गुडाकेश (असुर)

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गुडाकेश एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- गुडाकेश (बहुविकल्पी)

गुडाकेश बहुत पहले, सृष्टि के प्रारम्भ में हुआ एक महासुर था। वह तांबे का शरीर धारण करके चौदह हज़ार वर्ष तक अडिग श्रद्धा और बड़ी दृढ़ता के साथ भगवान की आराधना करता रहा। उसकी निश्‍चयपूर्ण तीव्र तपस्‍या से संतुष्‍ट होकर भगवान विष्णु उसके रमणीय आश्रम पर प्रकट हुए।

भगवान का दर्शन

तपस्‍यारत गुडाकेश भगवान को देखकर कितना आनन्दित हुआ, यह बात कही नहीं जा सकती। शंख-चक्र-गदाधारी, चतुर्बाहु, पीताम्‍बर पहने, मन्‍द-मन्‍द मुस्कराते हुए भगवान के चरणों पर वह गिर पड़ा। उसके सारे शरीर में रोमांच हो आया, आंखों से आंसू बहने लगे, हृदय गद्गद हो गया, गला रुँध गया और वह उनसे कुछ भी नहीं बोल सका। थोड़ी देर के बाद जब कुछ संभला, तब अंजलि बांधकर, सिर झुकाकर भगवान के सामने खड़ा हो गया। भगवान ने मुस्काते हुए कहा- "निष्‍पाप गुडाकेश! तुमने कर्म से, मन से, वाणी से, जिस वस्‍तु को वांछनीय समझा हो, जो चीज तुम्‍हें अच्‍छी लगती हो, मांग लो। मैं आज तुम्‍हें सब कुछ दे सकता हूँ।"

वरदान

भगवान की बात सुनकर गुडाकेश ने विशद्ध हृदय से कहा- "भगवान ! यदि आप मुझ पर पूर्ण रूप से प्रसन्‍न हैं तो ऐसी कृपा करें कि मैं जहां-जहां जन्‍म लूं, हज़ारों जन्‍म तक आपके चरणों में ही मेरी दृढ भक्ति बनी रहे। भगवन ! एक बात और चाहता हूँ। आपके हाथ से छूटे हुए चक्र के द्वारा ही मेरी मृत्‍यु हो और जब चक्र से मैं मारा जाऊँ, तब मेरे मांस, मज्‍जा आदि तांबे के रूप में हो जायँ ओर वे अत्‍यन्‍त पवित्र हों। उनकी पवित्रता इसी में है कि उनमें भोग लगाने से आपकी प्रसन्‍नता सम्‍पादित हो। अर्थात् मरने पर भी मेरा शरीर आपके ही काम में आता रहे।" भगवान ने उसकी प्रार्थना स्‍वीकार की और कहा- "तब तक तुम तांबा होकर ही रहो। यह तांबा मुझे बड़ा प्रिय होगा। वैशाख शुक्‍ल द्वादशी के दिन मेरा चक्र तुम्‍हारा वध करेगा और तब तुम सदा के लिये मेरे पास चले जाओगे।" यह कहकर भगवान अन्‍तर्हित हो गये।

गुडाकेश मन में इस उत्‍सकुता के साथ बड़ी तपस्‍या करने लगा कि कब वैशाख शुक्‍ल द्वादशी आये और कब अपने प्रियतम के हाथों से छूटे हुए चक्र के द्वारा मेरी मृत्‍यु हो, जो मुझे उनके प्‍यार से मीठी होगी। अन्‍त में वह द्वादशी आ गयी। बड़े उत्‍साह के साथ वह भगवान की पूजा करके प्रार्थना करने लगा-

मुंञ्च मुंञ्च प्रभो! चक्रमपि वह्निसमप्रभम्।
आत्‍मा मे नीयतां शीघ्रं निकृत्‍यांगनि सर्वश:।।

वैकुण्ठ गमन

‘प्रभो! शीघ्रातिशीघ्र धधकती हुई आग के समान जाज्‍वल्‍यमान चक्र मुझ पर छोड़ो, अब विलम्‍ब मत करो। नाथ! मेरे शरीर को टुकड़े-टुकड़े करके मुझे शीघ्रातिशीघ्र अपने चरणों की सन्निधि में बुला लो।" अपने भक्त की सच्‍ची प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु ने तुरंत ही चक्र के द्वारा उसके शरीर को टुकड़े-टुकड़े करके अपने धाम वैकुण्ठ बुला लिया और अपने प्‍यारे भक्त का शरीर होने के कारण वे आज भी तांबे से बहुत प्रेम करते हैं और वैष्‍णव लोग बड़े प्रेम से तांबे के पात्र में भगवान को अर्घ्‍यपादादि समर्पित करते हैं। इसी के मल से सीसा, लाख, कांसा रूपा और सोना आदि भी बने हैं। तभी से भगवान को तांबा अत्‍यन्‍त प्रिय है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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