सिंह संक्रांति
सिंह संक्रांति (अंग्रेज़ी: Singh Sankranti) हिन्दू धर्म में विशेष महत्त्व रखने वाली संक्रांतियों में से एक है। सूर्य एक माह में अपनी राशि बदलता है। सूर्य जब किसी भी राशि में प्रवेश करता है तो उस दिन की राशि की संक्रान्ति कहते हैं। मकर संक्रांति को सूर्य के संक्रमण काल का त्योहार भी माना जाता है। एक जगह से दूसरी जगह जाने अथवा एक-दूसरे का मिलना ही संक्रांति होती है। भाद्रपद (भादो) महीने की संक्रांति जिसे 'सिंह संक्रांति' भी कहते हैं, उत्तराखंड में 'घी संक्रांति' या 'ओल्गी संक्रांति' के रूप में मनाई जाती है। वस्तुतः यह कृषि और पशुपालन से जुड़ा हुआ एक लोक पर्व है। बरसात के मौसम में उगाई जाने वाली फसलों में बालियाँ आने लगती हैं। किसान अच्छी फसलों की कामना करते हुए ख़ुशी मनाते हैं। बालियों को घर के मुख्य दरवाज़े के ऊपर या दोनों और गोबर से चिपकाया जाता है। बरसात में पशुओं को खूब हरी घास मिलती है। दूध में बढ़ोतरी होने से दही-माखन-घी भी प्रचुर मात्रा में मिलता है। अतः इस दिन घी का प्रयोग अवश्य ही किया जाता है।
मान्यता
चरक संहिता में कहा गया है कि घी स्मरण शक्ति, बुद्धि, ऊर्जा, बलवीर्य, ओज बढ़ाता है। घी वसावर्धक है। यह वात, पित्त, बुखार और विषैले पदार्थों का नाशक है। गढ़वाल में इसे आम भाषा में 'घिया संक्रांद' और कुमांऊ में 'घी-त्यार' कहते हैं। उत्तराखंड में लगभग हर जगह आज के दिन घी खाना जरूरी माना जाता है।[1] कहा जाता है जो इस दिन घी नहीं खायेगा उसे अगले जन्म में गनेल यानी घोंघे के रूप में जन्म लेना होगा। यह घी के प्रयोग से शारीरिक और मानसिक शक्ति में वृद्धि का संकेत देता है| शायद यही वजह है कि नवजात बच्चों के सिर और पांव के तलुवों में भी घी लगाया जाता है। यहां तक उसकी जीभ में थोड़ा सा घी रखा जाता है।
कैसे मनाई जाती है?
सिंह संक्रांति के दिन कई तरह के पकवान बनाये जाते हैं जिनमें दाल की भरवां रोटियां, खीर और गुंडला या गाबा (पिंडालू या पिनालू के पत्तों से बना) प्रमुख हैं। यह भी कहा जाता है कि इस दिन दाल की भरवां रोटियों के साथ घी का सेवन किया जाता है। इस रोटी को बेडु की रोटी कहा जाता है। इसमें जिस भरवा को भरा जाता है उसे उरद दाल को पीस कर पीठा बनाया जाता है और उसे पकाकर घी से साथ खाया जाता है। रोटी के साथ खाने के लिए अरबी नाम की सब्ज़ी के खिले पत्तों की सब्ज़ी बनायीं जाती है। इन पत्तों को ही गाबा कहा जाता है। इसके साथ ही समाज के अन्य वर्ग जैसे वास्तुकार, शिल्पकार, दस्तकार, लौहार, बढ़ाई अपने हाथ से बनी चीज़े भेंट स्वरुप लोगों को देते है और ईनाम प्राप्त करते है। अर्थात जो लोग कृषि व्यवसाय से नहीं भी जुड़े है, वे लोग भी इस त्यौहार का हिस्सा होते है। भेंट देने की इस परंपरा को 'ओल्गी' कहा जाता है। इसलिए इस संक्रांति को 'ओल्गी संक्रांति' भी कहते हैं।[1]
महत्त्व
हिंदू धर्म में सिंह संक्रांति को एक पर्व के रूप में मनाया जाता है। सिंह संक्रांति के दिन सूर्य अपनी स्वराशि सिंह में आ जाता है। जिसके कारण सूर्य बली अवस्था में होता है। बली होने के कारण सूर्य का प्रभाव और भी ज्यादा बढ़ जाता है। वहीं ज्योतिष के अनुसार सूर्य एक आत्मकारक ग्रह है। सूर्य का प्रभाव बढ़ने के कारण व्यक्ति के पुराने रोग खत्म होने लगते हैं। साथ ही उसका आत्मविश्वास भी बढ़ने लगता है। सिंह राशि में स्थित होने के कारण सूर्य देव की पूजा विशेष फलदायी मानी गई है। एक महीने के इस समय में सूर्य की पूजा रोज करनी चाहिए। सिंह संक्रांति के दिन सूर्य देव, भगवान विष्णु और भगवान नरसिंह की पूजा करने और पवित्र नदियों और तालाबों में स्नान कर गंगाजल व दूध से देवताओं का अभिषेक करने का विधान है।
घी सेवन
सिंह संक्रांति या सूर्य संक्रांति के दिन पूजा-पाठ, स्नान-ध्यान और दान पुण्य के साथ-साथ घी खाने का भी महत्व होता है। आयुर्वेद में चरक संहिता के अनुसार गाय का घी काफी पवित्र और शुद्ध होता है। ऐसा माना जाता है कि जो भी जातक सूर्य संक्रांति के दिन घी का सेवन करता है, उसकी याददाश्त, बुद्धि, बल, ऊर्जा और ओज में वृद्धि होती है। इसके अलावा गाय का घी वसावर्धक होता है जिसका सेवन करने के बाद व्यक्ति को वात, कफ और पित्त दोष जैसी परेशानियां नहीं होती है। साथ ही गाय का घी शरीर से विषैले पदार्थों को निकाल देता है। वहीं सिंह संक्रांति के दौरान लगभग एक महीने तक सूर्य देव को रोज जल चढ़ाना चाहिए। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यदि कोई व्यक्ति सूर्य संक्रांति के दिन घी नहीं खाता है तो वह घोंघे के रूप में जन्म लेता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 सिंह संक्रांति 2022 (हिंदी) festivalsofindia.in। अभिगमन तिथि: 26 अगस्त, 2021।
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