द उत्पादन की शक्ति होती है, जैसा कि "संगीतदर्पण" में कहा है-

आत्मना प्रेरितं चित्तं वह्निमाहन्ति देहजम्।
ब्रह्मग्रन्थिस्थितं प्राणं स प्रेरयति पावक:।।
पावकप्रेरित: सोऽथ क्रमदूर्ध्वपथे चरन्।
अतिसूक्ष्मध्वनि नाभौ हृदि सूक्ष्मं गले पुन:।।
पुष्टं शीर्षे त्वपुष्टञ्च कृत्रिमं वदने तथा।
आविर्भावयतीत्येवं पञ्चधा कीर्त्यते बुधै:।।
नकारं प्राणनामानं दकारमनलं विंदु:।
जात: प्राणाग्निसंयोगात्तेन नादोऽभिधीयते।।

आत्मा के द्वारा प्रेरित चित्त देह में उत्पन्न अग्नि को आहत करता है। ब्रह्मग्रन्थि में स्थित प्रेरित वह प्राण क्रम से ऊपर चलता हुआ नाभि में अत्यन्त सूक्ष्म ध्वनि करता है तथा गले और हृदय में भी सूक्ष्म ध्वनि करता है। सिर में पुष्ट और अपुष्ट तथा मुख में कृत्रिम प्रकाश करता है। विद्वानों ने पाँच प्रकार का अग्नि बताया है। नकार प्राण का नाम है, दकार अग्नि का नाम है। प्राण और अग्नि के संयोग से नाद की उत्पत्ति होती है। सब देवताओं में इसका प्रथम आराध्यत्व ऋग्वेद के सर्वप्रथम मंत्र "अग्निमीले पुरोहितम्" से प्रकट होता है।

रूप का प्रयोग

योगाग्नि अथवा ज्ञानाग्नि के रूप में भी "अग्नि" का प्रयोग होता है। गीता में यह कथन है-

'ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।'
'ज्ञानाग्निदग्धकर्माणि तमाहु: पण्डितं बुधा:।।'[20]

अग्नि का सर्वप्रथम स्थान

पृथ्वी-स्थानीय देवों में अग्नि का सर्वप्रथम स्थान है। अग्नि यज्ञीय अग्नि का प्रतिनिधि रूप है। यज्ञ के द्वारा मनुष्य का सम्बन्ध देवों से होता है। अत: यज्ञ की अग्नि मनुष्य और देवता के बीच सम्बन्ध का सूचक है। परन्तु अग्नि का स्वरूप भौतिक भी है। इनका स्वरूप गरजते हुए वृषभ के समान बतलाया गया है। उन्हें सिर और पैर नहीं हैं परन्तु जिह्वा लाल है। वैदिक मंत्रों में बतलाया गया है कि उत्पत्ति के समय अग्नि का स्वरूप बछड़े के समान है, परन्तु प्रज्वलित होने पर उनका स्वरूप अश्व के समान है। उनकी ज्वाला को विद्युत के समान कहा गया है। काष्ठ और घृत को उनका भोजन माना गया है। अग्नि धूम पताके के समान ऊपर की ओर जाता है। इसी कारण से अग्नि को धूमकेतु कहा गया है। यज्ञ के समय इनका आह्वान किया जाता है कि ये कुश के आसन पर विराजमान हों तथा देवों के हविष को ग्रहण करें। अग्नि का जन्म स्थान स्वर्ग माना गया है। स्वर्ग से मातरिश्वा ने धरती पर इन्हें लाया। अग्नि ज्ञान का प्रतीक है। वह सभी प्राणियों के ज्ञाता देव हैं। अत: इन्हें 'जातवेदा:' कहा गया है। अग्नि को द्युस्थानीय देवता सूर्य भी माना गया है। अग्नि को 'त्रिविध' तथा 'द्विजन्मा' भी कहा गया है। उनका प्रथम जन्म स्वर्ग में तथा दूसरा जन्म जल में (पृथ्वी पर) बतलाया गया है। अग्नि दानवों के भक्षक तथा मानवों के रक्षक माने गए हैं। इनका वर्णन दो सौ वैदिक सूक्तों में प्राप्त होता है।[21]

शब्द संदर्भ

शब्द संदर्भ
हिन्दी अग्नि, पंच तत्वों में से एक तत्व, किसी चीज़ के जलते रहने की दशा, आग की तरह बहुत गरम, अति उष्ण। जैसे—तुम्हारी हथेली तो आग हो रही है, गरमी या ताप उत्पन्न करनेवाल, अग्र।
-व्याकरण    पुल्लिग, संज्ञा

मुहावरा- आग गाड़ना- अंगारों या जलते हुए कोयलों को राख में दबाना, जिससे व अधिक समय तक जलते रहे।

  1. आग जलाना- ऐसी क्रिया करना जिससे आग उत्पन्न हो।
  2. आग जिलाना- बुझती हुई आग फिर से तेज़ करना या सुलगाना।
  3. आग जोड़ना- आग जलाना।
  4. आग झवाँना- दहकते हुए कोयलों का धीरे-धीरे ठंडा पड़ना या बुझने को होना।
  5. आग झाड़ना- चकमक या पत्तर की रगड़ से चिनगारियाँ उत्पन्न करना।
  6. आग दिखाना- गरम करने सुखाने आदि के लिए कोई चीज़ आग के पास ले जाना।
-उदाहरण   ताप और तेज का वह पुंज जो किसी चीज़ (कपड़ा कोयला लकड़ी आदि) के जलने से समय अंगारे या लपट के रूप में दिखाई देता है और जिसमें से प्रायः कुछ धुआँ तथा प्रकाश निकलता रहता है।
-विशेष    हमारे यहाँ इसकी गिनती पाँच तत्त्वों या भूतों में हुई है, पर पाश्चात्य वैज्ञानिक इसे शक्ति मात्र मानते हैं। तत्त्व या भूत नहीं मानते, क्योंकि यह कोई द्रव्य या पदार्थ नहीं है।
-विलोम   
-पर्यायवाची    अग्नि, अनल, पावक, दहन
संस्कृत अग्नि, आगुन, सिंह, अग
अन्य ग्रंथ
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • राबर्ट एस. मोल्टन (संपादक): हैंडबुक ऑव फ़ायर प्रोटेक्शन, नैशनल फ़ायर एसोसिएशन (1948, इंग्लैंड);
  • जे. डेविडसन फ़ायर इंश्योरेंस (1923)।
  • मैकडॉनेल : वैदिक माइथालोजी (स्ट्रासबर्ग);
  • कीथ : रिलीजन एण्ड फिलासफी ऑव वेद एण्ड उपनिषद् (हारवर्ड), दो भाग;
  • अरविन्द : हिम्स टुद मिस्टिक फायर (पाण्डीचेरी);
  • बलदेव उपाध्याय : वैदिक साहित्य और संस्कृति (काशी);
  • मराठी ज्ञानकोश (दूसरा खण्ड, पूना)।
  1. गोभिलपुत्रकृत संग्रह
  2. पाण्डेय, डॉ. राजबली हिन्दू धर्मकोश, 1988 (हिन्दी), भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, पृष्ठ सं 06-08।
  3. सजवान, मेजर आनन्दसिंह “खण्ड 1”, हिन्दी विश्वकोश, 1973 (हिन्दी), भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी, पृष्ठ सं 73-75।
  4. ऋग्वेद, 2. 1. 9; 7. 15. 12; 1. 1. 9; 4. 1. 9; 3. 1. 7
  5. ऋग्वेद 3. 5. 1; 1. 94. 5; 8. 43. 32; 10. 88. 2
  6. ऋग्वेद 1. 140. 1
  7. ऋग्वेद 3. 5. 10; 1. 94. 14
  8. ऋग्वेद 1. 26. 9; 1. 94. 3; 1. 59. 3; 1. 59. 1; 7. 2. 1; 1. 58. 1; 7. 2. 5; 1. 27. 4; 3. 1. 17; 10. 2. 1; 1. 12. 4 आदि
  9. ऋग्वेद 3. 9. 5; 6. 8. 4
  10. ऋग्वेद 2. 1. 2; 1. 1. 1; 1. 94. 6
  11. राजा त्वमध्वराणाम्; ऋग्वेद 3. 1. 18; 7. 11. 4; 2. 8. 3; 8. 43. 24 आदि
  12. ऋग्वेद 10. 7. 5
  13. ऋग्वेद 10. 8. 5
  14. ऋग्वेद 4. 3. 5-8; 4. 5. 4-5
  15. ऋग्वेद 7. 93. 7
  16. शतपथ ब्राह्मण 1/4/90
  17. मिश्र, डॉ. देवेन्द्र “खण्ड 1”, भारतीय संस्कृति कोश, 2009 (हिन्दी), भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, पृष्ठ सं 19।
  18. आदित्यपुराण
  19. वायु पुराण
  20. पाण्डेय, डॉ. राजबली हिन्दू धर्मकोश, 1988 (हिन्दी), भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, पृष्ठ सं 06-08।
  21. मिश्र, डॉ. देवेन्द्र “खण्ड 1”, भारतीय संस्कृति कोश, 2009 (हिन्दी), भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, पृष्ठ सं 13।

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वाहिक क्षतज क्षत क्षारण क्षार घालना घाल बिललाना बंधक झिलमिला झिलम क्षितिज यथार्थवाद ऊखा यथार्थ ऊख ऊगट खनक खन कनक लाघवी लाघविक लाघवकारी लाघव क्षिप्रहस्त छाक हवि हव्य कनिष्ठिका सुगत जनांत तुष हृति हृताधिकार दृष्टि दृष्टार्थ दृष्टांत दृष्टवाद प्रत्यक्षवाद प्रत्यगात्मा क्षिप्रकारी क्षिप्र हृत प्रत्यक्षर हृच्छूल खेह प्रत्यक्ष दृष्टवत मूलभूत दृष्टफल वायवी वायवीय कनिष्ठा वायव कनिष्ठ मौलिक दृष्ट दोष दृष्टकूट मूलिक दृष्ट विष्टि निदाघ हर्म्य अच्युत पुनीत तत्त्व मुकरी आनन्द यंत्र पद अंधता साधु यश संत दीक्षा विधु मुरमर्दन पुरुषोत्तम भव पीताम्बर हर माधव चतुर्भुज उग्र उपेन्द्र स्थाणु क्रतुध्वंसिन भर्ग नीललोहित त्रिलोचन विरूपाक्ष वामदेव (शिव) शितकिण्ठ (शिव) शितकिण्ठ गरुड़ध्वज गिरीश गोविन्द सुपर्ण श्रीकण्ठ कपर्दिन पिनाकी मृत्युंजय मृड गिरिश नागान्तक भूतेश शंकर शर्व नारायण महेश्वर (शिव) वैनतेय शूलिन पशुपति तार्क्ष्य ईश मुनि विकट मुनीन्द्र विघ्ननाशक सुमुख लोकजित गरुत्मत् मारजित भगवत तथागत धर्मराज सर्वज्ञ विनायक अगाध अर्य अर्ह अल्प इक्षु इच्छा आस्रव आस्य आहार्य आक्रन्द आकर्ष असूयक अक्षर ओज प्रकर्ष पन्थ प्रकृत एकार्थ उन्नम्र उज्जृम्भण ईशान उन्नत उज्जृम्भ जय्य जय नैरुज्य जल्प मन्द तेज नमस्कार नम्रता नम्र प्रभाव आर्जव प्रताप अक्रोपोलिस अंतश्चेतना अंत:करण अगोरा अतिनूतन युग अनागामी अनल अनग्रदंत अतिवृद्धि अधिहृषता (ऐलर्जी) अनुबंध अनुभव अनुभववाद अन्यथानुपपत्ति अन्यथासिद्धि अपील अभिप्रेरक अल्बम अराजकता आमीन आयाम इंजील इंटर लिंगुआ कोषाध्यक्ष दैनिक मासिक