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विवाह

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विवाह

विवाह मानव समाज की अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रथा या संस्था है। यह समाज का निर्माण करने वाली सबसे छोटी इकाई परिवार का मूल है। इसे मानव जाति के सातत्य को बनाए रखने का प्रधान साधन माना जाता है। इस शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से दो अर्थों में होता है। इसका पहला अर्थ वह क्रिया, संस्कार, विधि या पद्धति है जिससे पति-पत्नी के स्थायी संबंध का निर्माण होता है। प्राचीन एवं मध्यकाल के धर्मशास्त्री तथा वर्तमान युग के समाजशास्त्री समाज द्वारा स्वीकार की गई 'परिवार की स्थापना करने वाली किसी भी पद्धति' को विवाह मानते हैं। मनुस्मृति के टीकाकार मेधातिथि[1] के शब्दों में 'विवाह एक निश्चित पद्धति से किया जाने वाला, अनेक विधियों से संपन्न होने वाला तथा कन्या को पत्नी बनाने वाला संस्कार है।' रघुनंदन के मतानुसार 'उस विधि को विवाह कहते हैं जिससे कोई स्त्री (किसी की) पत्नी बनती है।' वैस्टरमार्क ने इसे एक या अधिक पुरुषों का एक या अधिक स्त्रियों के साथ ऐसा संबंध बताया है, जो इस संबंध को करने वाले दोनों पक्षों को तथा उनकी संतान को कुछ अधिकार एवं कर्तव्य प्रदान करता है।

विवाह का दूसरा अर्थ समाज में प्रचलित एवं स्वीकृत विधियों द्वारा स्थापित किया जाने वाला दांपत्य संबंध और पारिवारिक जीवन भी होता है। इस संबंध से पति पत्नी को अनेक प्रकार के अधिकार और कर्तव्य प्राप्त होते हैं। इससे जहाँ एक ओर समाज पति पत्नी को कामसुख के उपभोग का अधिकार देता है, वहाँ दूसरी ओर पति पत्नी तथा संतान के पालन एवं भरणपोषण के लिए बाध्य करता है। संस्कृत में 'पति' का शब्दार्थ है पालन करने वाला तथा 'भार्या' का अर्थ है भरणपोषण की जाने योग्य नारी। पति के संतान और बच्चों पर कुछ अधिकार माने जाते हैं। विवाह प्राय: समाज में नवजात प्राणियों की स्थिति का निर्धारण करता है। संपत्ति का उत्तराधिकार अधिकांश समाजों में वैध विवाहों से उत्पन्न संतान को ही दिया जाता है।

विवाह का उद्गम

मानव समाज में विवाह की संस्था के प्रादुर्भाव के बारे में 19वीं शताब्दी में वेखोफन (1815-80 ई.), मोर्गन (1818-81 ई.) तथा मैकलीनान (1827-81) ने विभिन्न प्रमाणों के आधार पर इस मत का प्रतिपादन किया था कि मानव समाज की आदिम अवस्था में विवाह का कोई बंधन नहीं था, सब नर-नारियों को यथेच्छ कामसुख का अधिकार था। महाभारत [2] में पांडु ने अपनी पत्नी कुंती को नियोग के लिए प्रेरित करते हुए कहा है कि पुराने जमाने में विवाह की कोई प्रथा न थी, स्त्री पुरुषों को यौन संबंध करने की पूरी स्वतंत्रता थी। कहा जाता है, भारत में श्वेतकेतु ने सर्वप्रथम विवाह की मर्यादा स्थापित की। चीन, मिस्र और यूनान के प्राचीन साहित्य में भी कुछ ऐसे उल्लेख मिलते हैं। इनके आधार पर लार्ड एवबरी, फिसोन, हाविट, टेलर, स्पेंसर, जिलनकोव लेवस्की, लिय्यर्ट और शुर्त्स आदि पश्चिमी विद्वानों ने विवाह की आदिम दशा कामचार (प्रामिसकुइटी) की अवस्था मानी। क्रोपाटकिन व्लाख और व्राफाल्ट ने प्रतिपादित किया कि प्रारंभिक कामचार की दशा के बाद बहुभार्यता (पोलीजिनी) या अनेक पत्नियाँ रखने की प्रथा विकसित हुई और इसके बाद अंत में एक ही नारी के साथ पाणिग्रहण करने (मोनोगेमी) का नियम प्रचलित हुआ।

किंतु चार्ल्स डार्विन ने प्राणिशास्त्र के आधार पर विवाह के आदिम रूप की इस कल्पना का प्रबल खंडन किया, वैस्टरमार्क, लौंग ग्रास तथा क्राले प्रभृति समाजशास्त्रियों ने इस मत की पुष्टि की। प्रसिद्ध समाजशास्त्री रिर्क्ख ने लिखा है कि हमारे पास इस कल्पना का कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है कि भूतकाल में कभी कामचार की सामान्य दशा प्रचलित थी। विवाह की संस्था मानव समाज में जीवशास्त्रीय आवश्यकताओं से उत्पन्न हुई है। इसका मूल कारण अपनी जाति को सुरक्षित बनाए रखने की चिंता है। यदि पुरुष यौन संबंध के बाद पृथक् हो जाए, गर्भावस्था में पत्नी की देखभाल न की जाए, संतान उत्पन्न होने पर उसके समर्थ एवं बड़ा होने तक उसका पोषण न किया जाए तो मानव जाति का अवश्यमेव उन्मूलन हो जाएगा। अत: आत्मसंरक्षण की दृष्टि से विवाह की संस्था की उत्पत्ति हुई है। यह केवल मानव समाज में ही नहीं, अपितु मनुष्य के पूर्वज समझे जाने वाले गोरिल्ला, चिंपाजी आदि में भी पाई जाती हैं। अत: कामचार से विवाह के प्रादुर्भाव का मत अप्रामाणिक और अमान्य है।

विवाह के विभिन्न पक्ष

वैयक्तिक दृष्टि से विवाह पति-पत्नी की मैत्री और साझेदारी है। दोनों के सुख, विकास और पूर्णता के लिए आवश्यक सेवा, सहयोग, प्रेम और स्वार्थत्याग के अनेक गुणों की शिक्षा वैवाहिक जीवन से मिलती है। नर-नारी की अनेक आकांक्षाएँ विवाह एवं संतान प्राप्ति द्वारा पूर्ण होती हैं। उन्हें यह संतोष होता है कि उनके न रहने पर भी संतान उनका नाम और कुल की परंपरा अक्षुण्ण रखेगी, उनकी संपत्ति की उत्तराधिकारिणी बनेगी तथा वृद्धावस्था में उन्हें अवलंब देगी। हिंदू समाज में वैदिक युग से यह विश्वास प्रचलित है कि पत्नी मनुष्य का आधा अंश है, मनुष्य तब तक अधूरा रहता है, जब तक वह पत्नी प्राप्त करके संतान नहीं उत्पन्न कर लेता [3]। पुरुष प्रकृति के बिना और शिव शक्ति के बिना अधूरा है।

धार्मिक पक्ष

विवाह एक धार्मिक संबंध है। प्राचीन यूनान, रोम, भारत आदि सभी सभ्य देशों में विवाह को धार्मिक बंधन एवं कर्तव्य समझा जाता था। वैदिक युग में यज्ञ करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य था, किंतु यज्ञ पत्नी के बिना पूर्ण नहीं हो सकता, अत: विवाह सबके लिए धार्मिक दृष्टि से आवश्यक था। 'पत्नी' शब्द का अर्थ ही यज्ञ में साथ बैठने वाली स्त्री है। श्री राम का अश्वमेध यज्ञ पत्नी के बिना पूरा नहीं हो सका था, अत: उन्हें सीता की प्रतिमा स्थापित करनी पड़ी। याज्ञवल्क्य[4] ने एक पत्नी के मरने पर यज्ञकार्य चलाने के लिए फौरन दूसरी पत्नी के लाने का आदेश दिया है। पितरों की आत्माओं का उद्धार पुत्रों के पिंडदान और तर्पण से ही होता है, इस धार्मिक विश्वास ने भी विवाह को हिंदू समाज में धार्मिक कर्तव्य बताया है। रोमनों का भी यह विश्वास था कि परलोक के मृत पूर्वजों का सुखी रहना इस बात पर अवलंबित था कि उनका मृतक संस्कार यथाविधि हो तथा उनकी आत्मा की शांति के लिए उन्हें अपने वंशजों की प्रार्थनाएँ, भोज और भेंटें यथासमय मिलती रहें। यहूदियों की धर्मसंहिता के अनुसार विवाह से बचने वाला व्यक्ति उनके धर्मग्रंथ के आदेशों का उल्लंघन करने के कारण हत्यारे जैसा अपराधी माना जाता था। विवाह का धार्मिक महत्व होने से ही अधिकांश समाजों में विवाह की विधि एक धार्मिक संस्कार मानी जाती रही है।

मई, 1955 से लागू होने वाले 'हिंदू विवाह क़ानून' से पहले हिंदू समाज में धार्मिक संस्कार से संपन्न होने वाला विवाह अविच्छेद्य था। रोमन कैथोलिक चर्च इसे अब तक ऐसा धार्मिक बंधन समझता है। किंतु अब औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न होने वाले परिवर्तनों से तथा धार्मिक विश्वासों में आस्था शिथिल होने से विवाह के धार्मिक पक्ष का महत्व कम होने लगा है।

आर्थिक पक्ष

प्रसूति के समय में तथा उसके बाद कुछ काल तक कार्यक्षम न होने के कारण पत्नी को पति के अवलंब की आवश्यकता होती है, इस कारण दोनों में श्रमविभाजन होता है, पत्नी बच्चों के लालन पालन और घर के काम को सँभालती है और पति पत्नी तथा संतान के भरणपोषण का दायित्व लेता है। 18वीं शताब्दी के अंत में होने वाली औद्योगिक क्रांति से पहले तक विवाह द्वारा उत्पन्न होने वाली परिवार आर्थिक उत्पादन का केंद्र था; कृषक अथवा क़ारीगर अपने घर में रहता हुआ अन्न वस्त्रादि का उत्पादन करता था; परिवार के सब सदस्य उसे इस कार्य में सहायता देते थे। घरेलू आवश्यकता की लगभग सभी वस्तुओं का उत्पादन घर में ही परिवार के सब सदस्यों द्वारा हो जाने के कारण परिवार आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी इकाई था। किंतु कारखानों में वस्त्र आदि का निर्माण होने से उत्पादन का केंद्र घर नहीं, मिलें बन गईं। मिलों द्वारा प्रभूत मात्रा में तैयार किए गए माल ने घर में इनके उत्पादन को अनावश्यक बना दिया। विवाह एवं परिवार की संस्था से उसके कुछ आर्थिक कार्य छिन गए, स्त्रियाँ कारखानों आदि में काम करने के कारण आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी हो गईं, इससे उनकी स्थिति में कुछ अंतर आने लगा है। फिर भी, पत्नी और बच्चों के पालनपोषण के आर्थिक व्यय को वहन करने का उत्तरदायित्व अभी तक प्रधान रूप से पति का माना जाता है। पति द्वारा उपार्जित धन पर उसकी पत्नी और वैध पुत्रों का ही अधिकार स्वीकार किया जाता है।

विधिक पक्ष

विवाह का एक क़ानूनी या विधिक पक्ष भी है। परिणय सहवास मात्र नहीं है। किसी भी मानव समाज में नर-नारी को उस समय तक दांपत्य जीवन बिताने और संतान उत्पन्न करने का अधिकार नहीं दिया जाता, जब तक इसके लिए समाज की स्वीकृति न हो। यह स्वीकृति धार्मिक कर्मकांड को अथवा क़ानून द्वारा निश्चित विधियों को पूरा करने से तथा विवाह से उत्पन्न होने वाले दायित्वों को स्वीकार करने से प्राप्त होती है। अनेक आधुनिक समाजों में विवाह को वर-वधू की सहमति से होने वाला विशुद्ध क़ानूनी अनुबंध समझा जाता है। किंतु यह स्मरण रखना चाहिए कि यह अन्य सभी प्रकार के अनुबंधों या संविदाओं से भिन्न है क्योंकि उनमें अनुबंध करने वाले व्यक्ति इसकी शर्तें तय करते हैं, किंतु विवाह के कर्तव्य और दायित्व वर-वधू की इच्छा पर अवलंबित नहीं हैं; वे समाज की रूढ़ि, परंपरा और क़ानून द्वारा निश्चित होते हैं।

सामाजिक पक्ष

विवाह का सामाजिक और नैतिक पक्ष भी महत्त्वपूर्ण है। विवाह से उत्पन्न होने वाली संतति परिवार में रहते हुए ही समुचित विकास और प्रशिक्षण प्राप्त करके समाज का उपयोगी अंग बनती है, बालक को किसी समाज के आदर्शों के अनुरूप ढालने का तथा उसके चरित्र निर्माण का प्रधान साधन परिवार है। यद्यपि आजकल शिशु-शालाएँ, बालोद्यान, स्कूल और राज्य बच्चों के पालन, शिक्षण और सामाजीकरण के कुछ कार्य अपने ऊपर ले रहे हैं, तथापि यह निर्विवाद है कि बालक का समुचित विकास परिवार में ही संभव है। प्रत्येक समाज विवाह द्वारा मनुष्य की उद्दाम एवं उच्छंखल यौन भावनाओं पर अंकुश लगाकर उसे नियंत्रित करता है और समाज में नैतिकता की रक्षा करता है।

किसी भी समाज में मनुष्य विवाह करने के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र नहीं है। उसे इस विषय में कई प्रकार के नियमों का पालन करना पड़ता है। ये नियम प्रधान रूप से निम्नलिखित बातों के संबंध में होते हैं-

  1. वर-वधू के चुनाव के नियम
  2. पत्नी प्राप्त करने के नियम
  3. विवाह संस्कार की विधियाँ
  4. विवाह के विभिन्न रूप
  5. विवाह की अवधि के नियम।

वर-वधू चुनने के नियम

लगभग सभी समाजों में वधू चुनने के संबंध में दो प्रकार के नियम होते हैं। पहले प्रकार के नियम अंतर्विवाह विषयक (एंडोगेमस) होते हैं। इनके अनुसार एक विशिष्ट वर्ग के व्यक्तियों को उसी वर्ग के अंदर रहने वाले व्यक्तियों में से ही वधू को चुनना पड़ता है। वे उस वर्ग से बाहर के किसी व्यक्ति के साथ विवाह नहीं कर सकते। दूसरे प्रकार के बहिर्विवाही नियमों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को एक विशिष्ट समूह से बाहर के व्यक्तियों के साथ ही, विवाह करना पड़ता है। ये दोनों नियम ऊपर से परस्पर विरोधी होते हुए भी वास्तव में ऐसे नहीं हैं, क्योंकि इनका संबंध विभिन्न प्रकार के समूहों से होता है। इन्हें वृत्तों के उदाहरण से भली भाँति समझा जा सकता है। प्रत्येक समाज में एक विशाल बाहरी वृत्त होता है। इस वृत्त से बाहर किसी व्यक्ति के साथ वैवाहिक संबंध वर्जित होता है, किंतु इस बड़े वृत्त के भीतर अनेक छोटे छोटे समूहों के अनेक वृत्त होते हैं, प्रत्येक व्यक्ति को इस छोटे वृत्त के समूह के बाहर, किंतु बड़े वृत्त के भीतर ही विद्यमान किसी अन्य समूह के व्यक्ति के साथ विवाह करना पड़ता है। हिंदू समाज में इस प्रकार का विशाल वृत्त जाति का है और छोटे वृत्त विभिन्न गोत्रों के हैं। सामान्य रूप से इस शताब्दी के आरंभ तक प्रत्येक हिंदू को अपनी जाति के भीतर, किंतु गोत्र से बाहर विवाह करना पड़ता था। वह अपनी जाति से बाहर और गोत्र के भीतर विवाह नहीं कर सकता था।

पत्नी प्राप्ति की विधियाँ

अंतर्विवाह और बहिर्विवाह के नियमों का पालन करते हुए वधू को प्राप्त करने की विधियों के संबंध में मानव समाज में बड़ा वैविध्य दृष्टिगोचर होता है। भार्याप्राप्ति की विभिन्न विधियों को अपहरण, क्रय और सहमति के तीन बड़े वर्गों में बाँटा जा सकता है।

अपहरण विधि

अपहरण की विधि का तात्पर्य पत्नी की तथा उसके संबंधियों की इच्छा के बिना उसपर बलपूर्वक अधिकार करना है। इसे भारतीय धर्मशास्त्र में 'राक्षस और पैशाच विवाहों' का नाम दिया गया है। यह आज तक कई वन्य जातियों में पाई जाती है। उड़ीसा की भुइयाँ जनजाति के बारे में कहा जाता है कि यदि किसी युवक का युवती से प्रेम हो, किंतु युवती अथवा उसके माता पिता उस विवाह के लिए सहमत न हों तो युवक अपनी मित्रमंडली की सहायता से अपनी प्रेमिका का अपहरण कर लेता है और इससे प्राय: भीषण लड़ाइयाँ होती हैं। संथाल, मुंडा, भूमिज, गोंड, भील और नागा आदि आरण्यक जातियों में यह प्रथा पाई जाती है। अन्य देशों और जातियों में भी इसका प्रचलन मिलता है।

क्रय या सेवा विवाह

पत्नी प्राप्ति का दूसरा साधन क्रय विवाह अर्थात्‌ पैसा देकर लड़की को ख़रीदना है। हिंदू शास्त्रों की परिभाषा के अनुसार इसे 'आसुर विवाह' कहा जाता है। भारत की संथाल, हो, ओराँव, खड़िया, गोंड, भील आदि जातियों में कन्या के माता पिता को कन्याशुल्क[5] देकर पत्नी प्राप्त करने की परिपाटी है। हिंदू समाज के उच्च वर्ग में लड़कों का महत्व होने से उनके माता-पिता कन्या के माता-पिता से दहेज़ रूप में धन प्राप्त करते हैं, किंतु निम्न वर्ग में वन्य जातियों में कन्या का आर्थिक महत्व होने के कारण कन्या का पिता वर से अथवा वर के माता-पिता से कन्या देने के बदले में धनराशि प्राप्त करता है। यदि वर धनराशि देने में असमर्थ होता है तो वह श्वसुर के यहाँ सेवा करके कन्याशुल्क प्रदान करता है। गोंडों और बैगा लोगों में श्वसुर के यहाँ इस प्रकार तीन से पाँच वर्ष तक नौकरी तथा कड़ी मेहनत करने के बाद पत्नी प्राप्त होती है। इसे 'सेवा विवाह' भी कहा जाता है।

माता-पिता की सहमति से

पत्नी-प्राप्ति का तीसरा साधन वर-वधू के माता-पिता की सहमति से व्यवस्थित किया जाने वाला विवाह है। इस शताब्दी के आरंभ तक हिंदू समाज में बाल विवाह की प्रथा प्रचलित होने के कारण सभी विवाह इसी प्रकार के होते थे, अब भी यद्यपि शिक्षा के प्रसार तथा आर्थिक स्वावलंबन के कारण वर-वधू की सहमति से होने वाले 'प्रणय अथवा गंधर्व विवाहों' की संख्या बढ़ रही है, तथापि अधिकतर विवाह अब भी माता-पिता की सहमति से होते हैं।

पत्नी-प्राप्ति के उपर्युक्त साधन आधुनिक समाजशास्त्रीय विद्वानों के वर्गीकरण के आधार पर हैं। प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रकारों ने इन्हीं को 'ब्राह्म', 'दैव', 'आर्ष', 'प्रजापत्य', 'आसुर', 'गांधर्व', 'राक्षस' और 'पैशाच' नामक आठ प्रकार के विवाहों का नाम दिया था। इनमें से पहले चार प्रकार के विवाह प्रशस्त तथा धर्मानुकूल समझे जाते थे। ये सब विवाह माता-पिता की सहमति से किए जाने वाले उपर्युक्त विवाह के अंतर्गत हैं। धार्मिक विधि के साथ संपन्न होने वाले सभी विवाहों में कन्या को वस्त्राभूषण से अलंकृत करके उसका दान किया जाता था। किंतु पिछले चार विवाहों में कन्या का दान नहीं होता, वह मूल्य से या प्रेम से या बलपूर्वक ली जाती है।

  • आसुर विवाह उपर्युक्त क्रय विवाह का दूसरा रूप है। इसमें वर कन्या के पिता को कुछ धनराशि देकर उसे प्राप्त करता है। इसका प्रसिद्ध उदाहरण पांडु के साथ माद्री का विवाह है।
  • गांधर्व विवाह वर और वधू के पारस्परिक प्रेम और सहमति के कारण होता है। इसका प्रसिद्धतम प्राचीन उदाहरण दुष्यंत और शकुंतला का विवाह था।
  • राक्षस विवाह में वर कन्यापक्ष के संबंधियों को मारकर या घायल करके रोती चीखती कन्या को अपने घर ले आता था। यह प्रथा क्षत्रियों में प्रचलित थी। इसका प्रसिद्ध उदाहरण श्रीकृष्ण द्वारा रुक्मिणी का तथा अर्जुन द्वारा सुभद्रा का हरण है।
  • पैशाच विवाह में सोई हुई, शराब आदि पीने से उन्मत्त स्त्री से एकांत में संबंध स्थापित करके विवाह किया जाता था। मनु ने[6] इसकी निंदा करते हुए इसे सबसे अधिक पापपूर्ण और अधर्म विवाह कहा है।

विवाह के विभिन्न रूप

बहुर्भायता, बहुभर्तृता, एक विवाह, यही-पति या पत्नी की संख्या के आधार पर विवाह के तीन रूप माने जाते हैं। इसके अतिरिक्त भी कई प्रकार के विवाह होते हैं, जो निम्नलिखित हैं-

  1. अंतर्विवाह
  2. बहिर्विवाह
  3. बहुभार्यता विवाह
  4. एकपत्नीत्व विवाह
  5. बहुभर्तृता विवाह
  6. बाल विवाह
  7. विधवा विवाह

वैवाहिक विधियाँ

लगभग सभी समाजों में विवाह का संस्कार कुछ विशिष्ट विधियों के साथ संपन्न किया जाता है। यह नर-नारी के पति-पत्नी बनने की घोषणा करता है, संबंधियों को संस्कार के समारोह में बुलाकर उन्हें इस नवीन दांपत्य संबंध का साक्षी बताया जाता है, धार्मिक विधियों द्वारा उसे क़ानूनी मान्यता और सामाजिक सहमति प्रदान की जाती है। वैवाहिक विधियों का प्रधान उद्देश्य नवीन संबंध का विज्ञापन करना, इसे सुखमय बनाना तथा नाना प्रकार के अनिष्टों से इसकी रक्षा करना है। विवाह संस्कार की विधियों में विस्मयावह वैविध्य है। किंतु इन्हें चार बड़े वर्गों में विभक्त किया जा सकता है।

पहले वर्ग में वर वधू की स्थिति में आनेवाले परिवर्तन को सूचित करने वाली विधियाँ हैं। विवाह में कन्यादान कन्या के पिता से पति के नियंत्रण में जाने की स्थिति को द्योतित करता है। इंग्लैंड, पैलेस्टाइन, जावा, चीन में वधू को नए घर की देहली में प्रवेश के समय उठाकर ले जाना वधू द्वारा घर के परिवर्तन को महत्त्वपूर्ण बनाना है। स्काटलैंड में वधू के पीछे पुराना जूता यह सूचित करने के लिए फेंका जाता है कि अब पिता का उस पर कोई अधिकार नहीं रहा।

दूसरे वर्ग की विधियों का उद्देश्य दुष्प्रभावों को दूर करना है। यूरोप और अफ्रीका में विवाह के समय दुष्टात्माओं को मार भगाने के लिए बाण फेंके जाते हैं और बंदूकें छोड़ी जाती हैं। दुष्टात्माओं का निवासस्थान अंधकारपूर्ण स्थान होते हैं और विवाह में अग्नि के प्रयोग से इनका विद्रावण किया जाता है। विवाह के समय वर द्वारा तलवार आदि का धारण, इंग्लैंड में वधू द्वारा दुष्टात्माओं को भगाने में समर्थ समझी जाने वाली घोड़े की नाल ले जाने की विधि का कारण भी यही समझा जाता है।

तीसरे वर्ग में उर्वरता की प्रतीक और संतान समृद्धि की कामना को सूचित करने वाली विधियाँ आती हैं। भारत, चीन, मलाया में वधू पर चावल, अनाज तथा फल डालने की विधियाँ प्रचलित हैं। जिस प्रकार अन्न का एक दाना बीसियों नए दानें पैदा करता है, उसी प्रकार वधू से प्रचुर संख्या में संतान उत्पन्न करने की आशा रखी जाती है। स्लाव देशों में वधू की गोद में इसी उद्देश्य से लड़का बैठाया जाता है।

चौथे वर्ग की विधियाँ वर वधू की एकता और अभिन्नता को सूचित करती हैं। दक्षिणी सेलीबीज में वरवधू के वस्त्रों को सीकर उन पर एक कपड़ा डाल दिया जाता है। भारत और ईरान में प्रचलित ग्रंथिबंधन की पद्धति का भी यही उद्देश्य है।

विवाह की अवधि तथा तलाक

इस विषय में मानव समाज के विभिन्न भागों में बड़ा वैविध्य दृष्टिगोचर होता है। वेस्टरमार्क के मतानुसार सभ्यता के निम्न स्तर में रहने वाली, आखेट तथा आरंभिक कृषि से जीवनयापन करने वाली, श्रीलंका की बेद्दा तथा अंडमान आदिवासी जातियों में विवाह के बाद पति-पत्नी मृत्यु पर्यत इकट्ठा रहते हैं और इनमें तलाक नहीं होता। जिन समाजों में विवाह को धार्मिक संस्कार माना जाता है, उनमें प्राय: विवाह अविच्छेद्य संबंध माना जाता है। हिंदू एवं रोमन कैथोलिक ईसाई समाज इसके सुंदर उदाहरण है। किंतु विवाह विच्छेद या तलाक के नियमों के संबंध में अत्यधिक भिन्नता होने पर भी कुछ मौलिक सिद्धांतों में समानता है। विवाह मुख्य रूप से संतानप्राप्ति एवं दांपत्य संबंध के लिए किया जाता है, किंतु यदि किसी विवाह में ये प्राप्त न हों तो दांपत्य जीवन को नारकीय या विफल बनाने की अपेक्षा विवाह विच्छेद की अनुमति दी जानी चाहिए। इस व्यवस्था का दुरुपयोग न हो, इस दृष्टि से तलाक का अधिकार अनेक प्रतिबंधों के साथ विशेष अवस्था में ही दिया जाता है। तलाक का मुख्य आधार व्यभिचार है क्योंकि यह वैवाहिक जीवन के मूल पर ही कुठाराघात करने वाला है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य कारण भी है।

विवाह का भविष्य

प्लेटो के समय से विचारक विवाह-प्रथा की समाप्ति की तथा राज्य द्वारा बच्चों के पालन की कल्पना कर रहे हैं। वर्तमान समय के औद्योगिक एवं वैज्ञानिक परिवर्तनों से तथा पश्चिमी देशों में तलाकों की बढ़ती हुई भयावह संख्या के आधार पर विवाह की संस्था के लोप की भविष्यवाणी करने वालों की कमी नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस समय विवाह के परंपरागत स्वरूपों में कई कारणों से बड़े परिवर्तन आ रहे हैं। विवाह को धार्मिक बंधन के स्थान पर क़ानूनी बंधन तथा पति-पत्नी का निजी मामला मानने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। औद्योगिक क्रांति और शिक्षा के प्रसार से स्त्रियाँ आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी बन रही हैं। पहले उनके सुखमय जीवनयापन का एकमात्र साधन विवाह था, अब ऐसी स्थिति नहीं रही। विवाह और तलाक के नवीन क़ानून दांपत्य अधिकारों में नर-नारी के अधिकारों को समान बना रहे हैं। धर्म के प्रति आस्था में शिथिलता और गर्भनिरोध के साधनों के आविष्कार ने विवाह विषयक पुरानी मान्यताओं को, प्राग्वैवाहिक सतीत्व और पवित्रता को गहरा धक्का पहुंचाया है। किंतु ये सब परिवर्तन होते हुए भी भविष्य में विवाह प्रथा के बने रहने का प्रबल कारण यह है कि इससे कुछ ऐसे प्रयोजन पूरे होते हैं, जो किसी अन्य साधन या संस्था से नहीं हो सकते। पहला प्रयोजन वंश वृद्धि का है। यद्यपि विज्ञान ने कृत्रिम गर्भाधान का आविष्कार किया है किंतु कृत्रिम रूप से शिशुओं का प्रयोगशालाओं में उत्पादन और विकास संभव प्रतीत नहीं होता। दूसरा प्रयोजन संतान का पालन है, राज्य और समाज शिशुशालाओं और बालोद्यानों का कितना ही विकास कर ले, उनमें इनके सर्वांगीण समुचित विकास की वैसी व्यवस्था संभव नहीं, जैसी विवाह एवं परिवार की संस्था में होती है। तीसरा प्रयोजन सच्चे दांपत्य प्रेम और सुख प्राप्ति का है। यह भी विवाह के अतिरिक्त किसी अन्य साधन से संभव नहीं। इन प्रयोजनों की पूर्ति के लिए भविष्य में विवाह एक महत्त्वपूर्ण संस्था बनी रहेगी, भले ही उसमें कुछ न कुछ परिवर्तन होते रहें।[7][8]

हिन्दू विवाह अधिनियम 1955

स्मृति काल से ही हिंदुओं में विवाह को एक पवित्र संस्कार माना गया है और हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में भी इसको इसी रूप में बनाए रखने की चेष्टा की गई है। किंतु विवाह, जो पहले एक पवित्र एवं अटूट बंधन था, अधिनियम के अंतर्गत, ऐसा नहीं रह गया है। कुछ विधि विचारकों की दृष्टि में यह विचारधारा अब शिथिल पड़ गई है। अब यह जन्म जन्मांतर का संबंध अथवा बंधन नहीं वरन्‌ विशेष परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर, (अधिनियम के अंतर्गत) वैवाहिक संबंध विघटित किया जा सकता है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (3।20)
  2. (1।122।3-31)
  3. (शतपथ ब्राह्मण, 5।2।1।10)
  4. (1।89)
  5. ब्राइड प्राइस
  6. (3।34)
  7. संदर्भ ग्रंथ- वेस्टरमार्क : हिस्ट्री ऑव ह्यूमन मैरिज, तीसरा खंड; हरिदत्त वेदालंकार : हिंदू विवाह का इतिहास।
  8. विवाह (हिंदी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 8 अप्रॅल, 2013।

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