यह यजुर्वेद की वाजसनेयि संहिता की काण्व और माध्यन्दिन दोनों शाखाओं से सम्बद्ध है, किन्तु विनियुक्त मन्त्रों का ग्रहण काण्व शाखा से ही अधिक किया गया है। इसका विभाजन 26 अध्यायों में है। प्रत्येक अध्याय कतिपय कण्डिकाओं में विभक्त है। तीन अध्यायों (22–24) को छोड़कर, जो सामवेदीय ताण्ड्य महाब्राह्मण के अनुरूप हैं, शेष भाग में शतपथ ब्राह्मणोक्त विधियों का प्रायेण अनुगमन है, जो नितरां स्वाभाविक है। शतपथ में भी इसकी काण्वशाखा का अधिक प्रभाव इस पर परिलक्षित होता है।
विषय वस्तु
अध्याय–क्रम से कात्यायन श्रौतसूत्र में वर्णित विषय–वस्तु का विवरण इस प्रकार है–
प्रश्न |
विषय
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अध्याय 1 |
परिभाषा;
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अध्याय 2-3 |
दर्शपूर्णमास,
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अध्याय 4 |
पिण्डपितृयज्ञ, दाक्षायणयज्ञ, अन्वारम्भणीयेष्टि, आग्रयणेष्टि, अग्न्याधेय तथा अग्निहोत्र,
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अध्याय 5 |
निरूढ पशुबन्ध,
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अध्याय 6-11 |
अग्निष्टोम,
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अध्याय 12 |
द्वादशाह,
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अध्याय 13 |
गवामयनसत्र,
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अध्याय 14 |
वाजपेय,
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अध्याय 15 |
राजसूय,
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अध्याय 16-18 |
अग्निचयन,
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अध्याय 19 |
कौकिली सौत्रामणी,
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अध्याय 20 |
अश्वमेध,
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अध्याय 21 |
पुरुषमेध, सर्वमेध, पितृमेध,
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अध्याय 22 |
एकाह,
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अध्याय 23-24 |
अहीन,
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अध्याय 25 |
प्रायश्चित्त,
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अध्याय 26 |
प्रवर्ग्य।
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जातूकर्ण्य, वात्स्य तथा बादरि आचार्यों का इसमें नाम्ना उल्लेख है। अन्य शाखान्तरीय अथवा स्वशाखीय मतों का उल्लेख 'इत्येके' अथवा 'इत्येकेषाम्' कहकर किया गया है। जैमिनि के पूर्वमीमांसा सूत्रों का इस पर बहुत अधिक प्रभाव है। पूर्वमीमांसागत श्रुति, लिंग, वाक्य, प्रकरण, स्थान और समाख्या; इन छ: प्रमाणों का भी इसमें उल्लेख है। क्रम, तन्त्र, अतिदेश प्रभृति मीमांसा की पारिभाषिक शब्दावली का बहुधा प्रयोग देखा जा सकता है।