सुदामा

सुदामा एक दरिद्र ब्राह्मण थे, जिन्होंने भगवान श्रीकृष्ण और बलराम के साथ संदीपन ऋषि के आश्रम में शिक्षा पाई थी। विवाह के बाद से ही सुदामा प्राय: नित्य ही श्रीकृष्ण की उदारता और उनसे अपनी मित्रता की पत्नी सुशीला से चर्चा किया करते थे। जन्म से संतोषी स्वभाव के सुदामा किसी से कुछ माँगते नहीं थे। जो कुछ बिना माँगे मिल जाय, उसी को भगवान को अर्पण करके अपना तथा पत्नी का जीवन निर्वाह करते थे। प्राय: पति-पत्नी को उपवास ही करना पड़ता था। उनके दिन बड़ी ही दरिद्रता में व्यतीत होते थे।
कृष्ण से भेंट
भगवान कृष्ण जब अवन्ती में महर्षि संदीपन के यहाँ शिक्षा प्राप्त करने के लिये गये थे, तब सुदामा भी वहीं पढ़ते थे। वहाँ कृष्ण से सुदामा की भेंट हुई, और बाद में उनमें गहरी मित्रता हो गयी। कृष्ण तो बहुत थोड़े दिनों में अपनी शिक्षा पूर्ण करके चले गये। जब बाद में सुदामा जी की शिक्षा पूर्ण हुई, तब गुरुदेव की आज्ञा लेकर वे भी अपनी जन्मभूमि को लौट गये और विवाह करके गृहस्थाश्रम में रहने लगे।
द्वारका आगमन
दरिद्रता तो जैसे सुदामा जी की चिरसंगिनी ही थी। एक टूटी झोपड़ी, दो-चार पात्र और लज्जा ढकने के लिये कुछ मैले और चिथड़े वस्त्र, सुदामाजी की कुल इतनी ही गृहस्थी थी। सुदामाजी प्राय: नित्य ही भगवान श्रीकृष्ण की उदारता और उनसे अपनी मित्रता की पत्नी से चर्चा किया करते थे। एक दिन डरते-डरते सुदामा की पत्नी ने उनसे कहा- "स्वामी! ब्राह्मणों के परम भक्त साक्षात लक्ष्मीपति श्रीकृष्णचन्द्र आपके मित्र हैं। आप एक बार उनके पास जायँ। आप दरिद्रता के कारण अपार कष्ट पा रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण आपको अवश्य ही प्रचुर धन देंगे।" ब्राह्मणी के आग्रह को स्वीकार कर श्रीकृष्ण दर्शन की लालसा मन में सँजोये हुए सुदामा कई दिनों की यात्रा करके द्वारका पहुँचे। चिथड़े लपेटे कंगाल ब्राह्मण को देखकर द्वारपाल को आश्चर्य हुआ। ब्राह्मण जानकर उसने सुदामा को प्रणाम किया। जब सुदामा ने अपने-आपको भगवान का मित्र बतलाया, तब वह आश्चर्यचकित रह गया। नियमानुसार सुदामा को द्वार पर ठहराकर द्वारपाल भीतर आदेश लेने गया। द्वारपाल श्रद्धापूर्वक प्रभु को साष्टांग प्रणाम करके बोला- "प्रभो! चिथड़े लपेटे द्वार पर एक अत्यन्त दीन और दुर्बल ब्राह्मण खड़ा है। वह अपने को प्रभु का मित्र कहता है और अपना नाम 'सुदामा' बतलाता है।"
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