हिन्दू धर्म
हिन्दू धर्म
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विवरण | भारत का सर्वप्रमुख धर्म हिन्दू धर्म है, जिसे इसकी प्राचीनता एवं विशालता के कारण 'सनातन धर्म' भी कहा जाता है। हिन्दू धर्म किसी व्यक्ति विशेष द्वारा स्थापित धर्म नहीं है, बल्कि यह प्राचीन काल से चले आ रहे विभिन्न धर्मों, मतमतांतरों, आस्थाओं एवं विश्वासों का समुच्चय है। |
प्रमुख देवता | शिव, विष्णु, गणेश, कृष्ण, राम, हनुमान, सूर्य आदि |
प्रमुख देवियाँ | दुर्गा, पार्वती, पृथ्वी, महालक्ष्मी, सरस्वती, काली, गायत्री आदि |
दस अवतार | मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि |
धर्म प्रवर्तक और संत | आदि शंकराचार्य, चैतन्य महाप्रभु, दयानंद सरस्वती, निम्बार्काचार्य, स्वामी रामानंद, समर्थ रामदास, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी हरिदास, रामकृष्ण परमहंस, रामानुज, वल्लभाचार्य आदि |
धर्मग्रंथ | 4 वेद (ॠग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद), 13 उपनिषद, 18 पुराण, रामायण, महाभारत, गीता, रामचरितमानस आदि। |
सम्प्रदाय | शैव मत, वैष्णव, शाक्त, आर्य समाज, कबीरपंथ, चैतन्य, दादूपन्थ, द्वैतवाद, निम्बार्क, ब्रह्मसमाज, वल्लभ, सखीभाव आदि |
तीर्थ स्थल | हिन्दू मन्दिर, शक्तिपीठ, ज्योतिर्लिंग |
संबंधित लेख | ॐ, स्वस्तिक, वैदिक धर्म, हिन्दू संस्कार, हिन्दू कर्मकाण्ड, आरती स्तुति स्तोत्र |
अन्य जानकारी | हिन्दू धर्म की परम्पराओं का मूल वेद ही हैं। वैदिक धर्म प्रकृति-पूजक, बहुदेववादी तथा अनुष्ठानपरक धर्म था। |
हिन्दू धर्म के स्रोत
हिन्दू धर्म की परम्पराओं का अध्ययन करने हेतु हज़ारों वर्ष पीछे वैदिक काल पर दृष्टिपात करना होगा। हिन्दू धर्म की परम्पराओं का मूल वेद ही हैं। वैदिक धर्म प्रकृति-पूजक, बहुदेववादी तथा अनुष्ठानपरक धर्म था। यद्यपि उस काल में प्रत्येक भौतिक तत्त्व का अपना विशेष अधिष्ठातृ देवता या देवी की मान्यता प्रचलित थी, परन्तु देवताओं में वरुण, पूषा, मित्र, सविता, सूर्य, अश्विन, उषा, इन्द्र, रुद्र, पर्जन्य, अग्नि, वृहस्पति, सोम आदि प्रमुख थे। इन देवताओं की आराधना यज्ञ तथा मंत्रोच्चारण के माध्यम से की जाती थी। मंदिर तथा मूर्ति पूजा का अभाव था। उपनिषद काल में हिन्दू धर्म के दार्शनिक पक्ष का विकास हुआ। साथ ही एकेश्वरवाद की अवधारणा बलवती हुई। ईश्वर को अजर-अमर, अनादि, सर्वत्रव्यापी कहा गया। इसी समय योग, सांख्य, वेदांत आदि षड दर्शनों का विकास हुआ। निर्गुण तथा सगुण की भी अवधारणाएं उत्पन्न हुई। नौंवीं से चौदहवीं शताब्दी के मध्य विभिन्न पुराणों की रचना हुई। पुराणों में पाँच विषयों (पंच लक्षण) का वर्णन है-
- सर्ग (जगत की सृष्टि),
- प्रतिसर्ग (सृष्टि का विस्तार, लोप एवं पुन: सृष्टि),
- वंश (राजाओं की वंशावली),
- मन्वंतर (भिन्न-भिन्न मनुओं के काल की प्रमुख घटनाएँ) तथा
- वंशानुचरित (अन्य गौरवपूर्ण राजवंशों का विस्तृत विवरण)।
इस प्रकार पुराणों में मध्य युगीन धर्म, ज्ञान-विज्ञान तथा इतिहास का वर्णन मिलता है। पुराणों ने ही हिन्दू धर्म में अवतारवाद की अवधारणा का सूत्रपात किया। इसके अलावा मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा, व्रत आदि इसी काल के देन हैं। पुराणों के पश्चात् भक्तिकाल का आगमन होता है, जिसमें विभिन्न संतों एवं भक्तों ने साकार ईश्वर की आराधना पर ज़ोर दिया तथा जनसेवा, परोपकार और प्राणी मात्र की समानता एवं सेवा को ईश्वर आराधना का ही रूप बताया। फलस्वरूप प्राचीन दुरूह कर्मकांडों के बंधन कुछ ढीले पड़ गये। दक्षिण भारत के अलवार संतों, गुजरात में नरसी मेहता, महाराष्ट्र में तुकाराम, पश्चिम बंगाल में चैतन्य महाप्रभु, उत्तर भारत में तुलसी, कबीर, सूर और गुरु नानक के भक्ति भाव से ओत-प्रोत भजनों ने जनमानस पर अपनी अमिट छाप छोड़ी।