कौशल्या

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Disamb2.jpg कौशल्या एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- कौशल्या (बहुविकल्पी)

तथ्य

  • कथावस्तु की दृष्टि से राम काव्य में कौशल्या का अन्य प्रमुख पात्रों की तुलना में अधिक महत्त्व नहीं है। वे दशरथ की अग्रमहिषी एवं राम जैसे आदर्श पुत्र की माता हैं। उनका सर्वप्रथम उल्लेख वाल्मीकि रामायण में पुत्र-प्रेम की आकांक्षिणी के रूप में मिलता है। वाल्मीकि की परम्परा में रचित काव्यों और नाटकों में कौशल्या सर्वत्र अग्रमहिषी के रूप ही चित्रित हैं, केवल आनन्द-रामायण में दशरथ एवं कौशल्या के विवाह का वर्णन विस्तार से हुआ है।
  • गुणभद्रकृत 'उत्तर-पुराण' में कौशल्या की माता का नाम सुबाला तथा पुष्पदत्त के 'पउम चरिउ' में कौशल्या का दूसरा नाम अपराजिता दिया गया है। रामकथा में अवतार के प्रभाव के फलस्वरूप पुराणों में कश्यप और अदिति के दशरथ और कौशल्या के रूप में अवतार लेने का वर्णन हुआ है।
  • परिस्थितिवश कौशल्या जीवनभर दु:खी रहती हैं। अपने वास्तविक अधिकार से वंचित होकर उनका जीवन करुण और दयनीय हो जाता है। अत: उन्हें क्षीणकाया, खिन्नमना, उपवासपरायणा, क्षमाशीला, त्यागशीला, सौम्य, विनीत, गंभीर प्रशांत, विशालहृदया तथा पति-सेवा-परायणा आदर्श महिला के रूप में चित्रित किया गया है। अपने निरपराध पुत्र के वनवास पर वे अपने इन गुणों का और भी अधिक विकास करती हुई देखी जाती हैं। इस अवसर पर अनेक कवियों ने उनके मातृ-हृदय की भूरि-भूरि सराहना की है। इस अन्याय का समाचार सुनकर वाल्मीकि की कौशल्या का संयम और धैर्य टूट जाता है और सांकेतिक शब्दावली का प्रयोग करके वे राम को पिता से विद्रोह करने के लिए प्रेरित करना चाहती हैं।
  • अध्यात्मरामायण में उन्हें अपने अधिकारों के प्रति सचेष्ट तथा राम को वन जाने से रोकते हुए चित्रित करके उनके मन की द्विविधा का वर्णन किया गया है तथा उनके हृदय में प्रेम-भावना और बृद्धि का परस्पर संघर्ष दिखाया गया है परन्तु तुलसीदास ने इस प्रसंग के वर्णन में कौशल्या के चरित्र को बहुत ऊँचा उठा दिया है। उन्होंने बड़ी कुशलता से कौशल्या का अन्तर्द्वन्द्व चित्रित करते हुए कर्तव्य-कर्म और विवेक-बुद्धि की विजय का जो चित्रण किया है, वह अकेला ही तुलसीदास की महत्ता को प्रमाणित करने में सक्षम है। इस प्रसंग के अतिरिक्त अन्यत्र भी तुलसी ने कौशल्या के चरित्र की महनीयता चित्रित की है। भरत को राजमुकुट धारण करने का उपदेश तथा वनयात्रा में भरत-शत्रुघ्न से रथ पर चढ़ने का तर्कपूर्ण अनुरोध उनके हृदय की विशालता, बिना किसी भेदभाव के चारों पुत्रों के प्रति उनके मातृ-हृदय का सहज वात्सल्य तथा सभी अयोध्यावासियों के प्रति हार्दिक ममत्व का प्रमाण देता है।
  • मानस में कौशल्या के चरित्र में उच्च बुद्धिमत्ता का भी चित्रण हुआ है। जब वे चित्रकूट में सीता की माता को विषम परिस्थिति में धैर्य धारण करने को कहती हैं, उनके कथन में एक दार्शनिक दृष्टि के साथ-साथ गहरी आत्मानुभूति के दर्शन होते हैं परन्तु मानस से भिन्न 'गीतावली' में तुलसी दास कृष्ण-काव्य की यशोदा की भाँति कौशल्या को एक स्नेहमयी माता के वात्सल्य-वियोग की करुणामूर्ति के रूप में चित्रित करते हैं। मानस में कौशल्या का चरित्र जितना गम्भीर और धैर्यनिष्ठ है, गीतावली में उतना ही संवेद्य और तरल बन जाता है। जब राम और लक्ष्मण विश्वामित्र के साथ चले जाते हैं, कौशल्या उनके लिए अत्यंत चिन्ताकुल होती हैं। उनकी व्यथा क्रमश: राम-वन-गमन, चित्रकूट से लौटने तथा वनवासी की अवधि समाप्ति के पूर्व के अवसरों पर करुण से करुणतर चित्रित की गयी हैं।
  • आधुनिक युग में कौशल्या के चरित्र का मातृ-पक्ष मानस से कहीं अधिक विस्तारपूर्वक बलदेवप्रसाद मिश्र के 'कोशल-किशोर' में उभरा है, किन्तु वह राम की युवा अवस्था तक की घटनाओं तक ही सीमित रह गया है। मैथिली शरण गुप्त के 'साकेत' में भी कौशल्या का पुत्र-प्रेम स्वाभाविक रूप में चित्रित किया गया है, किन्तु चरित्र-चित्रण की सम्पूर्णता तथा प्रभाव-समाष्टि उसमें नहीं मिलती। उनकी तुलना में साकेतकार ने कैकेयी पर अधिक ध्यान दिया है परन्तु कौशल्या के चरित्र में आदिकवि से प्रारम्भ होकर तुलसीदास के द्वारा जिस आदर्श की परिणति हुई है, वही वस्तुत: लोकमत में प्रतिष्ठित होकर रह गया है।[1]

साहित्य में कौशल्या

  • कौशल्या सरल हृदया माता है। अपने पुत्र का वन-गमन उसके लिए हृदय-विदारक रहा है। यद्यपि वह अपने पुत्र के कर्तव्य-मार्ग में बाधक नहीं बनीं। राम के वनवास जाने की खबर सुनकर वह कहती है-

इदं तु दुःखं यदनर्थकानि में व्रतानि दानानि च संयमाश्च हि ।
तपश्च तप्तं यदपत्य काम्यया सुनिष्फलं बीज मिवोत मूषरे ॥[2]

  • कौशल्या कोमल मातृ हृदया थी । भरत के कारण राम को 14 वर्ष का वनवास मिला, फिर भी उसका स्नेह भाव रामवत ही है । वह भरत में ही राम का स्वरूप पा लेती है और माँ का आदर्श चरित्र उपस्थित करती है, यथा-

खींचा उनको, ले गोद, हृदय लिपटाया,
बोली तुमको पा पुनः राम को पाया ॥[3]

  • माता कौशल्या ने अपने पुत्र को इस प्रकार संस्कारित किया कि विमाता कैकेयी के कुभावों से भी राम विचलित नहीं हुए और सहर्ष वनवासी हुए । कौशल्या श्रीराम को ऐसी ही शिक्षा देती हुई कहती है-

‘जौं केवल पितु आयेसु ताता । तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता ।
जौं पितु मातु कहेउ बन जाना । तौ कानन सत अबध समाना॥ [4]

  • राजा दशरथ के तीन रानियाँ थीं । अतः ऐसी स्थिति में सौतिया अहं पनपना स्वाभाविक है पर कौशल्या सौत को सौत न समझकर बहिन सदृश मानती है । कैकेयी के बारे में वह सुमित्रा से कहती है-

सिथिल सनेहुँ कहै कोसिला सुमित्रा जू सौं,
मैं न लखि सौति, सखी! भगिनी ज्यों सेई हैं॥[5]

इस प्रकार कौशल्या मातृत्व की जीवन्त प्रतिमा है । दया, माया, ममता की मन्दाकिनी है। तप, त्याग, एवं बलिदान की अकथ कथा है।[6]वह राम तथा भरत में भेद नहीं समझती । पति व राम से स्नेह रखती है, पर राम के वन-गमन पर मौन रहकर अपने कर्तव्य का निर्वहन भी करती है । पति की मृत्यु के उपरान्त वह सती होने का प्रस्ताव भी रखती है । उसमें शील है, उदात्तता है, मातृत्व की व्यंजना है तो नारी सुलभ संवेदना भी है।

कथाओं में कौशल्या

दक्षिण कोसलराज ने अपनी पुत्री का विवाह अयोध्या के युवराज दशरथ से सुनिश्चित किया। अचानक एक दिन राजकुमारी कौशल्या राजभवन से अदृश्य हो गयीं। उधर अयोध्या से महाराज अज प्रस्थान कर चुके थे। वे सदल-बल सरयू नदी के मार्ग से नौका द्वारा कोसल की यात्रा कर रहे थें अकस्मात भयानक आँधी आयीं बहुत-सी नौकाएँ डूब गयीं। महाराज ने देखा कि युवराज जिस नौका से चल रहे थे उसका पता नहीं है। वास्तव में रावण ने जब अपने भाग्य पर विचार किया, तक उसे पता चला कि दशरथ और कौशल्या के द्वारा उत्पन्न पुत्र उसका वध करेगा। इसलिये उसने कौशल्या का हरण करके और उन्हें पेटिका में बन्द करके दक्षिण सागर में अपने एक परिचित महामत्स्य को दे दिया था। महामत्स्य पेटिका को अपने मुख में रखता था। अकस्मात दूसरे महामत्स्य ने उस पर आक्रमण किया। इसलिये मत्स्य ने वह पेटिका गंगासागर के किनारे भूमि पर छोड़ दी। भीतर से कौशल्या जी पेटिका खोलकर बाहर आ गयीं। संयोग से दशरथ जी भी बहते हुए वहीं पहुँचे। वहीं उनका कौशल्या जी से साक्षात्कार हुआ। परस्पर परिचय के बाद उन्होंने अग्नि प्रज्वलित करके कौशल्या जी से विवाह कर लिया और अयोध्या लौट आये।

पुत्र राम का जन्म

आरम्भ से ही कौशल्या जी धार्मिक थीं। वे निरन्तर भगवान की पूजा करती थीं, अनेक व्रत रखती थीं और नित्य ब्राह्मणों को दान देती थीं। महाराज दशरथ ने अनेक विवाह किये। सबसे छोटी महारानी कैकेयी ने उन्हें अत्यधिक आकर्षित किया। महर्षि वसिष्ठ के आदेश से श्रृंगी ऋषि आमन्त्रित हुए। पुत्रेष्टि यज्ञ में प्रकट होकर अग्निदेव ने चरू प्रदान किया। चरू का आधा भाग कौशल्या जी को प्राप्त हुआ। पातिव्रत्य, धर्म, साधुसेवा, भगवदाराधना सब एक साथ सफल हुई। भगवान राम ने माता कौशल्या की गोद को विश्व के लिये वन्दनीय बना दिया। भगवान की विश्वमोहिनी मूर्ति के दर्शन से उनके सारे कष्ट परमानन्द में बदल गये।

राजतिलक

'मेरा राम आज युवराज होगा' माता कौशल्या का हृदय यह सोचकर प्रसन्नता से उछल रहा था। उन्होंने पूरी रात भगवान की आराधना में व्यतीत की। प्रात: ब्रह्म महूर्त में उठकर वे भगवानु की पूजा में लग गयीं। पूजा के बाद उन्होंने पुष्पांजलि अर्पित कर भगवान को प्रणाम किया। इसी समय रघुनाथ ने आकर माता के चरणों में मस्तक झुकाया। कौशल्या जी ने श्री राम को उठाकर हृदय से लगाया और कहा- 'बेटा! कुछ कलेऊ तो कर लो। अभिषेक में अभी बहुत विलम्ब होगा।'

वनवास

'मेरा अभिषेक तो हो गया माँ! पिताजी ने मुझे चौदह वर्ष के लिये वन का राज्य दिया है।' श्रीराम ने कहा। 'राम! तुम परिहास तो नहीं कर रहे हो। महाराज तुम्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय मानते हैं। किस अपराध से उन्होंने तुम्हें वन दिया है? मैं तुम्हें आदेश देती हूँ कि तुम वन नहीं जाओंगे, क्योंकि माता पिता से दस गुना बड़ी है; परन्तु यदि इसमें छोटी माता कैकेयी की भी इच्छा सम्मिलित है तो वन का राज्य तुम्हारे लिये सैकड़ों अयोध्या के राज्य से भी बढ़कर है।' माता कौशल्या ने हृदय पर पत्थर रखकर राघवेन्द्र को वन जाने का आदेश दिया। उनके दु:ख का कोई पार नहीं था।

पिता का दुःख

'कौसल्ये! मैं तुम्हारा अपराधी हूँ, अपने पति को क्षमा कर दो।' महाराज दशरथ ने करुण स्वर में कहा। 'मेरे देव मुझे क्षमा करें।' पति के दीन वचन सुनकर कौशल्या जी उनके चरणों में गिर पड़ीं। 'स्वामी दीनतापूर्वक जिस स्त्री से प्रार्थना करता है, उस स्त्री के धर्म का नाश होता है। पति ही स्त्री के लिये लोक और परलोक का एकमात्र स्वामी है।' इस तरह कौशल्या जी ने महाराज को अनेक प्रकार से सान्त्वना दी। श्रीराम के वियोग में महाराज दशरथ ने शरीर त्याग दिया। माता कौशल्या सती होना चाहती थीं, किन्तु श्री भरत के स्नेह ने उन्हें रोक दिया। चौदह वर्ष का समय एक-एक पल युग की भाँति बीत गया। श्रीराम आये। आज भी वह माँ के लिये शिशु ही तो थे।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सहायक ग्रन्थ- रामकथा: डॉ. कामिल बुल्के तथा तुलसीदास: डॉ. माताप्रसाद गुप्त, हिन्दी परिषद, विश्वविद्यालय, इलाहाबाद।
  2. वाल्मीकि रामायण, उद्धृत भारतीय संस्कृति, डॉ. देवराज, पृ. 31
  3. साकेत- संत डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र, तृतीय सर्ग, पृ 51
  4. रामचरित मानस, अयोध्याकांड 56/1-2
  5. कवितावली, तुलसीदास पृ. 2-3
  6. कविवर मैथिलीशरण गुप्त और साकेत, डॉ. ब्रजमोहन शर्मा, पृ. 116

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