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फाल्गुन

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फाल्गुन
लट्ठामार होली, बरसाना
विवरण फाल्गुन हिन्दू पंचांग के अनुसार चैत्र माह से प्रारंभ होने वाले वर्ष का बारहवाँ तथा अंतिम महीना है।
अंग्रेज़ी फरवरी-मार्च
हिजरी माह रबीउल आख़िर - जमादी-उल-अव्वल
व्रत एवं त्योहार शिवरात्रि, होली, होलिका दहन
पिछला माघ
अगला चैत्र
विशेष फाल्गुनी पूर्णिमा को दक्षिण भारत में 'उत्तिर' नामक मन्दिरोत्सव का भी आयोजन किया जाता है।
अन्य जानकारी यदि फाल्गुनी पूर्णिमा को फाल्गुनी नक्षत्र हो तो व्रती को पलंग तथा बिछाने योग्य सुन्दर वस्त्र दान में देने चाहिए। इससे सुभार्या की प्राप्ति होती है, जो कि अपने साथ में सौभाग्य लिये चली आती है।

फाल्गुन हिन्दू पंचांग के अनुसार चैत्र माह से प्रारंभ होने वाले वर्ष का बारहवाँ तथा अंतिम महीना है जो ईस्वी कलेंडर के फरवरी या मार्च माह में पड़ता है।

विशेष बिंदु

  • फाल्गुन को 'वसंत' ऋतु का महीना भी कहा जाता है क्योंकि इस समय भारत में न अधिक गर्मी होती है और न अधिक सर्दी।
  • फाल्गुन माह में अनेक महत्त्वपूर्ण पर्व मनाए जाते हैं जिसमें होली प्रमुख हैं।
  • समस्त वार्षिक महोत्सव दक्षिण भारत के विशाल तथा छोटे-छोटे मन्दिरों में प्राय: फाल्गुन मास में ही आयोजित होते हैं।
  • फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को लक्ष्मी जी तथा सीता जी की पूजा होती है।
  • यदि फाल्गुनी पूर्णिमा को फाल्गुनी नक्षत्र हो तो व्रती को पलंग तथा बिछाने योग्य सुन्दर वस्त्र दान में देने चाहिए। इससे सुभार्या की प्राप्ति होती है, जो कि अपने साथ में सौभाग्य लिये चली आती है।
  • कश्यप तथा अदिति से अर्यमा की पूजा तथा अत्रि और अनुसूया से चन्द्रमा की उत्पत्ति फाल्गुनी पूर्णिमा को ही हुई थी। अत: इन देवों की चन्द्रोदय के समय पूजा करनी चाहिए। पूजन में गीत, वाद्य, नृत्यादि का समावेश होना चाहिए।
  • फाल्गुनी पूर्णिमा को ही दक्षिण भारत में 'उत्तिर' नामक मन्दिरोत्सव का भी आयोजन किया जाता है।
  • फाल्गुन में यदि द्वादशी को श्रवण नक्षत्र हो तो उसे फाल्गुन श्रवण द्वादशी कहते हैं। उस दिन उपवास करके भगवान हरि का पूजन करना चाहिए [1]

होली एवं होलिका दहन

होली भारत का प्रमुख त्योहार है। होली जहाँ एक ओर सामाजिक एवं धार्मिक है, वहीं रंगों का भी त्योहार है। होलिका दहन पूर्ण चंद्रमा (फाल्गुन पूर्णिमा) के दिन ही प्रारंभ होता है। इस दिन सायंकाल को होली जलाई जाती है। इसके एक माह पूर्व अर्थात् माघ पूर्णिमा को 'एरंड' या गूलर वृक्ष की टहनी को गाँव के बाहर किसी स्थान पर गाड़ दिया जाता है, और उस पर लकड़ियाँ, सूखे उपले, खर-पतवार आदि चारों से एकत्र किया जाता है और फाल्गुन पूर्णिमा की रात या सायंकाल इसे जलाया जाता है। परंपरा के अनुसार सभी लोग अलाव के चारों ओर एकत्रित होते हैं। इसी 'अलाव को होली' कहा जाता है। होली की अग्नि में सूखी पत्तियाँ, टहनियाँ व सूखी लकड़ियाँ डाली जाती हैं तथा लोग इसी अग्नि के चारों ओर नृत्यसंगीत का आनन्द लेते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नीलमतपुराण, पृ. 52

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