जौहर
जौहर पुराने समय में भारत में राजपूत स्त्रियों द्वारा की जाने वाली क्रिया थी। जब युद्ध में हार निश्चित हो जाती थी तो पुरुष मृत्युपर्यन्त युद्ध हेतु तैयार होकर वीरगति प्राप्त करने निकल जाते थे तथा स्त्रियाँ जौहर कर लेती थीं अर्थात जौहर कुंड में आग लगाकर खुद भी उसमें कूद जाती थी। जौहर कर लेने का कारण युद्ध में हार होने पर शत्रु राजा द्वारा हरण किये जाने का भय होता था। जौहर क्रिया में राजपूत स्त्रियाँ जौहर कुंड को आग लगाकर उसमें स्वयं का बलिदान कर देती थी।
इतिहास
जौहर क्रिया की सबसे अधिक घटनायें भारत पर मुग़ल आदि बाहरी आक्रमणकारियों के समय हुई। ये मुस्लिम आक्रमणकारी हमला कर हराने के पश्चात स्त्रियों को लूट कर उनका शीलभंग करते थे। इसलिये स्त्रियाँ हार निश्चित होने पर जौहर ले लेती थी। इतिहास में जौहर के अनेक उदाहरण मिलते हैं। हिन्दी के ओजस्वी कवि श्यामनारायण पाण्डेय ने अपना प्रसिद्ध महाकाव्य जौहर चित्तौढ़ की महारानी पद्मिनी के वीरांगना चरित्र को चित्रित करने के उद्देश्य को लेकर ही लिखा था। राजस्थान की जौहर परम्परा पर आधारित उनका यह महाकाव्य हिन्दी जगत में काफी चर्चित रहा।
- रानी बाई ने किया था पहला जौहर
सती प्रथा या बलात् जौहर के समर्थक नही हैं, परंतु जिस वीरांगना रानी बाई ने इसे सर्वप्रथम अपनाया था, उसकी वीरता और अपने धर्म को बचाने के लिए उसके साहस की पराकाष्ठा तो देखिए कि उसने आत्मोत्सर्ग का यही ढंग ढूंढ़ लिया कि पति के वीरगति पाने का समाचार मिलते ही स्वयं को अग्नि के समर्पित कर दिया। भारतीय नारियों को वीरांगना होने की यह प्रेरणा वेद से मिली। हमने नारी के विषय में ये पंकित्यां स्मरण कर ली हैं :-
अबला जीवन हाय, तुम्हारी यही कहानी।
आंचल में है दूध और आंखों में पानी।।
वैदिक नारी का राष्ट्र की राष्ट्रनीति (राजनीति) में ये स्थान था। मानो वह अपने पति के हटते ही तुरंत ध्वजा संभालने को आतुर रहती थी। राष्ट्र और समाज की शांति व्यवस्था के शत्रु आतंकियों का विनाश करने में यदि पति ने आत्मोत्सर्ग कर लिया है, वीरगति प्राप्त कर ली है, तो पत्नी भी उसी मार्ग का अनुकरण करना अपना सौभाग्य मानती थी। इसी भाव और भावना ने राजा दाहिर की पत्नी को जौहर करने का विकल्प दे दिया। राजा दाहर की रानी के जौहर से पूर्व किसी रानी के जौहर का उल्लेख नही है। कारण ये है कि उससे पूर्व भारत वर्ष में नारी के प्रति पुरुष का बड़ा प्रशंसनीय धर्म व्यवहार था। नारी चाहे कितनी ही वीरांगना हो, परंतु पुरुष समाज उससे शत्रुता नहीं मानता था और ना किसी की नारी के शीलभंग के लिए युद्घ किये जाते थे, नारी का अर्थ शत्रु नहीं (न+ अरि = नारी) होता था, इसीलिए वह नारी कही जाती थी। परंतु अब विदेशी आक्रमणकारियों का धर्म उन्हें नारी के लिए ही युद्घ करने की प्रेरणा देता था और नारी का शीलभंग करना इस युद्घ का एक प्रमुख उद्देश्य बन गया था, इसलिए रानी बाई ने जौहर को अपना लिया। इसी जौहर को कालांतर में अन्य हिंदू वीरांगनाओं ने भी अपनाया। ऐसी ही हिंदू वीरांगना थी रानी पद्मिनी, जिसने अपने पति की रक्षार्थ वैदिक आदर्श को अपनाया और विदेशियों को ये बता दिया कि वेदों के आदर्श केवल कोरी कल्पना ही नही हैं और ना ही ये इतने पुराने पड़ गये हैं कि अब इन्हें कोई अपनाने या मानने वाला ही नही रहा है। रानी की विवेकशीलता और बौद्घिक चातुर्य को देखकर शत्रु भी दांतों तले जीभ दबाकर रह गया। शत्रु ने भारतीय नारी से कभी ये अपेक्षा ही नही की होगी कि वह इतनी साहसी भी हो सकती है।
नारी की वेदों में स्थिति
भारत में नारी को उसके नारी सुलभ ममता, करूणा, स्नेह आदि गुणों के कारण अबला भी कहा गया है। परंतु नारी का वेदों ने एकवीरांगना के रूप में भी चित्रण किया है। उसे हर स्थिति में पति की रक्षिका ध्वजवाहिका और शत्रु संहारिका के रूप में भी वर्णित किया गया है। स्वेच्छा से जौहर करने वाली राजा दाहिर की रानी बाई एक वैदिक वीरांगना थी। जौहर या सती प्रथा अपराध तब हुई जब नारी को चिता में उसके पति के साथ बलात् जलाया जाने लगा। इसलिए एक वीरांगना का अति सराहनीय कार्य भी कहीं दूर ओझल हो गया। हमने बलात् सती करने वाले अपराधियों के अपराध की विभीषिका में बलिदानी वीरांगना बाई को भी भुला दिया। वेद के उन संदेशों को भुला दिया जिनमें नारी को अबला, दीनहीन और मतिहीन न मानकर उसे वीरांगना माना है।
- पारस्कर गृहय सूत्र[1] में आया है कि ‘आरोहेममश्मानम् अश्वेमेव त्वं स्थिरा भव।
अभितिष्ठ पृतन्यतो अबवाधस्व पृतनायत:।।
अर्थात (सुदृढ़ता प्राप्त करने के लिए) तू इस शिला पर आरोहण कर। जैसे यह शिला स्थिर तथा सुदृढ़ है, ऐसे ही तू भी स्थिर और सुदृढ़ गात्री बन। आक्रमणकारियों को परास्त कर। सेना द्वारा चढ़ाई करने वालों को बाधित कर।
- यजुर्वेद[2] में आया है-‘‘हे नारी! तू स्वयं को पहचान। तू शेरनी है, तू शत्रु रूप मृगों का मर्दन करने वाली है, देवजनों के हितार्थ अपने भीतर, सामर्थ्य उत्पन्न कर। हे नारी! तू अविद्या आदि दोषों पर शेरनी की भांति है। तू दुष्कर्मों एवं दुर्व्यसनों को शेरनी के समान विध्वंसित करने वाली है, धार्मिक जनों के हितार्थ स्वयं को दिव्य गुणों से अलंकृत कर।’’
- यजुर्वेद[3] में कहा गया है-‘‘हे नारी तू शेरनी है, तू आदित्य ब्रह्मचारियों की जन्मदात्री है। हम तेरी पूजा करते हैं। हे नारी! तू शेरनी है, तू ब्राह्मणों की जन्मदात्री है, तू क्षत्रियों की जन्मदात्री है, हम तेरा यशोगान करते हैं।’’
- यजुर्वेद[4] में नारी को क्षात्रबल की भंडार कहा गया है। जबकि यजु[5] में उसके लिए कहा गया है कि-‘‘हे नारी! तू धु्रव है, अटल निश्चय वाली है, सुदृढ़ है, अन्यों को धारण करने वाली है। विश्वकर्मा परमेश्वर ने तुझे विद्या, वीरता आदि गुणों से आच्छादित किया है। ध्यान रख, समुद्र के समान उमड़ने वाला रिपु दल तुझे हानि न पहुंचा सके, गरूड़ के समान आक्रांता तुझे हानि न पहुंचा सके। किसी से पीडि़त होती हुई तू राष्ट्रभूमि को समृद्घ कर।’’
- यजुर्वेद[6] में कहा गया है-‘‘हे नारी! तू विघ्न बाधाओं से पराजित होने योग्य नही है, प्रत्युत विघ्न बाधाओं को पराजित कर सकने वाली है। तू शत्रुओं को परास्त कर, सैन्य दल को परास्त कर, तू सहस्रवीर्या है, अपनी वीरता प्रदर्शित करके तू मुझे प्रसन्नता प्रदान कर।’’
- ऋग्वेद[7] में आया है कि-‘‘हे नारी! जैसे तू शत्रु से खंडित न होने वाली, सदा अदीन रहने वाली वीरांगना है, वैसे ही तेरे पुत्र भी अद्वितीय वीर हैं।’’
- ऋग्वेद [8] में नारी के लिए कहा गया है कि वह आवश्यकता पड़ने पर बलिदान के स्थल संग्राम में जाने से भी नहीं हिचकती। यहाँ से सत्य की विधात्री वीर पुत्रों की माता वीर की पत्नी कहकर उसे महिमान्वित किया गया है।
- यजुर्वेद[9] में नारी को कहा गया है कि तू शत्रुओं के प्रति प्रयाण कर, उनके हृदयों को शोक से दग्ध कर दे। तेरे शत्रु निराशारूप घोर अंधकार से ग्रस्त हो जाएं।
- ऋग्वेद[10] में आया है कि जो वीरांगना विष लिप्त बाण के समान रण संहार करने वाली है जो रक्षार्थ सिर पर मृग के सींगों का बना शिरस्त्राण धारण करती है, जिसका सामने का भाग लोह कवच से आच्छादित है, जो पर्जन्य वीर्या है, अर्थात बादल के समान शस्त्रास्त्रों की वर्षा करने वाली है उस बाण के समान गतिशील, कर्मकुशल, शूरवीर देवी को हम भूरि-भूरि नमस्कार करते हैं।’’
- ऋग्वेद[11] में नारी अपने विषय में कहती है-‘‘मैं राष्ट्र की ध्वजा हूं, मैं समाज का सिर हूं। मैं उग्र हूँ, मेरी वाणी में बल है। शत्रु सेनाओं को पराजय करने वाली मैं युद्घ में वीर कर्म दिखाने के पश्चात ही पति का प्रेम पाने की अधिकारिणी हूं।’’
- ऋग्वेद[12] का कहना है कि-‘‘जिस आत्मोसर्ग की छवि से मेरा वीर पति कृत कृत्य यशस्वी तथा सर्वोत्तम सिद्घ हुआ है, वह छवि आज मैंने भी दे दी है। आज मैं निश्चय ही शत्रु रहित हो गयी हूँ।’’ इससे अगले मंत्र में वह कहती है कि-‘‘ मैंने शत्रुओं का वध कर दिया है, मैंने विजय पा ली है, वैरियों को पराजित कर दिया है।’’[13]
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टीका टिप्पणी व संदर्भ
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