सती

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शिव पुराण में

  • दक्ष प्रजापति का विवाह वीरनी से हुआ था। दक्ष ने ब्रह्मा की प्रेरणा से आदिशक्ति भवानी को तपस्या से प्रसन्न करके वर प्राप्त किया था कि वे उसके घर में जन्म लेंगी। कालांतर में भवानी ने वीरनी के गर्भ से जन्म लिया। उसका नाम सती रखा गया। सती ने शिव की तपस्या की तथा उनकी पत्नी होने का वरदान प्राप्त किया। ब्रह्मा दक्ष के पास विवाह-प्रस्ताव लेकर गये। विवाह के समय सती के पांव देखकर ब्रह्मा उसका रूप देखने के लिए लालायित हो उठे। अत: उन्हांने एक गीली लकड़ी हवन में डाल दी। सब ओर धुआं फैल गया। शिव अपनी आँखें पोंछने लगे तो ब्रह्मा ने सती के घूंघट में झांककर देखा। कामवश उनका वीर्यपात हो गया। शिव उनसे रुष्ट हो उन्हें मार डालने के लिए उद्यत हुए किंतु दक्ष ने रोका। ब्रह्मा के अनुनय-विनय करने पर शिव प्रसन्न हुए, पर उन्होंने शाप दिया कि ब्रह्मा मनुष्य होकर लज्जा उठायेंगे। शिव के आंसू और ब्रह्मा के वीर्य के मिश्रण से चार मेघ उत्पन्न हुए। विवाह के उपरांत शिव सती सहित कैलास पर्वत पर चले गये। दक्ष प्रजापति सती अवमानना से दुखी होकर सती ने अपना शरीर भस्म करने से पूर्व शिव को स्मरण करके वर मांगा था कि उसे सदा शिव के चरण प्राप्त हों। हिमालय और मैना ने ब्राह्मणों की प्रेरणा से जगंदबा की स्तुति की, अत: उन्हें सौ पुत्र और एक सती नाम की कन्या प्राप्त हुई। इस प्रकार सती दूसरे जन्म में मैना की कन्या होकर शिव से ब्याही गयी।[1]

भागवत में

  • पराशक्ति ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश को सरस्वती, लक्ष्मी, गौरी प्रदान की, तभी वे सृष्टि-कार्य-निर्वाह में समर्थ हुए। एक बार हला, हल नामक अनेक दैत्यों ने त्रैलोक्य को घेर लिया। विष्णु और महेश ने युद्ध करके अपनी शक्ति से उन्हें नष्ट कर डाला। अपने-अपने स्थान पर लौटकर वे लक्ष्मी और गौरी के सम्मुख आत्मस्तुति करने लगे। शक्तिस्वरूपा उन दोनों की महत्ता भूल गयीं। वे दोनों शिव और विष्णु का मिथ्याभिमान नष्ट करने के लिए अंतर्धान हो गयीं। शिव, विष्णु सृष्टिपरक कार्य करने में असमर्थ हो गये। ब्रह्मा को तीनों का कार्य संभालना पड़ा। शिव और विष्णु विक्षिप्त हो गये। कुछ समय उपरांत ब्रह्मा की प्रेरणा से मनु तथा सनकादि ने तपस्या से पराशक्ति को प्रसन्न किया। उन्होंने शक्ति से हरि और हर का स्वास्थ्य-लाभ तथा लक्ष्मी और गौरी के पुनराविर्भाव का वर प्राप्त किया। दक्ष ने देवी से वर मांगा-'हे देवि! आपका जन्म मेरे ही कुल में हो।' देवि ने कहा-' एक शक्ति तुम्हारे कुल में तथा दूसरी शक्ति क्षीरोदसागर में जन्म ग्रहण करेगी। इसके लिए तुम मायाबीज मन्त्र का जाप करो।' दक्ष के घर में दाक्षायनी देवी का जन्म हुआ, जो सती नाम से विख्यात हुई। वही शिव की भूतपूर्व शक्ति थी। दक्ष ने सती पुन: शिव को प्रदान की। दुर्वासा मुनि ने मायाबीज मन्त्र के जाप से भगवती को प्रसन्न किया। देवी ने उन्हें प्रसाद स्वरूप अपनी माला प्रदान की। दुर्वासा दक्ष के यहाँ गये। दक्ष के मांगने पर उन्होंने वह माला उसे दे दी। दक्ष ने सोते समय वह माला अपनी शैया पर रखी तथा रतिकर्म में लीन हो गये। इस पशुवत कर्म के कारण उनके मन में शिव तथा सती के प्रति द्वेष का भाव जाग्रत हुआ। पिता से पति के प्रति बुरे वचन सुनकर सती ने आत्मदाह कर लिया। शिव ने क्रोधावेश में वीरभद्र को जन्मा तथा दक्ष का यज्ञ नष्ट कर डाला। विष्णु ने बाण से सती के अंग-प्रत्यंग का छेदन किया। सती के अवयव पृथ्वी पर जहां भी गिरे, शिव ने वहां उसकी मूर्तियों की स्थापना की तथा कहा कि वे स्थान सिद्धपीठ रहेंगे।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शिव पुराण, 2, पूर्वार्द्ध, 5-15, 3-1
  2. भागवत, 7।29।22-45,7-30।

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