नारद पुराण

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नारद पुराण, गीताप्रेस गोरखपुर का आवरण पृष्ठ

'नारद पुराण' एक वैष्णव पुराण है। इस पुराण के विषय में कहा जाता है कि इसका श्रवण करने से पापी व्यक्ति भी पाप मुक्त हो जाते हैं। पापियों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि जो व्यक्ति ब्रह्महत्या का दोषी है, मदिरापान करता है, मांस भक्षण करता है, वेश्यागमन करता हे, लहसुन-प्याज खाता है तथा चोरी करता है; वह पापी है। इस पुराण का प्रतिपाद्य विषय 'विष्णु भक्ति' है। नारद जी विष्णु के परम भक्त हैं।

'नारद पुराण' के प्रारम्भ में ऋषिगण सूत जी से पांच प्रश्न पूछते हैं-

  • भगवान विष्णु को प्रसन्न करने का सरल उपाय क्या है?
  • मनुष्यों को मोक्ष किस प्रकार प्राप्त हो सकता है?
  • भगवान के भक्तों का स्वरूप कैसा हो और भक्ति से क्या लाभ है?
  • अतिथियों का स्वागत-सत्कार कैसे करें?
  • वर्णों और आश्रमों का वास्तविक स्वरूप क्या है?

सूत जी ने उपर्युक्त प्रश्नों का सीधा उत्तर नहीं दिया। अपितु सनत्कुमारों के माध्यम से बताया कि भगवान विष्णु ने अपने दक्षिण भाग से ब्रह्मा और वाम भाग से शिव को प्रकट किया था। लक्ष्मी, उमा, सरस्वती देवी और दुर्गा आदि विष्णु की ही शक्तियां हैं। श्री विष्णु जी को प्रसन्न करने का सर्वोत्तम साधन श्रद्धा, भक्ति और सदाचरण का पालन करना है। जो भक्त निष्काम भाव से ईश्वर की भक्ति करता है और अपनी समस्त इन्द्रियों को मन द्वारा संयमित रखता है; वही ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त कर सकता है। यदि ऐसा भक्ति से ईश्वर का संयोग प्राप्त हो जाए तो उससे बड़ा लाभ और क्या हो सकता है?

भारत में अतिथि को देवता के समान माना गया है। अतिथि का स्वागत देवार्चन समझकर ही करना चाहिएं वर्णों और आश्रमों का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए यह पुराण ब्राह्मण को चारों वर्णों में सर्वश्रेष्ठ मानता है। उनसे भेंट होने पर सदैव उनका नमन करना चाहिए। क्षत्रिय का कार्य ब्राह्मणों की रक्षा करना है तथा वैश्य का कार्य ब्राह्मणों का भरण-पोषण और उनकी इच्छाओं की पूर्ति करना है। दण्ड-विधान, विवाह तथा अन्य सभी कर्मकाण्डों में ब्राह्मणों को छूट और शूद्रों को कठोर दण्ड देने की बात कही गई है।

आश्रम व्यवस्था के अंतर्गत ब्रह्मचर्य का कठोरता से पालन करने तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने वालों को अन्य तीनों आश्रमों (ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और सन्न्यास) में विचरण करने वालों का ध्यान रखने की बात कही गई है।

इस प्रकार वर्णाश्रम व्यवस्था में यह पुराण ब्राह्मणों का ही सर्वाधिक पक्ष लेता दिखाई पड़ता है। क्षत्रिय और वैश्यों के प्रति इसका स्वार्थी दृष्टिकोण है जबकि शूद्रों के प्रति कठोरता का व्यवहार प्रतिपादित है। 'नारद पुराण' में गंगावतरण का प्रसंग और गंगा के किनारे स्थित तीर्थों का महत्त्व विस्तार से वर्णित किया गया है। सूर्यवंशी राजा बाहु का पुत्र सगर था। विमाता द्वारा विष दिए जाने पर ही उसका नाम 'सगर' पड़ा था। सगर द्वारा शक और यवन जातियों से युद्ध का वर्णन भी इस पुराण में मिलता है। सगर वंश में ही भगीरथ हुए थे। उनके प्रयास से गंगा स्वर्ग से पृथ्वी पर आई थीं। इसीलिए गंगा को 'भागीरथी' भी कहते हैं।

अट्ठारह पुराणों में नारद पुराण का क्रम छठवां है। इस पुराण में 25000 श्लोक थे जिनमें से इस समय 18,110 श्लोक ही उपलब्ध हैं, बाक़ी के श्लोक लुप्त हैं। इस पुराण में व्रत महातम्य, तीर्थ महातम्य के विषय में विशेष निरूपण है। 12वीं सदी के आसपास का यह पुराण है। शंकर वेदांत का प्रभाव इसमें स्पष्ट दिखाई देता है। 'नारद पुराण' को दो भागों में विभक्त किया गया है- पूर्व भाग और उत्तर भाग। पहले भाग में एक सौ पच्चीस अध्याय और दूसरे भाग में बयासी अध्याय सम्मिलित हैं। यह पुराण इस दृष्टि से काफ़ी महत्त्वपूर्ण है कि इसमें अठारह पुराणों की अनुक्रमणिका दी गई है।

पूर्व भाग

पूर्व भाग में ज्ञान के विविध सोपानों का सांगोपांग वर्णन प्राप्त होता है। ऐतिहासिक गाथाएं, गोपनीय धार्मिक अनुष्ठान, धर्म का स्वरूप, भक्ति का महत्त्व दर्शाने वाली विचित्र और विलक्षण कथाएं, व्याकरण, निरूक्त, ज्योतिष, मन्त्र विज्ञान, बारह महीनों की व्रत-तिथियों के साथ जुड़ी कथाएं, एकादशी व्रत माहात्म्य, गंगा माहात्म्य तथा ब्रह्मा के मानस पुत्रों-सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार आदि का नारद से संवाद का विस्तृत, अलौकिक और महत्त्वपूर्ण आख्यान इसमें प्राप्त होता है। अठारह पुराणों की सूची और उनके मन्त्रों की संख्या का उल्लेख भी इस भाग में संकलित है।

उत्तर भाग

उत्तर भाग में महर्षि वसिष्ठ और ऋषि मान्धाता की व्याख्या प्राप्त होती है। यहाँ वेदों के छह अंगों का विश्लेषण है। ये अंग हैं- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छंद और ज्योतिष।

शिक्षा - शिक्षा के अंतर्गत मुख्य रूप से स्वर, वर्ण आदि के उच्चारण की विधि का विवेचन है। मन्त्रों की तान, राग, स्वर, ग्राम और मूर्च्छता आदि के लक्षण, मन्त्रों के ऋषि, छंद एवं देवताओं का परिचय तथा गणेश पूजा का विधान इसमें बताया जाता है।

कल्प - कल्प में हवन एवं यज्ञादि अनुष्ठानों के सम्बंध में चर्चा की गई है। इसके अतिरिक्त चौदह मन्वन्तर का एक काल या 4,32,00,00,000 वर्ष होते हैं। यह ब्रह्मा का एक दिन कहलाता है। अर्थात् काल गणना का उल्लेख तथा विवेचन भी किया जाता है।

व्याकरण- व्याकरण में शब्दों के रूप तथा उनकी सिद्धि आदि का पूरा विवेचन किया गया है।

निरूक्त- इसमें शब्दों के निर्वाचन पर विचार किया जाता है। शब्दों के रूढ़ यौगिक और योगारूढ़ स्वरूप को इसमें समझाया गया है।

ज्योतिष - ज्योतिष के अन्तर्गत गणित अर्थात् सिद्धान्त भाग, जातक अर्थात् होरा स्कंध अथवा ग्रह - नक्षत्रों का फल, ग्रहों की गति, सूर्य संक्रमण आदि विषयों का ज्ञान आता है।

छंद - छंद के अन्तर्गत वैदिक और लौकिक छंदों के लक्षणों आदि का वर्णन किया जाता है। इन छन्दों को वेदों का चरण कहा गया है, क्योंकि इनके बिना वेदों की गति नहीं है। छंदों के बिना वेदों की ऋचाओं का सस्वर पाठ नहीं हो सकता। इसीलिए वेदों को 'छान्दस' भी कहा जाता है। वैदिक छन्दों में गायत्री, शम्बरी और अतिशम्बरी आदि भेद होते हैं, जबकि लौकिक छन्दों में 'मात्रिक' और 'वार्णिक' भेद हैं। भारतीय गुरुकुलों अथवा आश्रमों में शिष्यों को चौदह विद्याएं सिखाई जाती थीं- चार वेद, छह वेदांग, पुराण, इतिहास, न्याय और धर्म शास्त्र।

'नारद पुराण' में विष्णु की पूजा के साथ-साथ राम की पूजा का भी विधान प्राप्त होता है। हनुमान और कृष्णोपासना की विधियां भी बताई गई हैं। काली और महेश की पूजा के मन्त्र भी दिए गए हैं। किन्तु प्रमुख रूप से यह वैष्णव पुराण ही है। इस पुराण के अन्त में गोहत्या और देव निन्दा को जघन्य पाप मानते हुए कहा गया है कि 'नारद पुराण' का पाठ ऐसे लोगों के सम्मुख कदापि नहीं करना चाहिए।

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