मेनका

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मेनका
मेनका तथा विश्वामित्र
विवरण मेनका स्वर्ग की अप्सराओं में सबसे सुन्दर थी। वह देवराज इन्द्र के कहने पर पृथ्वी पर आई थी।
उद्देश्य महर्षि विश्वामित्र का तप भंग करना।
विवाह विश्वामित्र
संतान शकुंतला
संबंधित लेख विश्वामित्र, शकुंतला
अन्य जानकारी शकुंतला के जन्म के कुछ समय बाद ही मेनका स्वर्ग वापस लौट गई, क्योंकि उसे भय था कि कहीं स्वर्ग की दूसरी अप्सरायें उर्वशी, रम्भा आदि उसका स्थान न ले लें।

मेनका स्वर्ग की सर्वसुन्दर अप्सरा थी। देवराज इन्द्र ने महर्षि विश्वामित्र के नये सृष्टि के निर्माण के तप से डर कर उनकी तपस्या भंग करने के लिए मेनका को पृथ्वी पर भेजा था। मेनका ने अपने रूप और सौन्दर्य से तपस्या में लीन विश्वामित्र का तप भंग कर दिया। विश्वामित्र ने मेनका से विवाह कर लिया और वन में रहने लगे। विश्वामित्र सब कुछ छोड़कर मेनका के ही प्रेम में डूब गये थे। मेनका से विश्वामित्र ने एक सुन्दर कन्या प्राप्त की, जिसका नाम शकुंतला रखा गया था। जब शकुंतला छोटी थी, तभी एक दिन मेनका उसे और विश्वामित्र को वन में छोड़कर स्वर्ग चली गई। विश्वामित्र का तप भंग करने में सफल होकर मेनका देवलोक लौटी तो वहाँ उसकी कामोद्दीपक शक्ति और कलात्मक सामर्थ्य की भूरि-भूरि प्रशंसा हुई और देवसभा में उसका आदर बहुत बढ़ गया।

इन्द्र का भय

पौराणिक वर्णन के अनुसार शकुन्तला की माता मेनका इस लोक की नारी नहीं, देवलोक की अप्सरा थी। महर्षि विश्वामित्र की घोर तपस्या से भयभीत होकर देवराज इन्द्र ने मेनका को कुछ समय के लिये नारी शरीर धारण कर मर्त्यलोक में रहने का आदेश दिया। महर्षि विश्वामित्र ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त करना चाहते थे। विश्वामित्र ने ब्रह्मत्व के अधिकार और पद को पाने के लिये घोर तप किया। ब्राह्मणों और देवताओं ने विश्वामित्र के तप की श्लाघा से उन्हें महर्षि से ऊँचा, राजर्षि पद देना स्वीकार कर लिया, परन्तु विश्वामित्र के क्षत्रिय कुलोद्भव होने के कारण देवताओं और ब्राह्मणों ने उन्हें समाज के विधायक ब्रह्मर्षि का पद देना स्वीकार नहीं किया। विश्वामित्र देवताओं और ब्राह्मणों की व्यवस्था और शासन में ब्राह्मणों के प्रति पक्षपात देखकर देवताओं की सृष्टि और ब्राह्मणों की व्यवस्था से असंतुष्ट हो गये। उन्होंने ब्रह्मर्षि पद प्राप्त करने की प्रतिज्ञा पूरी करने के लिये देवताओं और ब्राह्मणों द्वारा नियंत्रित तथा शासित सृष्टि और व्यवस्था की प्रतिद्वन्द्विता में नयी सृष्टि तथा नयी व्यवस्था की रचना का निश्चय कर लिया। देवताओं और ब्राह्मणों ने सृष्टि की व्यवस्था पर अपने अधिकार के प्रति विश्वामित्र की इस चुनौती को क्षुद्र मानव का क्षुब्ध अहंकार ही समझा, परन्तु विश्वामित्र दृढ़ निश्चय से नयी सृष्टि की व्यवस्था की रचना के लिये तप में लग गये।[1]

मेनका और विश्वामित्र

मेनका का पृथ्वी पर आना

कुछ समय पश्चात् विश्वामित्र की सफलता का समाचार देवराज इन्द्र तक पहुँचने लगा। इन्द्र जानते थे कि परंतप महर्षि विश्वामित्र का निश्चय भंग कर देना अत्यन्त कठिन था। वे जानते थे, किसी भी शक्ति का भय अथवा सम्पदा का प्रलोभन विश्वामित्र को अपने निश्चय से डिगा नहीं सकता था। इन्द्र ने विश्वामित्र का तप स्खलित करने के लिये, स्वयं उनकी ही शक्ति विश्वामित्र के मानव शरीर की कार्य-कारण भूत प्राणशक्ति, सृजन-शक्ति का ही उपयोग करने का निश्चय किया। देवराज ने विश्वामित्र के अस्तित्व अथवा शरीर में व्याप्त सृजन-शक्ति को वश में कर, उन्हें तप के लक्ष्य से विमुख करने का उत्तरदायित्व देवलोक की प्रुमख अप्सरा 'मेनका' को सौंपा। मेनका इन्द्र के आदेश से महर्षि विश्वामित्र का तप भंग करने के लिये मर्त्यलोक में आयी। महर्षि को वश में करने के लिए मेनका ने इन्द्र से परामर्श से उस कामशक्ति का प्रयोग किया, जो शरीर मात्र के उद्भव और क्रम का निमित्त होती है और प्राण तथा जीवन के गुण के रूप में जीव मात्र में समाहित रहती है। मेनका ने विश्वामित्र के शरीर में व्याप्त उस शक्ति का उद्बबोधन करने के लिये अप्सरा के गुण स्वभाव त्याग कर नारी प्रकृति ग्रहण कर ली और महर्षि विश्वामित्र के सामीप्य में प्रत्यक्ष हो गयी। विश्वामित्र का ध्यान आकर्षित करने के लिये मेनका को सूक्ष्म भाव-भंगिमा तथा संकेतों द्वारा अनेक प्रयत्न करने पड़े। वह अवसर पाकर महर्षि की दृष्टि में पड़ जाती और उनकी दृष्टि से संकोच प्रकट कर छिप जाने का यत्न करती। वह सयत्न असावधानी में अपने कमनीय शरीर पर से वायु द्वारा सहसा वस्त्र उड़ जाने देती और फिर महर्षि की दृष्टि के भय और लाज से कच्छप के समान अपने में ही सिमट जाती।

विश्वामित्र का तप भंग करना

प्रज्वलित अग्नि का सामीप्य अन्य पदार्थों में समाहित सुषुप्त अग्नि का उद्बबोधन किये बिना नहीं रहता। महर्षि विश्वामित्र का शरीर कठिन तप से शुष्क काष्ठवत् हो गया था, परन्तु कामाग्नि की प्रतीक मेनका के सामीप्य और संगति से महर्षि के शरीर में कामशक्ति के स्फुलिंग स्फुरित होने लगे। उनका शरीर जीवन की उमंग से सिरहन और स्पन्दन अनुभव करने लगा। महर्षि की तप में लगी हुई प्राणशक्ति मेनका के लावण्यमय शरीर के अवलम्ब से सार्थक होने के लिये व्याकुल हो गयी। महर्षि के चित्त में मेनका की संगति को अधिकाधिक चरितार्थ करने के अतिरिक्त अन्य विचार का अवकाश न रहा। काम की एकाग्रता में विश्वामित्र को देवत्व तथा ब्रह्मत्व की स्पर्धा और प्रतिद्वन्द्वी सृष्टि की रचना का ध्यान न रहा। विश्वामित्र, नारी रूप मेनका के समर्पण के परिरम्भ में विवश हो गये। मेनका विश्वामित्र का ध्यान नवसृष्टि रचना से स्खलित करने में सफल हो गयी, परन्तु विश्वामित्र तप पुनः आरम्भ न कर दें, इस चिन्ता में वह कितने समय तक मर्त्यलोक में बनी रहती। मेनका को मर्त्यलोक में देवलोक के कर्म तथा फल से उन्मुक्त, अबाध सुख का संतोष प्राप्त न था। उसे देवलोक में अपनी स्थिती तथा अधिकार की भी चिन्ता थी। उसकी प्रतिद्वन्द्विनी अप्सरायें उर्वशी, रम्भा आदि देवलोक में उनकी अनुपस्थिति से लाभ उठा सकती थीं।[1]

शकुंतला का जन्म

अप्सरा मेनका ने मर्त्यलोक में जीवन के धर्म और नियम जान लिये थे- जीव अपने शरीरों के प्रकृति और गुण से काम-प्रवृत्ति का धर्म पूरा करते हैं। जीव इसी धर्म की पूर्ति अथवा कर्म के फलस्वरूप सन्तान प्राप्त करते हैं और वे सन्तान के पालन-रक्षा आदि के धर्म अथवा कर्म में बंध जाते हैं। यही मर्त्यलोक में जीवन का धर्म अथवा लोकधर्म है। इस लोकधर्म की परम्परा से ही सृष्टि की व्यवस्था का चक्र चलता रहता है। जीवों में व्याप्त काम प्रवृत्ति अथवा सृजनधर्म की परम्परा ही सृष्टि के अनन्त चक्र की गति का कारण है। मेनका ने निश्चय किया देवराज इन्द्र द्वारा निर्दिष्ट उत्तरदायित्व पूर्ण करने के लिए विश्वामित्र को लोकधर्म की परम्परा में बाँध देना आवश्यक होगा। मेनका ने विश्वामित्र को अपनी संगति से दिये आनन्द और सन्तोष का मूर्त्त, एक शिशु-कन्या के रूप में दिया, जिसका नाम शकुंतला रखा गया।

वापस स्वर्ग गमन

मेनका महर्षि विश्वामित्र को सन्तुष्ट देखकर अनुभव कर रही थी कि इन्द्र द्वारा उसे निर्दिष्ट कार्य पूर्णतः सम्पन्न हो गया है। वह मानव के असामर्थ्य से सीमित, सुख-दुख संकुल संसार में क्यों बंधी रहे। उसके लिए देवलोक लौट जाने का अवसर आ गया था, परन्तु मर्त्यलोक में निवास करके तथा जीवों के समान अपने शरीर से सन्तान प्रसव करके इस लोक के शरीरियों की भाँति वह सन्तान के मोह का अनुभव करने लगी थी। उसे आशंका थी कि देवलोक लौट जाने पर भी वह मर्त्यलोक के गुण-स्वभाव-सन्तान के मोह का परिचय पाकर उस आकर्षण को सदा अनुभव करती रहेगी। एक प्रातः सूर्योदय के कुछ समय पश्चात् मेनका महर्षि के समीप बैठी शिशु-कन्या को दिवस का प्रथम दुग्धपान करा रही थी। कन्या ने सन्तुष्ट होकर माता के स्तन से मुख फेर लिया और समीप बैठे पिता की ओर देखा। विश्वामित्र ने शिशु कन्या को अपने हाथों में ले लिया और उसे हंसाने-किलकाने के लिए अपनी नासा उसके शरीर पर छुला-छुला कर उसे गुदगुदाने लगे। जिस समय विश्वामित्र शिशु से क्रीड़ा में आत्मविस्मृत थे, उसी समय अप्सरा मेनका चुपचाप उठ कर कुटिया से बाहर चली गयी और फिर नहीं लौटी।[1]

इन्हें भी देखें: विश्वामित्र, शकुंतला एवं दुष्यंत


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टीका टिप्पणी और सन्दर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 अप्सरा का शाप (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 04 जून, 2013।

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