प्रह्लाद
प्रह्लाद
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कुल | दैत्य |
पिता | हिरण्यकशिपु |
माता | कयाधु |
जन्म विवरण | कयाधु ने हिरण्यकशिपु से चालाकीपूर्वक 108 बार 'नारायण-नारायण' कहलवा लिया था, इसके प्रभाव से ही कयाधु के गर्भ में विष्णु के भक्त प्रह्लाद का बीजारोपण हुआ था। |
परिजन | हिरण्यकशिपु, कयाधु, होलिका |
गुरु | शुक्राचार्य, दत्तात्रेय, शंड तथा मर्क |
संतान | 'आयुष्मान', 'शिवि', 'वाष्कल' और 'विरोचन' |
यशकीर्ति | प्रह्लाद परम विष्णु भक्त थे। पिता द्वारा अनेकों यातनाएँ देने पर भी वह भक्ति मार्ग से नहीं डिगे और प्रसिद्ध विष्णुभक्त बने। |
संबंधित लेख | होलिका, होलिका दहन, होली |
अन्य जानकारी | इन्द्र द्वारा कयाधु का अपहरण करने के बाद देवर्षि नारद उसे अपने आश्रम में ले आए थे। नारद उन्हें भगवद भक्ति का पाठ पढ़ाते थे। उन्होंने जो उपदेश दिए वे सभी प्रह्लाद ने माता के गर्भ में ही सुन लिए थे। |
प्रह्लाद हिन्दू धर्म के पुराणों में वर्णित हिरण्यकशिपु और कयाधु दानवी का पुत्र था।[1] दैत्यराज का पुत्र होते हुए भी वह बचपन से ही बड़ा भगवदवक्ता था।[2] दत्तात्रेय, शंड तथा मर्क उसके शिक्षक थे। हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को हर प्रकार से ईश्वर भक्ति से विचलित करने के लिए अनेक उपाय किए तथा उसको नाना प्रकार की यातनाएँ दीं, किंतु वह अपने पथ पर दृढ़ रहा। अंत में प्रह्लाद की रक्षा करने हेतु भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार लिया और प्रह्लाद की रक्षा की।[3] 'आयुष्मान', 'शिवि', 'वाष्कल' और 'विरोचन' इसके पुत्र[4] तथा बलि पौत्र था। यह ईश्वर भक्ति के कारण दैत्यों और दानवों का अधिपति हो गया था।[5]
विष्णु भक्ति
कयाधु ने हिरण्यकशिपु से चालाकीपूर्वक 108 बार 'नारायण-नारायण' कहलवा लिया था, इसके प्रभाव से ही कयाधु के गर्भ में विष्णु के भक्त प्रह्लाद का बीजारोपण हुआ। दैत्य होते हुए भी प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था। उसकी प्रभु भक्ति के कारण हिरण्यकशिपु की चिंता बढ़ती जा रही थी। उसने प्रह्लाद को दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आश्रम में शिक्षा के लिए भेजा। वहाँ उसने सभी कुछ सीख लिया, लेकिन फिर भी प्रभु भक्ति के अतिरिक्त उसका मन कहीं नहीं लगता था। प्रह्लाद अन्य दैत्यकुमारों को अपने पास बुलाकर उन्हें सदाचार का पाठ पढ़ाता और भगवान का ध्यान करने को कहता। वे उसकी बातें ध्यान से सुनते और उससे पूछते- "प्रह्लाद! राक्षसों के कुल में जन्म लेने के बाद भी तुम्हें ईश्वरीय ज्ञान की बातें कैसे मालूम हुईं?" तब प्रह्लाद बताता- "मेरे चाचा हिरण्याक्ष की मृत्यु के बाद अमरता का वरदान प्राप्त करने के लिए मेरे पिता तपस्या में लीन हो गए। देवताओं को यह बात ज्ञात हुई तो उन्होंने उचित अवसर जानकर दैत्यपुरी पर आक्रमण कर दिया और दैत्यों को मार भगाया। महल में केवल मेरी माता कयाधु रह गईं।
देवराज इन्द्र ने मेरी माता को बंदी बना लिया और उन्हें स्वर्ग में ले जाने लगे। उस समय मेरी माता गर्भवती थीं। मार्ग में उन्हें देवर्षि नारद मिले। उन्होंने इन्द्र से मेरी माता को छोड़ देने का अनुरोध किया। लेकिन इन्द्र ने यह कहते हुए नारदजी की बात मानने से इंकार कर दिया कि ‘इसके गर्भ में दैत्यराज का पुत्र है। जब वह जन्म लेगा तो वे उसे मार देंगे।’ तब नारदजी ने उन्हें समझाया कि कयाधु के गर्भ में कोई साधारण बालक नहीं है। वह भगवान श्रीहरि का परम भक्त होगा, जो संसार में भक्त प्रह्लाद के नाम से प्रसिद्ध होगा। तुम इसका तनिक भी नुकसान नहीं कर सकते।

नारदजी की बात सुनकर देवराज इन्द्र ने मेरी माता कयाधु की परिक्रमा कर गर्भ को प्रणाम किया और वहाँ से चले गए। तब देवर्षि नारद मेरी माता को अपने आश्रम में लाकर उनका पुत्रीरूप में पालन करने लगे। मेरी माता आश्रम में रहने लगीं। देवर्षि नारद उन्हें भगवद भक्ति का पाठ पढ़ाते। उन्होंने जो उपदेश दिए वे मैंने गर्भ में ही सुन लिए थे। मेरी माता तो उन उपदेशों को भूल गईं। लेकिन देवर्षि नारद की कृपा से मुझे वे सभी याद रहे और वहीं मैं तुम सब लोगों को सुनाता हूँ।” इस प्रकार प्रह्लाद ने अपनी माता के गर्भ में ही सभी उपदेश सुने और याद रखे। अपनी भक्ति के कारण आगे चलकर वह भगवान विष्णु के प्रिय भक्त के रूप में विख्यात हुआ।[6]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवतपुराण 6.18.12, 13; 7.1.41; ब्रह्माण्डपुराण 3.5.33; 8.6; मत्स्यपुराण 6.9; वायुपुराण 67.70; विष्णुपुराण 1.15.142
- ↑ भागवतपुराण 1.3.11; 12.25; 4.21.29; 5.18.7; 6.18.10, 16; 7.1.41-43; 10.39.54; 63.47-9; विष्णुपुराण 1.15.143-52
- ↑ भागवतपुराण 7.5.550; अध्या. 6-9 पूरा; 10.1-24, 32-4; 4.21.29, 47; मत्स्यपुराण 162.2, 14
- ↑ भागवतपुराण 6.18.15.16; मत्स्यपुराण 6.9
- ↑ विष्णुपुराण 1.21.14; 22.4; 4.9.5
- ↑ ईश्वर का भक्त प्रह्लाद (हिन्दी) हॉट टॉपिक्स। अभिगमन तिथि: 04 मार्च, 2015।
- ↑ भारतीय मिथक कोश (193-194) * महाभारत सभापर्व, 68 । 65 से 87 * शांतिपर्व, 124 ।
- ↑ भारतीय संस्कृति कोश (193-194) * देवी भागवत 4,7-11