कर्ण को शाप
अपनी कुमार अवास्था से ही कर्ण की रुचि अपने पिता अधिरथ के समान रथ चलाने की बजाय युद्धकला में अधिक थी। कर्ण और उसके पिता अधिरथ आचार्य द्रोणाचार्य से मिले, जो कि उस समय युद्धकला के सर्वश्रेष्ठ आचार्यों में से एक थे। द्रोणाचार्य उस समय कुरु राजकुमारों को शिक्षा दिया करते थे। उन्होने कर्ण को शिक्षा देने से मना कर दिया, क्योंकि कर्ण एक रथ हाँकने वाले का पुत्र था और द्रोणाचार्य केवल क्षत्रियों को ही शिक्षा दिया करते थे।
द्रोणाचार्य की असम्मति के उपरान्त कर्ण ने परशुराम से सम्पर्क किया, जो केवल ब्राह्मणों को ही शिक्षा दिया करते थे। कर्ण ने स्वयं को ब्राह्मण बताकर परशुराम से शिक्षा का आग्रह किया। परशुराम ने कर्ण का आग्रह स्वीकार कर लिया और कर्ण को अपने समान ही युद्धकला और धनुर्विद्या में निष्णात किया। कर्ण को उसके गुरु परशुराम और पृथ्वी माता से शाप मिला था। कर्ण की शिक्षा अपने अंतिम चरण पर थी। एक दोपहर की बात है, गुरु परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रखकर विश्राम कर रहे थे। कुछ देर बाद कहीं से एक बिच्छु आया और कर्ण की दूसरी जंघा पर काट कर घाव बनाने लगा। कर्ण बिल्कुल भी नहीं चाहता था कि उसके गुरु के विश्राम में कोई बाधा उत्पन्न हो। इसीलिए उसने उस बिच्छू को हटाकर दूर नहीं फेंका। वह बिच्छू अपने डंक से कर्ण को भयंकर पीड़ा देता रहा, किन्तु कर्ण ने अपने गुरु के विश्राम में खलल नहीं आने दिया।[1]