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'''सम्पूर्णानंद''' ([[अंग्रेज़ी]]:''Sampurnanand'', जन्म:[[1 जनवरी]], [[1889]] – मृत्यु: [[ | {{सूचना बक्सा राजनीतिज्ञ | ||
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'''सम्पूर्णानंद''' ([[अंग्रेज़ी]]:''Sampurnanand'', जन्म:[[1 जनवरी]], [[1889]] – मृत्यु: [[10 जनवरी]], [[1969]]) एक भारतीय राजनेता एवं [[उत्तर प्रदेश]] के पूर्व [[मुख्यमंत्री]] थे। डॉ. सम्पूर्णानंद कुशल तथा निर्भीक राजनेता एवं सर्वतोमुखी प्रतिभावाले साहित्यकार एवं अध्यापक थे। | |||
==जीवन परिचय== | ==जीवन परिचय== | ||
प्रसिद्ध राजनेता और विद्वान डॉ. संपूर्णानंद का जन्म 1 जनवरी, 1889 ई. को [[वाराणसी]] में हुआ था। उनके पिता का नाम मुंशी विजयानंद और माता का नाम आनंदी देवी था। पितामह बख्शी सदानंद काशी नरेश के दीवान थे। [[किनाराम बाबा]] के आशीर्वाद से सब पुरुषों के नाम के साथ 'आनंद' शब्द लगने लगा। पिता मुंशी विजयानंद सरकारी कर्मचारी थे। संपूर्णानंद जी ने 18 वर्ष की उम्र में बी.एससी. की परीक्षा पास की। अपने अध्यवसाय से | प्रसिद्ध राजनेता और विद्वान डॉ. संपूर्णानंद का जन्म 1 जनवरी, 1889 ई. को [[वाराणसी]] में हुआ था। उनके पिता का नाम मुंशी विजयानंद और माता का नाम आनंदी देवी था। पितामह बख्शी सदानंद काशी नरेश के दीवान थे। [[किनाराम बाबा]] के आशीर्वाद से सब पुरुषों के नाम के साथ 'आनंद' शब्द लगने लगा। पिता मुंशी विजयानंद सरकारी कर्मचारी थे। संपूर्णानंद जी ने 18 वर्ष की उम्र में बी.एससी. की परीक्षा पास की। अपने अध्यवसाय से इन्होंने [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] और [[संस्कृत]] का भी अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। | ||
[[चित्र:Sampurnanand-stamp.jpg|left|thumb|सम्पूर्णानंद के सम्मान में जारी [[डाक टिकट]]]] | |||
==कार्यक्षेत्र== | ==कार्यक्षेत्र== | ||
एल.टी. करने के बाद वे अध्यापन की ओर प्रवृत्त हुए। कुछ दिन तक हरिश्चंद्र हाई स्कूल और मिशन स्कूल में पढ़ाया। फिर [[राजा महेंद्र प्रताप]] द्वारा स्थापित प्रेम महाविद्यालय [[वृन्दावन]] में विज्ञान के अध्यापक रहे। कुछ समय बाद राजकुमारों के डेली कॉलेज, [[इंदौर]] में गणित के अध्यापक बने। [[1918]] में महाराजा बीकानेर ने डूगर कॉलेज का प्रधानाचार्य बनाकर उन्हें बीकानेर बुला लिया। [[1921]] तक वे बीकानेर रहे और फिर [[असहयोग आंदोलन]] में भाग लेने के लिए पद त्याग दिया। वाराणसी आने पर आप राष्ट्रीय आंदोलन के साथ साहित्य सेवा की ओर भी अभिमुख हुए। उन्होंने '[[मर्यादा (पत्रिका)|मर्यादा]]' नाम की [[हिंदी]] [[पत्रिका]] और 'टुडे' नामक अंग्रेज़ी दैनिक का संपादन किया। [[1923]] में वे [[काशी विद्यापीठ]] में दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर नियुक्त हुए और स्वतंत्रता प्राप्ति तक इस पद पर बने रहे। | एल.टी. करने के बाद वे अध्यापन की ओर प्रवृत्त हुए। कुछ दिन तक हरिश्चंद्र हाई स्कूल और मिशन स्कूल में पढ़ाया। फिर [[राजा महेंद्र प्रताप]] द्वारा स्थापित प्रेम महाविद्यालय [[वृन्दावन]] में विज्ञान के अध्यापक रहे। कुछ समय बाद राजकुमारों के डेली कॉलेज, [[इंदौर]] में गणित के अध्यापक बने। [[1918]] में महाराजा बीकानेर ने डूगर कॉलेज का प्रधानाचार्य बनाकर उन्हें बीकानेर बुला लिया। [[1921]] तक वे बीकानेर रहे और फिर [[असहयोग आंदोलन]] में भाग लेने के लिए पद त्याग दिया। वाराणसी आने पर आप राष्ट्रीय आंदोलन के साथ साहित्य सेवा की ओर भी अभिमुख हुए। उन्होंने '[[मर्यादा (पत्रिका)|मर्यादा]]' नाम की [[हिंदी]] [[पत्रिका]] और 'टुडे' नामक अंग्रेज़ी दैनिक का संपादन किया। [[1923]] में वे [[काशी विद्यापीठ]] में दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर नियुक्त हुए और स्वतंत्रता प्राप्ति तक इस पद पर बने रहे। | ||
==स्वतंत्रता संग्राम एवं राजनीति में योगदान== | ==स्वतंत्रता संग्राम एवं राजनीति में योगदान== | ||
डॉ. संपूर्णानंद ने प्रत्येक स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और हर बार जेल गये। [[1927]] में वे स्वराज्य पार्टी के टिकट पर प्रांतीय विधान परिषद के सदस्य चुने गये। [[1937]] में प्रदेश की [[विधान सभा]] के लिए उनका निर्वाचन हुआ। [[गोविंद वल्लभ पंत|गोविंद बल्लभ पंतजी]] के प्रथम मंत्रिमण्डल के सदस्य प्यारे लाल शर्मा के त्यागपत्र देने पर संपूर्णानंद जी को शिक्षा मंत्री के रूप में मंत्रि परिषद में लिया गया। उन्होंने गृह, अर्थ तथा सूचना मंत्री के रूप में भी काम किया। गोविंद बल्लभ पंत के केंद्र सरकार में चले जाने पर 1955 में डॉ. संपूर्णानंद [[उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री]] बने और [[1961]] में उन्होंने इस पद से इस्तीफा दे दिया। [[1962]] में उन्हें [[राजस्थान]] का [[राज्यपाल]] बनाया गया। और [[1967]] में इस पद से अवकाश ग्रहण किया। | डॉ. संपूर्णानंद ने प्रत्येक स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और हर बार जेल गये। [[1927]] में वे स्वराज्य पार्टी के टिकट पर प्रांतीय विधान परिषद के सदस्य चुने गये। [[1937]] में प्रदेश की [[विधान सभा]] के लिए उनका निर्वाचन हुआ। [[गोविंद वल्लभ पंत|गोविंद बल्लभ पंतजी]] के प्रथम मंत्रिमण्डल के सदस्य प्यारे लाल शर्मा के त्यागपत्र देने पर संपूर्णानंद जी को शिक्षा मंत्री के रूप में मंत्रि परिषद में लिया गया। उन्होंने गृह, अर्थ तथा सूचना मंत्री के रूप में भी काम किया। गोविंद बल्लभ पंत के केंद्र सरकार में चले जाने पर [[1955]] में डॉ. संपूर्णानंद [[उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री]] बने और [[1961]] में उन्होंने इस पद से इस्तीफा दे दिया। [[1962]] में उन्हें [[राजस्थान]] का [[राज्यपाल]] बनाया गया। और [[1967]] में इस पद से अवकाश ग्रहण किया। | ||
==समाजवादी व्यक्तित्व== | ==समाजवादी व्यक्तित्व== | ||
डॉ. संपूर्णानंद की [[इतिहास]], [[पुराण]], [[दर्शन]], राजनीति, समाजशास्त्र आदि में गहरी पैठ थी। आध्यात्मिक विषयों में भी उनकी बड़ी रुचि थी। वे समाजवादी विचारों के व्यक्ति थे और [[1934]] में [[कांग्रेस]] के अंदर '[[समाजवादी पार्टी]]' के गठन में [[आचार्य नरेंद्र देव]] के साथ उनका भी प्रमुख हाथ था। वे तीन बार उत्तर प्रदेश कांग्रेस के सचिव रहे। [[1940]] के पुणे हिंदी साहित्य सम्मेलन की उन्होंने अध्यक्षता की। अपने मंत्रित्व काल में उन्होंने [[हिंदी]] के उन्नयन के लिए अनेक योजनाएँ आरंभ कीं। 'हिंदी समिति' (जो अब [[हिंदी संस्थान]] कहलाती है) उन्हीं की आरम्भ की हुई है। [[वाराणसी]] का [[सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय|संस्कृत विश्वविद्यालय]] भी उन्हीं के शासन काल में बना। वे बड़े स्वतंत्र और निर्भीक विचारों के व्यक्ति थे। भाषा और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के मामलों में उन्होंने अनेक बार [[नेहरू जी]] की नीति का सार्वजनिक रूप से प्रतिकार किया था। | डॉ. संपूर्णानंद की [[इतिहास]], [[पुराण]], [[दर्शन]], राजनीति, समाजशास्त्र आदि में गहरी पैठ थी। आध्यात्मिक विषयों में भी उनकी बड़ी रुचि थी। वे समाजवादी विचारों के व्यक्ति थे और [[1934]] में [[कांग्रेस]] के अंदर '[[समाजवादी पार्टी]]' के गठन में [[आचार्य नरेंद्र देव]] के साथ उनका भी प्रमुख हाथ था। वे तीन बार उत्तर प्रदेश कांग्रेस के सचिव रहे। [[1940]] के पुणे हिंदी साहित्य सम्मेलन की उन्होंने अध्यक्षता की। अपने मंत्रित्व काल में उन्होंने [[हिंदी]] के उन्नयन के लिए अनेक योजनाएँ आरंभ कीं। 'हिंदी समिति' (जो अब [[हिंदी संस्थान]] कहलाती है) उन्हीं की आरम्भ की हुई है। [[वाराणसी]] का [[सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय|संस्कृत विश्वविद्यालय]] भी उन्हीं के शासन काल में बना। वे बड़े स्वतंत्र और निर्भीक विचारों के व्यक्ति थे। भाषा और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के मामलों में उन्होंने अनेक बार [[नेहरू जी]] की नीति का सार्वजनिक रूप से प्रतिकार किया था। | ||
==रचनाएँ== | ==रचनाएँ== | ||
लेखक के रूप में डॉ. संपूर्णानंद ने अपनी गहरी छाप छोड़ी है। उन्होंने लगभग 45 पुस्तकों की रचना की है, जिनमें से प्राय: [[हिंदी]] भाषा में हैं। [[गांधी जी]] की पहली जीवनी 'कर्मवीर गांधी' नाम से उन्होंने ही लिखी थी। उनके अन्य प्रमुख ग्रंथ हैं- | [[चित्र:Sampurnanand-Sanskrit-University.jpg|thumb|[[सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय]], [[वाराणसी]]]] | ||
लेखक के रूप में डॉ. संपूर्णानंद ने अपनी गहरी छाप छोड़ी है। उन्होंने लगभग 45 पुस्तकों की रचना की है, जिनमें से प्राय: [[हिंदी]] भाषा में हैं। [[गांधी जी]] की पहली जीवनी 'कर्मवीर गांधी' नाम से उन्होंने ही लिखी थी। उनके अन्य प्रमुख ग्रंथ हैं- | |||
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* अंतर्राष्ट्रीय विधान | * अंतर्राष्ट्रीय विधान | ||
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*चिद्विलास | * चिद्विलास | ||
* गणेश | * गणेश | ||
* ज्योतिर्विनोद | * ज्योतिर्विनोद |
12:46, 18 जुलाई 2013 का अवतरण
सम्पूर्णानंद
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पूरा नाम | डॉ. सम्पूर्णानंद |
जन्म | 1 जनवरी, 1889 |
जन्म भूमि | वाराणसी, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | 7 मार्च, 1969 |
नागरिकता | भारतीय |
प्रसिद्धि | स्वतंत्रता सेनानी, राजनेता, लेखक |
पार्टी | भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस |
पद | उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और राजस्थान के राज्यपाल |
कार्य काल | मुख्यमंत्री (उत्तर प्रदेश)- 28 दिसंबर 1954 से 7 दिसंबर 1960 तक |
शिक्षा | बी.एससी. एल.टी. |
भाषा | हिंदी, संस्कृत, फ़ारसी |
विशेष योगदान | सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना में विशेष योगदान दिया। |
मुख्य रचनाएँ | अंतर्राष्ट्रीय विधान, समाजवाद, हिंदू देव परिवार का विकास, आर्यों का आदि देश, जीवन और दर्शन आदि |
अन्य जानकारी | इन्होंने 'मर्यादा' नाम की हिंदी पत्रिका और 'टुडे' नामक अंग्रेज़ी दैनिक का संपादन भी किया। |
सम्पूर्णानंद (अंग्रेज़ी:Sampurnanand, जन्म:1 जनवरी, 1889 – मृत्यु: 10 जनवरी, 1969) एक भारतीय राजनेता एवं उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री थे। डॉ. सम्पूर्णानंद कुशल तथा निर्भीक राजनेता एवं सर्वतोमुखी प्रतिभावाले साहित्यकार एवं अध्यापक थे।
जीवन परिचय
प्रसिद्ध राजनेता और विद्वान डॉ. संपूर्णानंद का जन्म 1 जनवरी, 1889 ई. को वाराणसी में हुआ था। उनके पिता का नाम मुंशी विजयानंद और माता का नाम आनंदी देवी था। पितामह बख्शी सदानंद काशी नरेश के दीवान थे। किनाराम बाबा के आशीर्वाद से सब पुरुषों के नाम के साथ 'आनंद' शब्द लगने लगा। पिता मुंशी विजयानंद सरकारी कर्मचारी थे। संपूर्णानंद जी ने 18 वर्ष की उम्र में बी.एससी. की परीक्षा पास की। अपने अध्यवसाय से इन्होंने फ़ारसी और संस्कृत का भी अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया।

कार्यक्षेत्र
एल.टी. करने के बाद वे अध्यापन की ओर प्रवृत्त हुए। कुछ दिन तक हरिश्चंद्र हाई स्कूल और मिशन स्कूल में पढ़ाया। फिर राजा महेंद्र प्रताप द्वारा स्थापित प्रेम महाविद्यालय वृन्दावन में विज्ञान के अध्यापक रहे। कुछ समय बाद राजकुमारों के डेली कॉलेज, इंदौर में गणित के अध्यापक बने। 1918 में महाराजा बीकानेर ने डूगर कॉलेज का प्रधानाचार्य बनाकर उन्हें बीकानेर बुला लिया। 1921 तक वे बीकानेर रहे और फिर असहयोग आंदोलन में भाग लेने के लिए पद त्याग दिया। वाराणसी आने पर आप राष्ट्रीय आंदोलन के साथ साहित्य सेवा की ओर भी अभिमुख हुए। उन्होंने 'मर्यादा' नाम की हिंदी पत्रिका और 'टुडे' नामक अंग्रेज़ी दैनिक का संपादन किया। 1923 में वे काशी विद्यापीठ में दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर नियुक्त हुए और स्वतंत्रता प्राप्ति तक इस पद पर बने रहे।
स्वतंत्रता संग्राम एवं राजनीति में योगदान
डॉ. संपूर्णानंद ने प्रत्येक स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और हर बार जेल गये। 1927 में वे स्वराज्य पार्टी के टिकट पर प्रांतीय विधान परिषद के सदस्य चुने गये। 1937 में प्रदेश की विधान सभा के लिए उनका निर्वाचन हुआ। गोविंद बल्लभ पंतजी के प्रथम मंत्रिमण्डल के सदस्य प्यारे लाल शर्मा के त्यागपत्र देने पर संपूर्णानंद जी को शिक्षा मंत्री के रूप में मंत्रि परिषद में लिया गया। उन्होंने गृह, अर्थ तथा सूचना मंत्री के रूप में भी काम किया। गोविंद बल्लभ पंत के केंद्र सरकार में चले जाने पर 1955 में डॉ. संपूर्णानंद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और 1961 में उन्होंने इस पद से इस्तीफा दे दिया। 1962 में उन्हें राजस्थान का राज्यपाल बनाया गया। और 1967 में इस पद से अवकाश ग्रहण किया।
समाजवादी व्यक्तित्व
डॉ. संपूर्णानंद की इतिहास, पुराण, दर्शन, राजनीति, समाजशास्त्र आदि में गहरी पैठ थी। आध्यात्मिक विषयों में भी उनकी बड़ी रुचि थी। वे समाजवादी विचारों के व्यक्ति थे और 1934 में कांग्रेस के अंदर 'समाजवादी पार्टी' के गठन में आचार्य नरेंद्र देव के साथ उनका भी प्रमुख हाथ था। वे तीन बार उत्तर प्रदेश कांग्रेस के सचिव रहे। 1940 के पुणे हिंदी साहित्य सम्मेलन की उन्होंने अध्यक्षता की। अपने मंत्रित्व काल में उन्होंने हिंदी के उन्नयन के लिए अनेक योजनाएँ आरंभ कीं। 'हिंदी समिति' (जो अब हिंदी संस्थान कहलाती है) उन्हीं की आरम्भ की हुई है। वाराणसी का संस्कृत विश्वविद्यालय भी उन्हीं के शासन काल में बना। वे बड़े स्वतंत्र और निर्भीक विचारों के व्यक्ति थे। भाषा और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के मामलों में उन्होंने अनेक बार नेहरू जी की नीति का सार्वजनिक रूप से प्रतिकार किया था।
रचनाएँ

लेखक के रूप में डॉ. संपूर्णानंद ने अपनी गहरी छाप छोड़ी है। उन्होंने लगभग 45 पुस्तकों की रचना की है, जिनमें से प्राय: हिंदी भाषा में हैं। गांधी जी की पहली जीवनी 'कर्मवीर गांधी' नाम से उन्होंने ही लिखी थी। उनके अन्य प्रमुख ग्रंथ हैं-
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उनकी कविताओं का एक संग्रह भी काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने प्रकाशित किया।
निधन
कुशल तथा निर्भीक राजनेता एवं सर्वतोमुखी प्रतिभावाले साहित्यकार एवं अध्यापक डॉ. संपूर्णानंद का 10 जनवरी, 1969 को निधन हो गया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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