उत्तराखण्ड

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उत्तराखण्ड
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राजधानी देहरादून
राजभाषा(एँ) हिन्दी भाषा, कुमाँऊनी भाषा, गढ़वाली भाषा, अंग्रेज़ी भाषा
स्थापना 9 नवंबर, 2000
जनसंख्या 8,489,349[1]
· घनत्व 158 /वर्ग किमी
क्षेत्रफल 53,484
भौगोलिक निर्देशांक 30°20′N 78°04′E
ज़िले 13[2]
सबसे बड़ा नगर देहरादून
मुख्य ऐतिहासिक स्थल हरिद्वार, नैनीताल, गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ, केदारनाथ, ऋषिकेश
मुख्य पर्यटन स्थल नैनीताल, अल्मोड़ा, हरिद्वार, मसूरी, ऋषिकेश
साक्षरता 72%
राज्यपाल गुरमीत सिंह[2]
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी
विधानसभा सदस्य 71
लोकसभा क्षेत्र 5
राज्यसभा सदस्य 3
बाहरी कड़ियाँ अधिकारिक वेबसाइट
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उत्तराखण्ड या उत्तराखंड भारत के उत्तर में स्थित एक राज्य है। 2000 और 2006 के बीच यह उत्तरांचल के नाम से जाना जाता था, 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड भारत गणराज्य के 27 वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आया। राज्य का निर्माण कई वर्ष के आन्दोलन के पश्चात् हुआ। उत्तर पश्चिमी उत्तरप्रदेश का पार्वतीय प्रदेश जिसमें बदरीनाथ और केदारनाथ का क्षेत्र सम्मिलित है। मुख्य रूप से गढ़वाल का उत्तरी भाग इस प्रदेश के अंतर्गत है। इस प्रान्त में वैदिक संस्कृति के कुछ सबसे महत्त्वपूर्ण तीर्थस्थान हैं। इस राज्य की राजधानी देहरादून है। उत्तराखण्ड अपनी भौगोलिक स्थिता, जलवायु, नैसर्गिक, प्राकृतिक दृश्यों एवं संसाधनों की प्रचुरता के कारण देश में प्रमुख स्थान रखता है। उत्तराखण्ड राज्य तीर्थ यात्रा और पर्यटन की दृष्टि से विशेष महत्त्व रखता है। यहाँ चारों धाम बद्रीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री और गंगोत्री हैं। इस चार धाम यात्रा मार्ग पर कई दर्शनीय स्थल हैं। पंचप्रयाग के नाम से प्रसिद्ध पाँच अत्यन्त पवित्र संगम स्थल यहीं स्थित है। ये हैं- विष्णुप्रयाग, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयागदेवप्रयाग। इसके अलावा सिक्खों के तीर्थस्थल के रूप में हेमकुण्ड साहिब भी विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। यहाँ की अधिकांश झीलें कुमाऊँ क्षेत्र में हैं जो कि प्रमुखतः भूगर्भीय शक्तियों के द्वारा भूमि के धरातल में परिवर्तन हो जाने के परिणामस्वरूप निर्मित हुई हैं।

इतिहास

पौराणिक इतिहास

प्राचीन धर्मग्रंथों में उत्तराखंड का उल्लेख केदारखंड, मानसखंड और हिमवंत के रूप में मिलता है। लोककथा के अनुसार पांडव यहाँ पर आए थे और विश्व के सबसे बड़े महाकाव्यों महाभारतरामायण की रचना यहीं पर हुई थी। इस क्षेत्र विशेष के बारे में बहुत कुछ कहा जाता है, लेकिन प्राचीन काल में यहाँ मानव निवास के प्रमाण मिलने के बावजूद इस इलाक़े के इतिहास के बारे में बहुत कम जानकारी मिलती है।

अल्मोड़ा का एक दृश्य

भारत के इतिहास में इस क्षेत्र के बारे में सरसरी तौर पर कुछ जानकारी मिलती है। उदाहरण के लिए हिन्दू धर्म के पुनरुद्धारक आदि शंकराचार्य के द्वारा हिमालय में बद्रीनाथ मन्दिर की स्थापना का उल्लेख आता है। शंकराचार्य द्वारा स्थापित इस मन्दिर को हिन्दू चौथा और आख़िरी मठ मानते हैं।

देवभूमि

यहाँ पर कुषाणों, कुनिंदों, कनिष्क, समुद्रगुप्त, पौरवों, कत्यूरियों, पालों, चंद्रों, पंवारों और ब्रिटिश शासकों ने शासन किया है। इसके पवित्र तीर्थस्थलों के कारण इसे देवताओं की धरती ‘देवभूमि’ कहा जाता है। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र पर्यटकों और तीर्थयात्रियों को निर्मल प्राकृतिक दृश्य प्रदान करते हैं। वर्तमान उत्तराखंड राज्य 'आगरा और अवध संयुक्त प्रांत' का हिस्सा था। यह प्रांत 1902 में बनाया गया। सन् 1935 में इसे 'संयुक्त प्रांत' कहा जाता था। जनवरी 1950 में 'संयुक्त प्रांत' का नाम 'उत्तर प्रदेश' हो गया। 9 नंवबर, 2000 तक भारत का 27वां राज्य बनने से पहले तक उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का ही हिस्सा बना रहा।

स्वातंत्र्योत्तर इतिहास

स्वातंत्र्योत्तर भारत में 1949 में इसका एक बार फिर उल्लेख मिलता है, जब टिहरी गढ़वाल और रामपुर के दो स्वायत्त राज्यों को संयुक्त प्रान्त में मिलाया गया। 1950 में नया संविधान अंगीकार किये जाने के साथ ही संयुक्त प्रान्त का नाम उत्तर प्रदेश रखा गया और यह नए भारतीय संघ का संविधान-सम्मत राज्य बन गया। उत्तर प्रदेश के गठन के फ़ौरन बाद ही इस क्षेत्र में गड़बड़ी शुरू हो गई। यह महसूस किया गया कि राज्य की बहुत विशाल जनसंख्या और भौगोलिक आयामों के कारण लखनऊ में बैठी सरकार के लिए उत्तराखण्ड के लोगों के हितों का ध्यान रखना असम्भव है। बेरोज़गारी, ग़रीबी, पेयजल और उपयुक्त आधारभूत ढांचे जैसी बुनियादी सुविधाओं के अभाव और क्षेत्र का विकास न होने के कारण उत्तराखण्ड की जनता को आन्दोलन करना पड़ा। शुरुआत में आन्दोलन कुछ कमज़ोर रहा, लेकिन 1990 के दशक में यह ज़ोर पकड़ गया और 1994 के मुज़फ़्फ़रनगर में इसकी परिणति चरम पर पहुँची। उत्तराखण्ड की सीमा से 20 किमी दूर उत्तर प्रदेश राज्य के मुज़फ़्फ़नगर ज़िले में रामपुर तिराहे पर स्थित शहीद स्मारक उस आन्दोलन का मूक गवाह है, जहाँ 2 अक्टूबर, 1994 को लगभग 40 आन्दोलनकारी पुलिस की गोलियों के शिकार हुए थे।

लगभग एक दशक के दीर्घकालिक संघर्ष की पराकाष्ठा के रूप में पहाड़ी क्षेत्र के सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों की पहचान और बेहतर प्रशासन के लिए राजनीतिक स्वायत्तता हेतु उत्तरांचल राज्य का जन्म हुआ।

भूगोल

उत्तराखण्ड राज्य का क्षेत्रफल 53,484 वर्ग किमी और जनसंख्या 8,479,562 (2001 की जनगणना के अनुसार) है। उत्तराखण्ड भारत के उत्तर - मध्य भाग में स्थित है। यह पूर्वोत्तर में तिब्बत, पश्चिमोत्तर में हिमाचल प्रदेश, दक्षिण - पश्चिम में उत्तर प्रदेश और दक्षिण - पूर्व में नेपाल से घिरा है। उत्तराखण्ड का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 28° 43’ उ. से 31°27’ उ. और रेखांश 77°34’ पू. से 81°02’ पू के बीच में 53,483 वर्ग किमी है, जिसमें से 43,035 किमी पर्वतीय है और 7,448 किमी मैदानी है, तथा 34,651 किमी भूभाग वनाच्छादित है। राज्य का अधिकांश उत्तरी भाग वृहद्तर हिमालय श्रृंखला का भाग है, जो ऊँची हिमालयी चोटियों और हिमनदियों से ढ़का हुआ है, जबकि निम्न तलहटियाँ सघन वनों से ढ़की हुई हैं जिनका पहले अंग्रेज़ लकड़ी व्यापारियों और स्वतन्त्रता के बाद वन अनुबन्धकों द्वारा दोहन किया गया। हाल ही के वनीकरण के प्रयासों के कारण स्थिति प्रत्यावर्तन करने में सफलता मिली है। हिमालय के विशिष्ठ पारिस्थितिक तन्त्र बड़ी संख्या में पशुओं - जैसे भड़ल, हिम तेंदुआ, तेंदुआ, और बाघ, पौंधो, और दुर्लभ जड़ी-बूटियों का घर है। [3]

भूमि

यद्यपि उत्तराखण्ड में धूल भरे मैदान जगह-जगह छाए हुए हैं, फिर भी यह क्षेत्र ख़ासा वनाच्छादित और अत्यधिक पहाड़ी है। बर्फ़ से ढकी चोटियाँ, गहरी खाइयाँ, गरजती जल धाराओं और सुन्दर झीलों से युक्त इस क्षेत्र की भू-आकृति अत्यन्त विविधतापूर्ण है। ऊँचे पहाड़ों के हिमनद गंगा और यमुना नदी के स्रोत हैं। सबसे ऊँचे पर्वत शिखरों में से कुछ उत्तरांचल में स्थित हैं, जैसे -

  • नंदा देवी 7,817 मीटर
  • बद्रीनाथ 7,138 मीटर
  • सतोपंथ 7,075 मीटर
  • त्रिशूल 7,120 मीटर
  • केदारनाथ 6,940 मीटर
  • कामेट 7,756 मीटर
  • नीलकंठ 6,596 मीटर

अधिकांश शिखरों को हिन्दू मतावलम्बी पवित्र उपासना स्थलों के रूप में पूजते हैं। सांस्कृतिक और राजनीतिक तौर पर उत्तराखण्ड गढ़वाल और कुमाऊँ के रूप में दो प्रमुख भागों में बँटा हुआ है, जिसमें से प्रत्येक को तीन भू-आकृतियों में बाँटा जा सकता है, जो पश्चिमोत्तर से दक्षिण-पश्चिम की ओर एक-दूसरे के समानान्तर चलती हैं।

  1. उत्तरी खण्ड हिमाद्रि के नाम से प्रसिद्ध है और यहाँ ज़ास्कर पर्वतमाला व 3,000 से 7,000 की ऊँचाई वाला मुख्य हिमालय है। ज़्यादातर उपरोक्त चोटियाँ इसी भूखण्ड में स्थित हैं।
  2. हिमालय के बाद दक्षिण में 2,000 से 3,000 मीटर की ऊँचाई पर हिमालय नाम से प्रसिद्ध निम्न हिमालय स्थित है। यहाँ पर एक रेखा में दो पर्वत श्रृंखलाएँ मसूरी और नाग टिब्बा व पहाड़ी पर्यटन स्थल मसूरी, नैनीताल, नौकुचिया ताल, रानीखेत और बहुत-सी सुन्दर झीलें, जैसे नैनीताल, भीमतालसातताल हैं।
  3. दक्षिणतम खण्ड में शिवालिक पहाड़ियाँ हैं, जो 300 से 3,000 मीटर की ऊँचाई वाले तराई क्षेत्र में मिलती हैं। शिवालिक का दक्षिणी सिरा संरचनात्मक अवसादों से बना है, जिसे स्थानीय तौर पर दून, देहरादून कहते हैं।

अपवाह

उत्तराखण्ड राज्य गंगा जल प्रणाली की अनेक नदियों के द्वारा सिंचित है। यद्यपि गंगा प्रणाली उत्तराखण्ड में कम ही प्रचलित है। सुदूर पश्चिमी नदी प्रणाली टोन्स और यमुना से मिलकर बनती है। इसके पूर्व में गंगा की प्रमुख सहायक नदियाँ भागीरथी, मंदाकिनी, अलकनन्दा और पिंडर हैं। पूर्व में और आगे रामगंगाकोसी नदियाँ बहती हैं। दक्षिण - पूर्व में बहने वाली नदियाँ सरजु, गौरीगंगा और धौलीगंगा हैं। घाटियाँ बारहमासी नदियों द्वारा निर्मित गहरे दर्रों से बनी हैं। इन नदियों को मुख्य हिमालय और ज़ास्कर श्रृंखला से सतत बहकर आने वाली बर्फ़ से पानी मिलता है। ये नदियाँ जलविद्युत उत्पादन का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं।

मृदा

उत्तराखण्ड में मिट्टी की विभिन्न क़िस्में पाई जाती हैं और सभी मृदा अपरदन के प्रति संवेदनशील हैं। उत्तर में कंकरीली (हिमनदों के साथ बहकर आया कचरा) से लेकर 'कठोर मिट्टी' तक पाई जाती है। आगे दक्षिण में वनों की 'भूरी मिट्टी' मिलती है, जो प्राय: उथली, कंकरीली और प्रचुर जैविक अवयवों से युक्त होती है। निम्न हिमालय की तराई और शिवालिक पहाड़ियों पर 'भाबर मिट्टी' मिलती है, जो अधिकतर खुरदरी, 'बलुई' से कंकरीली, अत्यधिक रंध्रिल और मुख्यत: बंजर है। सुदूर दक्षिण-पूर्व में मिलने वाली तराई की मिट्टी की संरचना 'चिकनी', 'दोमट' और 'महीन बालू' व खाद की कुछ मात्रा से युक्त होती है। यह मिट्टी चावल और गन्ने की खेती के लिए उपयुक्त है।

नदियाँ

भारत की दो सबसे महत्त्वपूर्ण नदियाँ गंगा और यमुना इसी राज्य में जन्म लेतीं हैं, और मैदानी क्षेत्रों तक पहुँचते पहुँचते मार्ग में बहुत से तालाबों, झीलों, हिमनदियों की पिघली बर्फ़ से जल ग्रहण करती हैं।

वन

उत्तराखण्ड, हिमालय श्रृंखला की दक्षिणी ढलान पर स्थित है, और यहाँ मौसम और वनस्पति में ऊँचाई के साथ बहुत परिवर्तन होता है, जहाँ सबसे ऊँचाई पर हिमनद से लेकर निचले स्थानों पर उपोष्णकटिबंधीय वन हैं। सबसे ऊँचे उठे स्थल हिम और पत्थरों से ढके हुए हैं। उनसे नीचे, 5000 से 3000 मीटर तक घास भूमि और झाड़ी भूमि है। समशीतोष्ण शंकुधारी वन, पश्चिम हिमालयी उपअल्पाइन शंकुधर वन, वृक्षरेखा से कुछ नीचे उगते हैं। 3000 से 2600 मीटर की ऊँचाई पर समशीतोष्ण पश्चिम हिमालयी चौड़ी पत्तियों वाले वन हैं जो 2600 से 1500 मीटर की उँचाई पर हैं। 1500 मीटर से नीचे हिमालयी उपोष्णकटिबंधीय पाइन वन हैं। उंचे गंगा के मैदानों में नम पतझड़ी वन हैं और सुखाने वाले तराई-दुआर सवाना और घासभूमि उत्तर प्रदेश से लगती हुई निचली भूमि को ढके हुए है। इसे स्थानीय क्षेत्रों में 'भाभर' के नाम से जाना जाता है। निचली भूमि के अधिकांश भाग को खेती के लिए साफ़ कर दिया गया है।[3]

राष्ट्रीय उद्यान

भारत के निम्नलिखित राष्ट्रीय उद्यान इस राज्य में हैं, जैसे - जिम कोर्बेट राष्ट्रीय पार्क (भारत का सबसे पुराना राष्ट्रीय उद्यान) रामनगर, नैनीताल ज़िले में, फूलों की घाटी राष्ट्रीय उद्यान और नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान, चमोली ज़िले में हैं और दोनो मिलकर यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल हैं, राजाजी राष्ट्रीय उद्यान हरिद्वार ज़िले में, और गोविंद पशु विहार और गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान उत्तरकाशी ज़िले में है।

जलवायु

औली, उत्तराखण्ड

उष्णकटिबन्धीय मॉनसूनी विशेषताओं वाले उत्तराखण्ड की जलवायु शीतोष्ण है। इसकी विशेषता मौसम के अनुसार तापमान परिवर्तन है। जनवरी सबसे ठण्डा महीना होता है, जब तापमान उत्तर में शून्य से नीचे की ओर दक्षिण-पूर्व में लगभग 5° से. हो जाता है। मई सबसे गर्म महीना होता है; फिर भी भारतीय उपमहाद्वीप के पर्यटकों को आकर्षित करने के लिहाज़ से कम ही गर्म साबित होता है। जुलाई दक्षिणी-पश्चिमी मॉनसून का महीना है। उत्तराखण्ड में होने वाली कुल वर्षा का दो-तिहाई भाग दक्षिण-पश्चिमी मॉनसून[4] से आता है। हालांकि अन्य महीनों में भी कुछ वर्षा हो जाती है। यह थोड़ी बहुत पश्चिमी विक्षोभ, संवहनीय वर्षा या पर्वतीय अनुकूलन, जो पहाड़ी क्षेत्रों की विशेषता है, के द्वारा होती है। किसी भी मौसम की वर्षा की स्थानीय प्रवृत्ति को ठीक-ठीक नहीं समझा जा सका है। फिर भी पहाड़ी ढलानों के सन्दर्भ में ऐसा हवाओं के कारण वर्षा की दिशा बदलने से होता है। पूर्व और दक्षिण-पश्चिम[5] की तुलना में उत्तरी क्षेत्र के मध्य भाग में ज़्यादा[6] वर्षा होती है। जून से सितम्बर माह में अधिकांश वर्षा होती है, जिसके कारण घाटी की तलहटी में आने वाली बाढ़ और बार-बार होने वाले भूस्खलन यहाँ की आम समस्याएँ हैं। राज्य के उत्तरी भाग में अमूमन दिसम्बर और मार्च माह में हिमपात होता है और इसका वार्षिक औसत 3 से 5 मीटर रहता है।

अर्थव्यवस्था

उत्तराखण्ड की अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि आधारित है और राज्य की 10 प्रतिशत जनसंख्या कृषि कार्यों में लगी हुई है। उत्तराखण्ड खनिजों जैसे चूनापत्थर, रॉक फॉस्फेट, डोलोमाइट, मैग्नेसाइट, कॉपर ग्रेफाइट, सोप स्टोन, जिप्सम इत्यादि के मामले में एक धनी राज्य है। 2003 की औद्योगिक नीति के कारण यहाँ निवेश करने वाले निवेशकों को कर राहत दी गई है। यहाँ पूँजी निवेश में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।

संसाधन

उत्तराखण्ड आर्थिक रूप से देश के सबसे पिछड़े हुए राज्यों में से एक है। मुख्य रूप से यह कृषि पर निर्भर राज्य है और कामकाजी जनसंख्या का 4/5 से भी अधिक कृषि कार्य में संलग्न है। राज्य में औद्योगिकीकरण के लिए महत्त्वपूर्ण खनिज और ऊर्जा संसाधनों की कमी है। खनिज के नाम पर केवल सिलिका और चूना पत्थर ही उल्लेखनीय मात्रा में मिलते हैं। यहाँ जिप्सम, मैग्नेसाइट, फ़ॉस्फ़ोराइट और बॉक्साइट के छोटे भंडार हैं। इस पहाड़ी राज्य की बारहमासी नदियाँ जलविद्युत का महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। लेकिन इस ऊर्जा स्रोत की अपार सम्भावनाओं को अभी बहुत कम आंका गया है। झरनों का उपयोग करने वाले छोटे विद्युत केन्द्रों के अलावा टिहरी बाँध (भागीरथी नदी पर निर्माणाधीन) जल शक्ति को काम में लाने वाली सबसे बड़ी परियोजनाओं में से एक है। वनों को भी आर्थिक संसाधन माना जाता है। जल शक्ति और वन संसाधनों के दोहन के प्रयास को पर्यावरणविदों के विरोध का सामना करना पड़ा है।

कृषि

उत्तराखंड की लगभग 90 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर ही निर्भर है। राज्य में कुल खेती योग्य क्षेत्र 7,84,117 हेक्टेयर हैं। राज्य के कुल क्षेत्रफल के 12 प्रतिशत भाग में ही खेती होती है। गहरी ढलानों पर सीढ़ीदार खेत बनाने पड़ते हैं और इस खेती की कुछ सीमाएँ हैं। सिंचाई की व्यवस्था करना एक कठिन कार्य है। किसान इस बात की सावधानी रखते हैं कि निचले स्तर की सिंचाई के लिए सिंचाई का पानी ऊपर सतह पर रहे। परिणामस्वरूप, कृषि योग्य भूमि का लगभग 87 प्रतिशत एक बार से अधिक सींच लिया जाता है। खाद्यान्न, अनाज, दलहन (फलियाँ), तिलहन और सब्ज़ियाँ आम फ़सलें हैं। अनाज में चावल सबसे प्रिय फ़सल है, जिसके बाद गेहूँ का स्थान आता है। विभिन्न क़िस्म का मोटा अनाज शुष्क अनुवाती ढलानों पर उगाया जाता है। राज्य के दक्षिणी भाग में स्थित तराई के इलाक़े में, जहाँ की हल्की ढलानों पर ट्रैक्टर का उपयोग किया जा सकता है, गन्ना बहुतायत में उगाया जाता है।

पुष्पवती नदी

उत्तराखंड की लगभग 90 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर ही निर्भर है। राज्य में कुल खेती योग्य क्षेत्र 7,84,117 हेक्टेयर हैं। राज्य की कुल आबादी का 75 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण है, जो अपनी आजीविका के लिये परम्परागत रूप से कृषि पर निर्भर है। आज़ादी के बाद जब उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार क़ानून में ग्राम पंचायतों को उनकी सीमा की बंजर, परती, चरागाह, नदी, पोखर, तालाब आदि श्रेणी की ज़मीनों के प्रबन्ध व वितरण का अधिकार दिया गया तो पहाड़ की ग्राम पंचायतों को इस अधिकार से वंचित करने के लिये सन् 1960 में ‘कुमाऊँ उत्तराखण्ड जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार क़ानून ’ (कूजा एक्ट) ले आया गया। यही कारण है कि जहाँ पूरे भारत में ग्राम पंचायतों के अन्दर भूमि प्रबन्ध कमेटी का प्रावधान है, पहाड़ की ग्राम पंचायतों को इससे वंचित रखा गया है। इसके बाद सन् 1976 में लाये गये वृक्ष संरक्षण क़ानून ने पहाड़ के किसानों को अपने खेत में उगाये गये वृक्ष के दोहन से रोक दिया, जबकि पहाड़ का किसान वृक्षों का व्यावसायिक उपयोग कर अपनी आजीविका चला सकता था। [7]

फसल

उत्तराखण्ड के 55.66 लाख हेक्टेअर क्षेत्रफल में 34.66 हेक्टेअर वन क्षेत्र है। बंजर भूमि पर्वतीय क्षेत्र में 4.63 लाख हेक्टेअर है और 35,338 हेक्टेअर मैदानी क्षेत्र में है। यहाँ खरीफ़ की फसल में 7,22,755 हेक्टेअर में बुआई हो रही है और रबी की फसल में 4,61,820 हेक्टेअर में हो रही है। स्पष्ट है कि रबी की फसल में 2,60,935 हेक्टेअर भूमि परती छोड़ी गयी। पर्वतीय और मैदानी दोनों क्षेत्रों में सिंचित भूमि में दोनों फसलें उगाई जाती हैं, लेकिन पर्वतीय अंचलों में असिंचित क्षेत्र में एक बार परती छोड़ी जाती है। इसको समझने के लिये ‘सार’ शब्द परिभाषित करते हैं। गाँव के क्षेत्र में जो एक फसल बो दी जाती है वो ‘सार’ कही जाती है। जैसे ‘मंडुवे की सार’ अथवा ‘धान की सार’। इनको अगेती और पछेती सार के रूप में जाना जाता है। पर्वतीय अंचल में दो वर्षीय फसल चक्र इस प्रकार प्रभावी है कि एक सार का द्विवार्षिक फसल चक्र दिया जा रहा है। यह फसल चक्र वर्तमान वैज्ञानिक फसल चक्र के सभी सिद्धान्तों की आपूर्ति करता है।

द्विवर्षीय फसल चक्र

खरीफ़ प्रथम रबी प्रथम धान, मादिरा मिर्च, गेहूँ, जौ कौनी, आलू (अगेतीसार) मसूर, तिल खरीफ द्वितीय रबी द्वितीय मडुआ, भट्ट,गहत, परती उड़द, चौलाई (पछेती सार) यही फसल चक्र दूसरी सार में द्वितीय खरीफ से आरम्भ किया जाता है। जब इस प्रकार की परम्परागत खेती आरम्भ हुई, तब की परिस्थितियाँ इसके अनुकूल रहीं। भूमि पर्याप्त थी और जनसंख्या कम थी। इस प्रचलन से कार्य विभाजन भी होता है। भूमि उर्वरा शक्ति भी बनी रहती है। पहाड़ी क्षेत्र में बरसात में खेत की दीवारें टूटती हैं और परती भूमि में जाड़ों में इन खेतों की मरम्मत की जाती है। परती भूमि में लोच पैदा होती है, भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। इसके साथ ही जाड़ों की वर्षा से खेत में नमी रहती है और फाल्गुन के महीने में खेतों की जुताई की जाती है। खेत में नमी बनी रहती है। चैत के महीने में इन खेतों में धान, कौड़ी, भंगिरा, मिर्च, तिल आदि बो दिये जाते हैं और गर्मी में इन खेतों में कृषि कार्य गुड़ाई, दनेला आदि किये जाते हैं।

दूसरी सार

दूसरी सार में गेहूँ आदि की फसल काटने के बाद जुताई करने के बाद मडुवे का बीज बिखेर दिया जाता है, जो वैशाख - जेठ के अंधड़ (मौसम पूर्व) वर्षा से जम जाता है। इसकी गुड़ाई-निराई के साथ दालें बो दी जाती हैं। इस परती भूमि में जाड़ों भर गाँव के पशुओं को खुली छूट होती है, जिससे उद्यानीकरण, वनीकरण, औषधीय पौध उत्पादन में बाधा उत्पन्न हो रही है, क्योंकि प्रत्येक वर्ष में एक बार परती छोड़ी जाती है। भौगोलिक स्थिति, जलवायु, बुवाई आदि के अनुसार सारों का नामकरण किया जाता है- अगेतीसार, पछेती सार, तैली सार, स्येदी सार, मल्ली सार, तल्ली सार, उपराऊँ सार, तला सार आदि।

बन्द सार

जब एक सार की फसल कटती है तो उसमें पशुओं को छोड़ दिया जाता है, जिसे मुखस्यार (मुक्त सार) घोषित किया जाता है। यह प्रथा सिंचित, असिंचित, तलाऊँ, उपराऊँ, अगेती, पछेती सभी सारों में लागू है, जिससे प्रगतिशील किसानों को इस समस्या से जूझना पड़ता है और वे हतोत्साहित होकर रह जाते हैं। परती सार के आंशिक प्रयोग में भी यही बाधा है। इस समस्या का एकमात्र हल वर्तमान में यही सुझाया जा सकता है कि ‘बन्द सार’ का एक नया प्रयोग किया जाये, जिसमें गाँव वाले तय करें कि गाँव की भूमि का एक हिस्सा पशुओं की खुली छूट से प्रतिबन्धित किया जाय। इससे क्षेत्र में उद्यानीकरण, वनीकरण, चारा पौधरोपण, सब्जी उत्पादन, औषधि रोपण, कृषि उत्पादन के नये प्रयोग किये जा सकेंगे। कुछ प्रधानों ने ऐसे उदाहरण प्रस्तुत भी किये है।

जन्मजात कृषि

पर्वतीय अंचल की कृषि अभी तक वैज्ञानिक खेती से कोसों दूर है। जैविक खेती तो यहाँ की जन्मजात कृषि है। इसे भी समझने की आवश्यकता है। जिस असिंचित खेती का उल्लेख किया गया है, उसके लिये उन्नत बीज, वैज्ञानिक विधि, उन्नत यंत्र, कीट नियंत्रण आदि पर कृषि वैज्ञानिक हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। समाचार सुनकर ताज्जुब होता है कि परती भूमि का भूमि परीक्षण किया जायेगा, उसके अनुसार कार्रवाई होगी। असिंचित क्षेत्र की सारी भूमि दो साल में एक बार परती रहती है। भूमि का आबंटन समान रूप से नहीं है। इसलिये यह अभी संभव नहीं है। जंगली जानवर सुअर (बराह), सौल (स्याही) के डर से खरीफ की फसल भी परती का रूप लेने लगी है। कृषक यह सोचने को मजबूर है कि फसल उगाने से घास उगाना अधिक लाभकारी है। नई पीढ़ी इससे त्रस्त है।

नियोजन

उत्तराखण्ड के पर्वतीय भूभाग के सभी खेतों के लिये एक ही प्रकार का नियोजन सम्भव नहीं है। प्रत्येक घाटी, पर्वतीय ढाल की भूमि की उर्वरा शक्ति में भिन्नता है। यहाँ तक कि एक ही गाँव के खेतों में तक समानता नहीं है। चारा पौधरोपण, फलोत्पादन, वनीकरण, औषधीय पौधरोपण, सब्जी उत्पादन, फूलों की खेती, खाद्यान्न उत्पादन में कौन सा कार्य किस क्षेत्र के लिये अधिक उपयोगी हो सकता है। गाँव के अच्छे खेत अनाज उत्पादन के लिये नियत थे। गाँव के ऊपरी हिस्से के भूमि भवन गोशाला निर्माण के लिये नियत थे।

बाज़ारीकरण

बाज़ारीकरण की भावना ज़ोर पकड़ने लगी है और अच्छी तलाऊँ भूमि में सिमेंट और कंक्रीट के भवन खड़े होने लगे हैं। सड़क चौबाट में निवास बनने लगे हैं। अन्न उत्पादन क्षेत्र का ह्रास होने लगा है। उत्तराखण्ड की कृषि आज भी पशु आधारित है, परन्तु पशुपालन में रुचि घटने लगी है। यह प्रवृत्ति उत्तराखण्ड के आर्थिक पतन का कारण बनने जा रहा है। इसके लिये वन विभाग भी उत्तरदायी है, क्योंकि उसने पशु चारा पौधों के रोपण के प्रति तटस्थता का भाव पैदा कर दिया है। चौड़ी पत्ती के वनों की कमी ने जैविक खाद (परम्परागत खाद) उत्पादन में कठिनाई पैदा कर दी है। चारा बैंक बनाने से समस्या का हल नहीं होगा। चारा पौधारोपण से चारे की कमी दूर होगी। भीमल वृक्षारोपण में चारा बैंक की सम्भावना है। भीमल की पत्तियों के व्यापारीकरण में सार्थकता है।

उपाय

असिंचित क्षेत्र में उत्पादित अन्न, दालों, तिलहनों दवाओं की उपलब्धता के साथ बेमौसमी सब्जी उत्पादन, कीटनाशक वनीकरण, फूलों के उत्पादन से भूमि का सदुपयोग सम्भव है। साथ ही दुर्गम स्थान के उत्पाद की विपणन व्यवस्था सुलभ होने से कृषकों में उत्साह पैदा होगा और स्वमेव भूमि का सम्पूर्ण उपयोग होने लग जायेगा।[8]

उत्पादन

मडुआ, गहत, पहाड़ी आलू, भट्ट, पहाड़ी गाय का दूध, घी और गौमूत्र आदि पहाड़ी उत्पादों ने बाज़ार में अपना प्रभुत्व जमाना आरम्भ कर दिया है। अब चुनौती है कि इनके उत्पादन को किस प्रकार आगे बढ़ाया जाये।

पशुपालन

पशुपालन व्यापक तौर पर प्रचलित है। डेयरी उद्योग में सहायक सर्वाधिक पशु दक्षिण की तराई के इलाक़े में मिलते हैं। यद्यपि मवेशी हर गाँव में मिलते हैं, फिर भी पहाड़ों में बकरी और भेड़पालन ही सर्वाधिक होता है। मौसम के अनुसार फलने-फूलने वाले घास के मैदानों की तलाश ऋतु-प्रवास का कारण बनती है। यहाँ गढ़वाल के गद्दियों जैसे कुछ विशिष्ट समुदाय हैं, जो ऋतु-प्रवास के लिये जाने जाते हैं। पशुपालन से इनके मालिकों को अतिरिक्त आय प्राप्त होती है और कारीगरों को अतिरिक्त काम मिलता है। राज्य भर में ऊनी वस्त्रों और सावधानी से बनाई गई चमड़े की वस्तुओं का उत्पादन होता है।

वानिकी

उत्तराखण्ड के वनों से निर्माण व ईधन की लकड़ी और प्लाइवुड, काग़ज़ व माचिस जैसे अनेक औद्योगिक उत्पादों के लिए कच्चा माल मिलता है। प्राकृतिक रूप से आकार पाई लकड़ियों से बनी हस्तशिल्प कृतियाँ राज्य में व्यापक तौर पर उपलब्ध हैं। राज्य सरकार के द्वारा चलाये जा रहे पुन: वन लगाने के कार्यक्रमों को बढ़ावा मिला है।

केग्यु संस्थान, देहरादून
सिंचाई और बिजली

राज्य की लगभग कुल 5,91,418 हेक्टेयर कृषि भूमि में सिंचाई की जा रही हैं। राज्य में पनबिजली उत्पादन की भरपूर क्षमता है। यमुना, भागीरथी, भीलांगना, अलकनंदा, मंदाकिनी, सरयू, गौरी, कोसी और काली नदियों पर अनेक पनबिजली संयंत्र लगे हुए हैं, जिनसे बिजली का उत्पादन हो रहा है। राज्य के 15,667 गांवों में से 14,447 गांवों में बिजली है।

उद्योग और खनिज

उत्तराखंड में चूना पत्थर, राक फास्फेट, डोलोमाइट, मैग्नेसाइट, तांबा, ग्रेफाइट, जिप्सम आदि के भंडार हैं। राज्य में 25294 लघु औद्योगिक इकाइयां स्थापित हैं, जिनमें लगभग 63,599 लोगों को रोज़गार प्राप्त है। इसके अतिरिक्त 20,000 करोड़ रुपये के निवेश वाले 1802 उद्योगों में 5 लाख लोगों को कार्य मिला हुआ है। इस राज्य के अधिकांश उद्योग वन संपदा पर आधारित हैं। राज्य में कुल 54,047 हस्तशिल्प उद्योग क्रियाशील हैं।

औद्योगिक विकास

उत्तराखण्ड का औद्योगिक विकास नाममात्र को ही हुआ है। कुछ औद्योगिक इकाइयाँ देहरादून के पास स्थित हैं। चूना पत्थर की खदानों के विवेकहीन खनन से प्रदूषण के स्तर में बढ़ोतरी के परिणामस्वरूप इस इलाक़े की कई खदाने बन्द होने के कगार पर हैं। ऋषिकेश में दवाइयों की एक बड़ी फ़ैक्ट्री है। दक्षिणी ज़िलों में चीनी की कई मिलें हैं। उत्तराखण्ड में बिजली और कोयले के उत्पादन का कोई मज़बूत आधार नहीं है। नेशनल पावर ग्रिड इसकी माँग पूरी करता है। टिहरी विद्युत परियोजना पूरी हो जाने पर उत्तराखण्ड की विद्युत उत्पादन की स्थिति में व्यापक सुधार होगा।

परिवहन

सडकें

  • उत्तराखण्ड में पक्की सडकों की कुल लंबाई 21,490 किलोमीटर है।
  • लोक निर्माण विभाग द्वारा निर्मित सड़कों की लंबाई 17,772 किमी, स्थानीय निकायों द्वारा बनाई गई सड़कों की लंबाई 3,925 कि.मी. हैं।
  • उत्तराखण्ड राज्य की विभिन्न प्रकार की सड़कें लगभग सभी नगरों को जोड़ती हैं।
  • उत्तराखण्ड राज्य से होकर कोई राष्ट्रीय राजमार्ग नहीं गुज़रता। उत्तर के सीमान्त इलाक़े सड़कों से जुड़े नहीं हैं।
  • पहाड़ों के कच्चे रास्ते ही मुख्यत: गाँवों को नगरों से जोड़ते हैं।
  • ज़्यादातर राजकीय राजमार्ग भारत के अन्य भागों से पर्यटकों को लाने-ले जाने और विभिन्न वस्तुओं की आपूर्ति के लिए प्रयुक्त होते हैं।

रेलवे

रेल पथ उत्तर प्रदेश के मैदानों के विस्तार के रूप में घाटियों के ऊपर तक पाए जाते हैं। इनमें से कोई भी विस्तार राज्य से अंतर्सबंधित नहीं है। उत्तराखंड के प्रमुख रेलवे स्टेशन हैं-

  1. देहरादून
  2. हरिद्वार
  3. रूड़की
  4. कोटद्वार
  5. काशीपुर
  6. हल्द्वानी
  7. उधमसिंह नगर
  8. रामनगर
  9. काठगोदाम
  10. टनकपुर

उड्डयन

देहरादून में एक हवाई अड्डा है। जौली ग्रांट (देहरादून) और पंतनगर (ऊधमसिंह नगर) में हवाई पट्टियाँ हैं। नैनी-सैनी (पिथौरागढ़), गौचर (चमोली) और चिनयालिसौर (उत्तरकाशी) में हवाई पट्टियों को बनाने का कार्य निर्माणाधीन है। 'पवनहंस लि.' ने 'रुद्र प्रयाग' से 'केदारनाथ' तक तीर्थ यात्रियों के लिए हेलीकॉप्टर की सेवा शुरू की है।

शिक्षा

उत्तराखण्ड राज्य में चार विश्वविद्यालय और अनेक संबद्ध महाविद्यालय हैं। मसूरी में भारतीय प्रशासनिक सेवा का प्रशिक्षण केंद्र है। 1950 के दशक से स्कूलों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई और विद्यार्थियों ने हर स्तर पर दाख़िला लिया, जिससे 1991 के 57.27 प्रतिशत की तुलना में 2001 की जनगणना के अनुसार शिक्षा का आंकड़ा बढ़कर 72.28 प्रतिशत हो गया। महिलाओं (60.26 प्रतिशत) की तुलना में पुरुष (84.01 प्रतिशत) अधिक साक्षर हैं। प्राथमिक विद्यालय के स्तर पर शिक्षा का माध्यम हिन्दी है। यहाँ कई ग़ैर सरकारी आवासीय विद्यालय हैं। जहाँ शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी है। माध्यमिक शिक्षा के विद्यार्थियों के लिए हिन्दी और अंग्रेज़ी की पढ़ाई आवश्यक है व विश्वविद्यालय शिक्षा का माध्यम आमतौर पर अंग्रेज़ी रहता है। देहरादून में स्थित विशेष पाठ्यक्रम वाले संस्थानों में फ़ॉरेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट, सर्वे ऑफ़ इंडिया, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ रिमोट सेंसिंग, वाइल्ड लाइफ़ इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया, इंदिरा गांधी नेशनल फ़ॉरेस्ट एकेडेमी और वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ हिमालयन जियॉलॉजी शामिल हैं। सेंट्रल बिल्डिंग इंस्टिट्यूट रूड़की में स्थित है।

एतिहासिक रूप से यह माना जाता है की उत्तराखण्ड वह भूमि है जहाँ पर शास्त्रों और वेदों की रचना की गई थी और महाकाव्य, महाभारत लिखा गया था। ऋषिकेश को व्यापक रूप से विश्व की योग राजधानी माना जाता है। उत्तराखण्ड में बहुत से शैक्षणिक संस्थान हैं। जैसे-

  • रुड़की का भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (पहले रुड़की विश्वविद्यालय)
  • पंतनगर का गोविन्द बल्लभ पंत कृषि एवँ प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय
  • वन्य अनुसंधान संस्थान, देहरादून
  • देहरादून स्थित भारतीय सैन्य अकादमी
  • इक्फ़ाई विश्वविद्यालय
  • भारतीय वानिकी संस्थान
  • पौड़ी स्थित गोविन्द बल्लभ पंत अभियांत्रिकी महाविद्यालय
  • द्वाराहाट स्थित कुमाऊँ अभियांत्रिकी महाविद्यालय।

संस्कृति

उत्तराखण्ड राज्य के अधिकांश त्योहार और अवकाश हिन्दू पंचांग पर आधारित हैं। उत्तराखण्ड के कुछ महत्त्वपूर्ण हिन्दू त्योहारों और अवकाशों में बुराई के प्रतीक रावण पर राम की विजय के उपलक्ष्य में मनाया जाने वाला दशहरा; धन की देवी लक्ष्मी को समर्पित दीपावली; भगवान शिव की आराधना का दिन शिवरात्रि; रंगों का त्योहार होली और भगवान कृष्ण के जन्म के उपलक्ष्य में मनाई जाने वाली जन्माष्टमी शामिल हैं।

अल-हुसैन बिन अली का शहीदी दिवस मुहर्रम; उपवास (रोज़े) रखने का महीना रमज़ान; और धर्म वैधानिक त्योहार ईद राज्य में मनाए जाने वाले मुसलमानों के कुछ प्रमुख त्योहारों में से हैं। बुद्ध पूर्णिमा, महावीर जयंती, गुरु नानक जयंती और क्रिसमस बौद्धों, जैनों, सिक्खों और ईसाईयों के महत्त्वपूर्ण त्योहार हैं, लेकिन हर जाति-धर्म के लोगों द्वारा मनाए जाते हैं। इनके अलावा गाँव-विशेष में मनाए जाने वाले छोटे-छोटे त्योहार भी हैं। राज्य में हर साल सैकड़ों मेले भी लगते हैं।

त्योहार
  • विश्व प्रसिद्ध कुंभ मेला/अर्द्ध कुंभ मेला हरिद्वार में प्रति बारहवें/छठे वर्ष के अंतराल में मनाया जाता है।
  • अन्य प्रमुख मेले/त्योहार हैं-
शिव की मूर्ति, ऋषिकेश जो दिनांक 17 जून 2013 को उत्तराखण्ड में आये भारी जलप्लवन में गंगा में समा गयी।
  1. देवीधुरा मेला (चम्पावत )
  2. पूर्णागिरि मेला (चम्पावत)
  3. नंदा देवी मेला (अल्मोड़ा)
  4. गौचर मेला (चमोली)
  5. वैशाखी (उत्तरकाशी)
  6. माघ मेला (उत्तरकाशी)
  7. उत्तरायणी मेला (बागेश्वर)
  8. विशु मेला (जौनसार बावर)
  9. पीरान कलियार (रूड़की)
  10. नंदा देवी राज जात यात्रा हर बारहवें वर्ष होती है।

पर्यटन स्थल

  • उत्तराखण्ड के प्रमुख स्थल हैं-
मिन्ड्रोलिंग स्तूप, देहरादून

तीर्थस्थल

उत्तराखण्ड में चार प्रमुख तीर्थस्थल हैं-

  1. यमुनोत्री
  2. गंगोत्री
  3. केदारनाथ
  4. बद्रीनाथ।
यमुनोत्री मन्दिर

यमुनोत्री मन्दिर गढ़वाल हिमालय के पश्चिमी क्षेत्र में 3,235 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ की इष्ट देवी यमुना को हिन्दू ग्रन्थों में विशेष महत्व दिया गया है। इनकी मूर्ति काले सगमरमर से बनी है। यमुना नदी समीप के यमुनोत्री हिमनद से निकलती है। मन्दिर में गंधक के सोते का तालाब भी है।

गंगोत्री मन्दिर

गंगोत्री मन्दिर 3,050 मीटर की ऊँचाई पर सुन्दर देवदार और चीड़ के पेड़ों से घिरा है। यहाँ नदी में आधा डूबा हुआ प्राकृतिक पाषाण शिवलिंग है। पुराकथाओं के अनुसार शिव ने यहीं पर बैठकर देवी गंगा को अपनी जटाओं में धारण किया था। भगवान शिव को समर्पित केदारनाथ मन्दिर 3,580 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। पत्थर की स्लेटी पट्टिकाओं से बना यह मन्दिर 1000 साल से भी अधिक पुराना माना जाता है। मन्दिर में मंडप और गर्भगृह हैं। गर्भगृह में शंक्वाकार पाषाण आकृति स्थित है। मन्दिर के द्वार के बाहर नंदी बैल की मूर्ति स्थापित है।

बद्रीनाथ

भगवान विष्णु का घर बद्रीनाथ अलकनंदा नदी के किनारे 3,130 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। जंगली सरसफल (बदरी) के नाम पर इस जगह का नाम बद्री पड़ा। ऐसा कहा जाता है कि काले ग्रेनाइट से बनी विष्णु की प्रतिमा को आदि शंकराचार्य ने यहाँ स्थापित किया था। मन्दिर के समीप ही गंधक के गर्म पानी का सोता है।


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वीथिका

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 2001 की जनगणना के अनुसार
  2. 2.0 2.1 मुख्यपृष्ठ (अंग्रेज़ी) (एच.टी.एम.एल) उत्तराखंड की आधिकारिक वेबसाइट। अभिगमन तिथि: 30 मार्च, 2015।
  3. 3.0 3.1 उत्तराखण्ड का भूगोल (हिन्दी) घौर बटी। अभिगमन तिथि: 2 जून, 201।
  4. जुलाई-सितम्बर
  5. 610 से 678 मिमी.
  6. 1,374 मिमी.
  7. कृषि क्षेत्र का विस्तार ज़रूरी है (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 2जून, 2011।
  8. पर्वतीय कृषि: भूमि की उत्पादकता का कैसे हो अधिक सदुपयोग (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 2जून, 2011।

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