तैत्तिरीयोपनिषद

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कृष्ण यजुर्वेद शाखा का यह उपनिषद तैत्तिरीय आरण्यक का एक भाग है। इस आरण्यक के सातवें, आठवें और नौवें अध्यायों को ही उपनिषद की मान्यता प्राप्त हैं इस उपनिषद के रचयिता तैत्तिरि ऋषि थे। इसमें तीन वल्लियां- 'शिक्षावल्ली,' 'ब्रह्मानन्दवल्ली' और 'भृगुवल्ली' हैं। इन तीन वल्लियों को क्रमश: बारह, नौ तथ दस अनुवाकों में विभाजित किया गया है। जो साधक 'ज्ञान,' 'कर्म' और उपासना' के द्वारा इस भवसागर से पार उतर कर मोक्ष की प्राप्ति करता है अथवा योगिक-साधना के द्वारा 'ब्रह्म' के तीन 'वैश्वानर', 'तेजस' और 'प्रज्ञान' स्वरूपों को जान पाता है और सच्चिदानन्द स्वरूप में अवगाहन करता है, वही 'तित्तिरि' है। वही मोक्ष का अधिकारी है।

  • इस उपनिषद द्वारा तैत्तिरि ऋषि ने अपने पूर्ववर्ती आचार्य सत्यवचा राथीतर, तपोनिष्ठ पौरूशिष्टि, नाकमोद्गल्य और त्रिशंकु आदि आचार्यों के उपदेशों को मान्यता देकर अपनी सौजन्यता का विनम्र परिचय दिया है। इसे तृतीय वल्ली में भृगु-वारुणि संवाद के रूप में प्रस्तुत किया है।

शिक्षावल्ली

इस वल्ली में अधिलोक, अधिज्योतिष, अधिविद्या, अधिप्रज और अध्यात्म, पांच महासंहिताओं का वर्णन किया गया है। साधनाक्रम में 'ॐ' तथा 'भू:', 'भुव:', 'स्व:' तथा 'मह:' आदि व्याहृतियों का महत्त्व दर्शाया गया है। अन्त में अध्ययन और अध्यापन करने के लिए सदाचार सम्बन्धी मर्यादा सूत्रों का उल्लेख करके, विचारों के साथ आचरण की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है।
पहला अनुवाक
इस अनुवाक में मित्र, वरुण, अर्यमा (सूर्य), इन्द्र, बृहस्पति, विष्णु, वायु और ब्रह्मदेव को नमन करके उनसे त्रिविध तापों- अध्यात्मिक, अधिदैविक और अधिभौतिक शान्ति- की रक्षा करने की प्रार्थना की गयी है।
दूसरा अनुवाक
इस अनुवाक में शिक्षा के सार तत्त्वों- वर्ण, स्वर, मात्रा, बल, साम, सन्धि तथा छन्द आदि- के महत्त्व का प्रतिपादन किया गया है। वैदिक साहित्य में इनकी शिक्षा का विशेष उल्लेख है।
तीसरा अनुवाक
इस अनुवाक में शिष्य और आचार्य के यश और बह्मतेज को साथ-साथ बढ़ने की प्रार्थना और पांच महासंहिताओं की व्याख्या की गयी है।

  1. अधिलोक संहिता— इसका पूर्व रूप 'पृथ्वी, 'उत्तर रूप 'द्युलोक' और दोनों का सन्धि स्थल 'अन्तरिक्ष' है। 'वायु' संयोजक रूप है।
  2. अधिज्योतिष (ज्योति)संहिता— पूर्व रूप 'अग्नि, 'उत्तर रूप 'सूर्य,' 'जल' सन्धि रूप है। 'विद्युत' संयोजक है।
  3. अधिविद्या संहिता— पूर्व रूप 'गुरु,'उत्तर रूप 'शिष्य, ' 'विद्या' सन्धि रूप है। 'प्रवचन' संयोजक है।
  4. अधिप्रज (प्रजा) संहिता— पूर्व रूप 'माता,'उत्तर रूप 'पिता' और 'सन्तान' सन्धि रूप है। 'प्रजनन कर्म' संयोजक है।
  • अध्यात्म (आत्मा) संहिता- पूर्व रूप नीचे का 'जबड़ा' उत्तर रूप ऊपर का 'जबड़ा' और 'वाणी' सन्धि रूप है। 'जिह्वा' संयोजक है।
  • सामान्य रूप से वर्णों के समूह को संहिता कहते हैं। विराट इकाइयों- लोक, ज्योति, विद्या (ज्ञान), प्रजा (सन्तति), आत्मा आदि के संयोजित समूहों का उल्लेख किये जाने के कारण ही इन्हें 'महासंहिता' कहा गया है।
  • जो साधक इन महासंहिताओं के सारतत्त्व को जान लेता है, वह समस्त लोकों, ज्योति, ज्ञान, प्रजा, पशु, ब्रह्मवर्चस्व, अन्नादि भोग्य पदार्थों से सम्पन्न हो जाता है।

चौथा अनुवाक
इस अनुवाक में सर्वरूप, वेदों में सर्वश्रेष्ठ उपास्य देव 'इन्द्र' की उपासना करते हुए ऋषि कहते हैं कि वे उन्हें अमृत-स्वरूप परमात्मा को धारण करने वाला मेधा-सम्पन्न बनायें। शरीर में स्फूर्ति, जिह्वा में माधुर्य और कानों में शुभ वचन प्रदान करें। उन्हें सभी लोगों में यशस्वी, धनवान और ब्रह्मज्ञानी बनायें। उनके पास जो शिष्य आयें, वे ब्रह्मचारी, कपटहीन, ज्ञानेच्छु और मन का निग्रह करने वाले हों। इसी के लिए वे यज्ञ में उनके नाम की आहुतियां देते हैं।
पांचवां अनुवाक इस अनुवाक में 'भू:, भुव:, ' 'स्व:' और 'मह:' की व्याख्या की गयी है। 'मह:' ही ब्रह्म का स्वरूप है। वही सभी वेदां का ज्ञान देता है।

एक व्याहृति के चार-चार भेद हैं। ये कुल सोलह हैं जो इन्हें ठीक प्रकार से जान लेता है, वह 'ब्रह्म' को जान लेता है। सभी देवगण उसके अनुकूल हो जाते हैं।
छठा अनुवाक इस अनुवाक में पुरातन पुरुष 'परब्रह्म' की उपासना का योग बताया गया है। वह अमृत-रूप और प्रकाश-स्वरूप परम पुरुष हृदय स्थित आकाश में विराजमान है। हमारे कपाल में 'ब्रह्मरन्ध्र' इन्द्र योनि के रूप में स्थित है। निर्वाण के समय साधक 'भू:' स्वरूप अग्नि में प्रवेश करता है, भुव: स्वरूप वायु में प्रतिष्ठित होता है और फिर 'स्व:' स्वरूप आदित्त्य में होकर 'मह:', अर्थात् 'ब्रह्म' में अधिष्ठित हो जाता है। वह सम्पूर्ण इन्द्रियों और विज्ञान का स्वामी हो जाता है।
सातवां अनुवाक
इस अनुवाक में 'पांच तत्त्वों' का विविध पंक्तियों में उल्लेख किया है और उन्हें एक-दूसरे का पूरक माना है।

  • लोक पंक्ति— पृथ्वी, अन्तरिक्ष, द्युलोक, दिशाएं और अवान्तर दिशाएं।
  • नक्षत्र पंक्ति— अग्नि, वायु, आदित्य, चन्द्रमा और समस्त नक्षत्र।
  • आधिभौतिक पंक्ति— जल, औषधियां, वनस्पतियां, आकाश और आत्मा।
  • अध्यात्मिक पंक्ति— प्राण, व्यान, अपान, उदान और समान।
  • इन्द्रियों की पंक्ति— चक्षु, श्रोत्र, मन, वाणी और त्वचा।
  • शारीरिक पंक्ति— चर्म, मांस, नाड़ी, हड्डी और मज्जा।

ऋषि ने बताया है कि यह सब पंक्तियों का समूह, पंक्तियों की ही पूर्ति करता है। सभी परस्पर एक-दूसरे की पूरक होते हुए एक सहयोगी की भांति कार्य करती हैं।
आठवां अनुवाक
इस अनुवाक में 'ॐ' को ही 'ब्रह्म' माना गया है और उसी के द्वारा 'ब्रह्म' को प्राप्त करने की बात कही गयी है। आचार्य 'ॐ' को ही प्रत्यक्ष जगत् मानते हैं और उसके उच्चारण अथवा स्मरण के उपरान्त साम-गान तथा शस्त्र-सन्धान करते हैं। 'ॐ' के द्वारा ही अग्निहोत्र किया जाता है।
नौवां अनुवाक

  • इस अनुवाक में ऋषि ने आचरण और सत्य वाणी के साथ-साथ शास्त्र के अध्ययन और अध्यापन करने पर बल डाला है। तदुपरान्त इन्द्रिय-दमन, मन-निग्रह और ज्ञानार्जन पर विशेष प्रकाश डाला है। प्रजा की वृद्धि के साथ-साथ शास्त्र-अध्ययन भी करना चाहिए।
  • रथीतर ऋषि के पुत्र सत्यवचा ऋषि 'सत्य' को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। और ऋषिवर पुरूशिष्ट के पुत्र तपोनित्य ऋषि 'तप' को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं तथा ऋषि मुद्गल के पुत्र नाम मुनि शास्त्रों के अध्ययन और अध्यापन पर बल डालते हुए उसे ही सर्वश्रेष्ठ तप मानते हैं। इस प्रकार स्वाध्याय की आवश्यकता पर बल दिया गया है।

दसवां अनुवाक
इस अनुवाक में त्रिशंकु ऋषि अपने ज्ञान-अनुभव द्वारा स्वयं को ही अमृत-स्वरूप इस विश्व-रूपी वृक्ष के ज्ञाता सिद्ध करते हैं और अपने यश को सबसे ऊंचे गिरि शिखर से भी ऊंचा मानते हैं। वे स्वयं को अमृत-स्वरूप अन्नोत्पादक सूर्य में व्याप्त मानते हैं यहाँ ऋषि की स्थिति वही है, जब एक ब्रह्मवेत्ता, ब्रह्म से साक्षात्कार करने के उपरान्त स्वयं को ही 'अहम ब्रह्मास्मि', अर्थात् 'मैं ही ब्रह्म हूं' कहने लगता है। अद्वैत भाव से वह 'ब्रह्म' से अलग नहीं होता।
ग्यारहवां अनुवाक
इस अनुवाक में गुरु अपने शिष्य और सामाजिक गृहस्थ को सद आचरणों पर चलने की प्रेरणा देता है। वह कहता है-

  • 'सत्यं वद। धर्मं चर । स्वाध्यायान्मा प्रमद:।' अर्थात् सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो, स्वाध्याय में आलस्य मत करो।
  • अपने श्रेष्ठ कर्मों से साधक को कभी मन नहीं चुराना चाहिए। आचार्य के लिए अभीष्ट धन की व्यवस्था करने का सदा प्रयत्न करना चाहिए और सृष्टि के विकास में सदा सहयोगी बनाना चाहिए। आचार्य कहते हैं-

'मातृ देवो भव। पितृ देवो भव। आचार्य देवो भव। अतिथि देवों भव।' अर्थात् माता को, पिता को, आचार्य को और अतिथि को देवता के समान मानकर उनके साथ व्यवहार करो।

  • यह भारतीय संस्कृति की उच्चता है कि यहाँ माता-पिता और गुरु तथा अतिथि को भी देवता के समान सम्मान दिया जाता है।
  • यहाँ 'दान' की विशिष्ट परम्परा है। दान सदैव मैत्री-भाव से ही देना चाहिए तथा कर्म, आचरण और दोष आदि में लांछित होने का भय, यदि उत्पन्न हो जाये, तो सदैव विचारशील, परामर्शशील, आचारणनिष्ठ, निर्मल बुद्धि वाले किसी धर्मनिष्ठ व्यक्ति से परामर्श लेना चाहिए।
  • जिसने लोक-व्यवहार और धर्माचरण को अपने जीवन में उतार लिया, वही व्यक्ति मोह और भय से मुक्त होकर उचित परामर्श दे सकता है। श्रेष्ठ जीवन के ये श्रेष्ठ सिद्धान्त ही उपासना के योग्य हैं।

बारहवां अनुवाक
इस अनुवाक में पुन: मित्र, वरुण, अर्यमा (सूर्य), इन्द्र, बृहस्पति, विष्णु, वायु आदि देवों की उपासना करते हुए उनसे कल्याण तथा शान्ति की कामना की गयी है; क्योंकि वे ही 'सत्य' हैं और 'ब्रह्म' हैं। वे ही हमारी रक्षा कर सकते हैं और हमारे तीन प्रकार के तापों को शान्त कर सकते हैं। ये त्रय ताप हैं- अध्यात्मिक, अधिदैविक और अधिभौतिक। क्रमश: ईश्वर सम्बन्धी, देवता सम्बन्धी और शरीर सम्बन्धी दु:ख।

ब्रह्मानन्दवल्ली

इसमें बताया गया है कि ईश्वर हृदय में विराजमान है। यहाँ शरीर में स्थित पांच- 'अन्नमय,' 'प्राणमय,' 'मनोमय,' 'विज्ञानमय' और 'आनन्दमय' कोशों का महत्त्व दर्शाया गया है। आनन्द की मीमांसा लौकिक आनन्द से लेकर ब्रह्मानन्द तक की गयी है। यह भी बताया गया है कि सच्चिदानन्द-स्वरूप परब्रह्म का सान्निध्य कौन साधक प्राप्त कर सकते हैं।
पहला अनुवाक

  • इस अनुवाक में कहा गया है कि ब्रह्मवेत्ता साधक ही परब्रह्म के सान्निध्य को प्राप्त कर पाता है और विशिष्ट ज्ञान-स्वरूप उस ब्रह्म के साथ समस्त भोगों का आनन्द प्राप्त करता है।
  • सर्वप्रथम परमात्मा से आकाशतत्त्व प्रकट हुआ। उसके बाद आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी, पृथ्वी से औषधियां, औषधियों से अन्न तथा अन्न से पुरुष का विकास हुआ। पुरुष में ही अन्न का रस विद्यमान है। आत्मा उसके मध्य भाग, अर्थात् हृदय में निवास करती है। ब्रह्मवेत साधक हृदय में स्थित इसी 'आत्मा' की उपासना करके 'परब्रह्म' तक पहुंचता है।

दूसरा अनुवाक

  • इस अनुवाक में मनुष्य को पक्षी के समकक्ष मानकर पंचकोशों का वर्णन किया गया है। यहाँ 'अन्नमय कोश' का वर्णन है।
  • सभी प्राणी अन्न से जन्म लेते हैं, अन्न से ही जीवित रहते हैं और अन्त में अन्न में ही समा जाते हैं। इसीलिए 'अन्न' को सभी तत्त्वों में श्रेष्ठ कहा गया है। अन्न रस से युक्त इस शरीर में प्राण-रूप आत्मा का वास है। उस प्राणगत देह का प्राण ही उसका सिर है, व्यान दाहिना पंख, अपान बायां पंख, आकाश मध्य भाग और पृथ्वी उसकी पूंछ है।

तीसरा अनुवाक
इस अनुवाक में 'प्राणमय कोश' का वर्णन है। प्राण ही किसी भी शरीर की जीवनी-शक्ति होता है। जो प्राण-रूपी ब्रह्म की उपासना करते हैं, वे दीर्घ जीवन पाते हैं। यही अन्नमय शरीर का 'आत्मा' है। इस देह का सिर 'यजुर्वेद' है, 'ॠग्वेद' दाहिना पंख है, ' सामवेद' बायां पंख है। और आदेश उस देह का मध्य भाग है। 'अथर्व' के मन्त्र ही इसका पूंछ वाला भाग है।
चौथा अनुवाक इस अनुवाक में शरीर के 'मनोमय कोश' का वर्णन है। जिस ब्रह्मानन्द की अनुभूति मन में की जाती है, उसे वाणी द्वारा प्रकट नहीं किया जा सकता। यह मनोमय शरीर अपने पूर्ववर्ती प्राणमय शरीर का आत्मा है, अर्थात् आधार है। इस मनोमय शरीर से भिन्न आत्मा विज्ञानमय है, जो इस मनोमय शरीर में स्थित है। विज्ञानमय देह का सिर 'श्रद्धा' है, सनातन सत्य (ऋत) उसका दाहिना पंख है, प्रत्यक्ष 'सत्य' बायां पंख है, 'योग' मध्य भाग है, 'मह:' को उसकी पूंछ वाला भाग माना गया है। उसे जानने वाला सभी भयों से मुक्त हो जाता है।
पांचवां अनुवाक
इस अनुवाक में शरीर के 'विज्ञानमय कोश' का वर्णन है। विज्ञान के द्वारा ही यज्ञों और कर्मों की वृद्धि होती है। समस्त देवगण विज्ञान को ब्रह्म-रूप में मानकर उसकी उपासना करते हैं। विज्ञानमय शरीर में 'आत्मा' ही ब्रह्म-रूप है। 'प्रेम' उस विज्ञानमय शरीर का सिर है, 'आमोद' दाहिना पंख है, 'प्रमोद' बायां पंख है, 'आनन्द' मध्य भाग है और 'ब्रह्म' ही उसकी पूंछ, अर्थात् आधार है। उसे जानने वाला समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।
छठा अनुवाक
इस अनुवाक में 'आनन्दमय कोश' की व्याख्या की गयी है। ब्रह्म को 'सत्य' स्वीकार करने वाले सन्त कहलाते हैं। विज्ञानमय शरीर का 'आत्मा' ही आनन्दमय शरीर का भी 'आत्मा' है। परमात्मा अनेक रूपों में अपने आपको प्रकट करता है। उसने जगत् की रचना की और उसी में प्रविष्ट हो गया। वह वर्ण्य और अवर्ण्य से परे हो गया। किसी ने उसे 'निराकार' रूप माना, तो किसी ने 'साकार' रूप। अपनी-अपनी कल्पनाएं होने लगीं। वह आश्रय-रूप और आश्रयविहीन हो गया, चैतन्य और जड़ हो गया। वह सत्य रूप होते हुए भी मिथ्या-रूप हो गया। परन्तु विद्वानों का कहना है कि जो कुछ भी अनुभव में आता है, वही 'सत्य' है, परब्रह्म है, परमेश्वर है।
सातवां अनुवाक इस अनुवाक में सृष्टि के रचयिता परब्रह्म से 'सृकृत,' अर्थात् पुण्य-स्वरूप कहा गया है। प्रारम्भ में वह अव्यक्त ही था, परन्तु बाद में उसने अपनी इच्छा से स्वयं को जगत-रूप में उत्पन्न किया। वही 'जगत-रस' अर्थात् आनन्द है। उसी के कारण जीवन है और समस्त चेष्टाएं हैं। जब तक जीवात्मा, परमात्मा से अलग रहता है, तभी तक वह दुखी रहता है।
आठवां अनुवाक

  • इस अनुवाक में 'आनन्द' की विस्तृत व्याख्या की गयी है। कामनाओं से युक्त आनन्द की प्राप्ति, वास्तविक आनन्द नहीं है। केवल लौकिक आनन्द की प्राप्ति कर लेना ही आनन्द नहीं है, उसके लिए समग्र व्यक्तित्व का श्रेष्ठ होना भी परम आवश्यक है।
  • ऋषि कहता है कि यह चराचर जगत् ब्रह्म के भय से ही क्रियारत है। वायु सूर्य, अग्नि, इन्द्र, मृत्युदेव यम, सभी उसके भय से कर्मों में प्रवृत्त हैं।
  • इस पृथ्वी पर जो लौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वह एक साधारण आनन्द है। मनुष्यलोक के ऐसे सौ आनन्द मानव-गन्धर्वलोक के एक आनन्द के बराबर हैं। मानव-गन्धर्वलोक के सौ आनन्द, देव-गन्धर्वलोक के एक आनन्द के समान है। देव-गन्धर्वलोक के सौ आनन्द पितृलोक के एक आनन्द के समान, पितृलोक के सौ आनन्द संज्ञक देवों के एक आनन्द के समान, संज्ञक देवों की सौ आनन्द कर्मक देव संज्ञक देवों के एक आनन्द के समान, कर्मक देव संज्ञक देवों के सौ आनन्द देवों के एक आनन्द के समान, देवों के सौ आनन्द इन्द्र के एक आनन्द के समान, इन्द्र के सौ आनन्द बृहस्पति के एक आनन्द के समान तथा देव प्रजापति बृहस्पति के सौ आनन्द ब्रह्म के एक आनन्द के बराबर हैं।
  • परन्तु जो कामनारहित साधक है, उसे ये आनन्द सहज रूप से ही प्राप्त हो जाते हैं। जो 'ब्रह्म' इस मनुष्य के शरीर में विद्यमान है, वही 'सूर्य' में है। जो साधक इस रहस्य को जान जाता है, वह अन्नमय आत्मा से विज्ञानमय आत्मा तक का मार्ग करके 'आनन्दमय आत्मा' को प्राप्त कर लेता है।

नवां अनुवाक
इस अनुवाक में ब्रह्मा का बोध कर लेने वाले साधक को पाप-पुण्य के भय से दूर बताया गया है। जिस 'ब्रह्म' की अनुभूति मन के साथ होती है और जिसे वाणी द्वारा अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता, उसे जब कोई साधक अपनी साधना से जान लेता है, तब उसे किसी बात की भी चिन्ता अथवा भय नहीं सताता। जो विद्वान् पाप-पुण्य के कर्मों को समान भाव से जानता है, वह पापों से अपनी रक्षा करने में पूरी तरह समर्थ होता है। जो विद्वान् पाप-पुण्य, दोनों ही कर्मों के बन्धन को जान लेता है, वह दोनों में आसक्त न होकर अपनी रक्षा करने में समर्थ होता है।

भृगुवल्ली

इसमें ऋषिवर भृगु की ब्रह्मपरक जिज्ञासा का समाधान उनके पिता महर्षि वरुण द्वारा किया जाता है। वे उन्हें तत्त्वज्ञान का बोध कराने के उपरान्त, साधना द्वारा उसे स्वयं अनुभव करने के लिए कहते हैं। तब वे स्वयं अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनन्द को ब्रह्म-रूप में अनुभव करते हैं। ऐसा अनुभव हो जाने पर महर्षि वरुण उन्हें आशीर्वाद देते हैं और अन्नादि का दुरुपयोग न करके उसे सुनियोजित रूप से वितरण करने की प्रणाली समझाते हैं। अन्त में परमात्मा के प्रति साधक के भावों और उसके समतायुक्त उद्गारों का उल्लेख करते हैं।
पहला अनुवाक
इस अनुवाक में भृगु वारुणि अपने पिता वरुण के पास जाकर 'ब्रह्म' के बारे में पूछते हैं। वरुण उन्हें बताते हैं कि अन्न, प्राण, चक्षु, श्रोत्र, मन और वाणी- ये सभी ब्रह्म की प्राप्ति के साधन हैं। ये सारे प्राणी, जिससे जन्म लेते हैं, उसी में लय हो जाते हैं। वही 'ब्रह्म' है। उसे साधना द्वारा जानने का प्रयास करो। इस प्रकार जानकर भृगु तप करने चले गये।
दूसरा अनुवाक
तप के बाद उन्हें बोध हुआ कि 'अन्न' ही ब्रह्म है; क्योंकि अन्न से ही जीवन है और अन्न के न मिलने से मृत्यु को प्राप्त जीव अन्न (पृथ्वी) में ही समा जाता है। उनके पिता वरुण ने भी उनकी सोच का समर्थन किया, किन्तु अभी और सोचने के लिए कहा। तप से ही 'ब्रह्म' को जाना जा सकता है।
तीसरा अनुवाक
पुन: तप करने के बाद भृगु को बोध हुआ कि 'प्राण' ही ब्रह्म है; क्योंकि उसी से जीवन है और उसी में जीवन का लय है। मिलने पर वरुण ऋषि ने अपने पुत्र की सोच का समर्थन किया, किन्तु अभी सोचने के लिए कहा। तप से ही 'ब्रह्म' को जाना जा सकता है।
चौथा अनुवाक
भृगु द्वारा पुन: तपस्या करने पर उन्हें बोध हुआ कि 'मन' ही ब्रह्म है, किन्तु वरुण ऋषि ने उन्हें और तप करने के लिए कहा कि तप से ही 'तत्त्व' को जाना जा सकता है। तप ही 'ब्रह्म' है।
पांचवा अनुवाक
भृगु ऋषि फिर तप करने लगे। तप के बाद उन्होंने जाना कि 'विज्ञान' ही 'ब्रह्म' है। वरुण ऋषि ने उसकी सोच का समर्थन तो किया, पर उसे और तप करने के लिए कहा। तप ही 'ब्रह्म' है। उसी से तत्त्व को जाना जा सकता है।
छठा अनुवाक
इस बार तप करने के पश्चात् भृगु मुनि ने जाना कि 'आनन्द' ही 'ब्रह्म' है। सब प्राणी इसी से उत्पन्न होते हैं, जीवित रहते हैं और मृत्यु होने पर इसी में समा जाते हैं। इस बार वरुण ऋषि ने उसे बताया कि वे 'ब्रह्मज्ञान' से पूर्ण हो गये हैं। जिस समय साधक 'ब्रह्म' के 'आनन्द-स्वरूप' को जान जाता है, उस समय वह प्रचुर अन्न, पाचन-शक्ति, प्रजा, पशु, ब्रह्मवर्चस तथा महान् कीर्ति से समप्न्न होकर महान् कहलाता है। ऋषि उन्हें बताते हैं कि श्रेष्ठतम 'ब्रह्मविद्या' किसी व्यक्ति-विशेष में स्थित नहीं है। यह परम व्योम (आकाश) में स्थित है। इसे साधना द्वारा ही जाना जा सकता है। कोई भी साधक इसे जान सकता है।
सातवां अनुवाक
ऋषि ने कहा कि अन्न की कभी निन्दा नहीं करनी चाहिए। 'प्राण' ही अन्न है। शरीर में प्राण है और यह शरीर प्राण के आश्रय में है। अन्न में ही अन्न की प्रतिष्ठा है। जो साधक इस मर्म को समझ जाता है, वह अन्न-पाचन की शक्ति, प्रजा, पशु, ब्रह्मवर्चस का ज्ञाता होकर महान् यश को प्राप्त करता है।
आठवां अनुवाक
अन्न का कभी तिरस्कार न करें। यह व्रत है। जल अन्न है। तेजस अन्न का भोग करता है। तेजस जल में स्थित है और तेजस में जल की स्थिति है। इस प्रकार अन्न में ही अन्न प्रतिष्ठित है। जो साधक इस रहस्य को जान लेता है, वह अन्न रूप ब्रह्म में प्रतिष्ठत हो जाता है। उसे सभी सुख, वैभव और यश प्राप्त हो जाते हैं और वह महान् हो जाता है।
नौवां अनुवाक
इसीलिए अन्न की पैदावार बढ़ायें। पृथ्वी ही अन्न है और अन्न का उत्पादन बढ़ाना ही संकल्प होना चाहिए। आकाश अन्न का आधार है, इसीलिए वह उसका उपभोक्ता है। पृथ्वी में आकाश और आकाश में पृथ्वी स्थित है। इस प्रकार अन्न में ही अन्न अधिष्ठित है। जो साधक इस रहस्य को जान लेता है, वह यश का भागी होता है। उसे समस्त सुख-वैभव सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं।
दसवां अनुवाक

  • इस अनुवाक में ऋषि बताते हैं कि घर में आये अतिथि का कभी तिरस्कार न करें। जिस प्रकार भी बने, अतिथि का मन से आदर-सत्कार करें। उसे प्रेम से भोजन करायें। आप उसे जिस भाव से भी-ऊंचे, मध्यम अथवा निम्न-भाव से भोजन कराते हैं, आपको वैसा ही अन्न प्राप्त होता है। जो इस तथ्य को जानता है, वह अतिथि का उत्तम आदर-सत्कार करता है। वह *परमात्मा, मनुष्य की वाणी में शक्ति-रूप से विद्यमान है। वह प्राण-अपान में प्रदाता भी है और रक्षक भी है। वह हाथों में कर्म करने की शक्ति, पैरों में चलने की गति, गुदा में विसर्जन की शक्ति के रूप में स्थित है। यह ब्रह्म की 'मानुषी सत्ता' है।
  • परमात्मा अपनी 'दैवी सत्ता' का प्रदर्शन वर्षा द्वारा, विद्युत द्वारा, पशुओं द्वारा, ग्रह-नक्षत्रों की ज्योति द्वारा, उपस्थ में प्रजनन-सामर्थ्य द्वारा, वीर्य और आनन्द के द्वारा अभिव्यक्त करता है। वह आकाश में व्यापक विश्व अथवा ब्रह्माण्ड के रूप में स्थित है। वह सबका आधार रस है। वह सबसे महान् है। वह 'मन' है, वह नमन के योग्य है, वह ब्रह्म है, वह आकाश है, वह मृत्यु है, वह सूर्य है, वह अन्नमय आत्मा है, वह प्राणमय है, वह मनोमय है, वह विज्ञानमय है, वह आनन्दमय है।
  • इस प्रकार जो उसे जान लेता है, वह मननशील, सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करे लेने वाला, ब्रह्ममय, शत्रु-विनाशक और इच्छित भोगों को प्राप्त करने वाला महान् आनन्दमय साधक हो जाता है। सभी लोकों में उसका गमन सहज हो जाता है।
  • तब उसे आश्चर्य होता है कि वह स्वयं आत्मतत्त्व अन्न है, आत्मा है, स्व्यं ही उसे भोग करने वाला है। वही उसका नियामक है और वही उसका भोक्ता है। वही मन्त्र है और वही मन्त्रद्रष्टाहै। वही इस प्रत्यक्ष सत्य-रूप जगत् का प्रथम उत्पत्तिकर्ता है और वही उसको लय कर जाता है। उसका तेज सूर्य के समान है। जो साधक ऐसा अनुभव करने लगता है, वह उसी के अनुरूप सामर्थ्यवान हो जाता है।



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