भक्ति रस
भरतमुनि[1] से लेकर पण्डितराज जगन्नाथ[2] तक संस्कृत के किसी प्रमुख काव्याचार्य ने ‘भक्ति रस’ को रसशास्त्र के अन्तर्गत मान्यता प्रदान नहीं की। जिन विश्वनाथ ने वाक्यं रसात्मकं काव्यम् के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया और ‘मुनि-वचन’ का उल्लघंन करते हुए वात्सल्य को नव रसों के समकक्ष सांगोपांग स्थापित किया, उन्होंने भी 'भक्ति' को रस नहीं माना। भक्ति रस की सिद्धि का वास्तविक स्रोत काव्यशास्त्र न होकर भक्तिशास्त्र है, जिसमें मुख्यतया ‘गीता’, ‘भागवत’, ‘शाण्डिल्य भक्तिसूत्र’, ‘नारद भक्तिसूत्र’, ‘भक्ति रसायन’ तथा ‘हरिभक्तिरसामृतसिन्धु’ प्रभूति ग्रन्थों की गणना की जा सकती है।
भक्ति रस या भाव
भक्ति को रस मानना चाहिए या भाव, यह प्रश्न इस बीसवीं शताब्दी तक के काव्य-मर्मज्ञों के आगे एक जटिल समस्या के रूप में सामने आता रहा है। कुछ विशेषज्ञ भक्ति को बलपूर्वक रस घोषित करते हैं। कुछ परम्परानुमोदित रसों की तुलना में उसे श्रेष्ठ बताते हैं, कुछ शान्त रस और भक्ति रस में अभेद स्थापित करने की चेष्टा करते हैं तथा कुछ उसे अन्य रसों से भिन्न, सर्वथा आलौकिक, एक ऐसा रस मानते हैं, जिसके अन्तर्गत शेष सभी प्रधान रसों का समावेश हो जाता है। उनकी दृष्टि में भक्ति ही वास्तविक रस है। शेष रस उनके अंग या रसाभासमात्र हैं। इस प्रकार भक्ति रस का एक स्वतंत्र इतिहास है, जो रस तत्त्व विवेचन की दृष्टि से महत्ता रखता है।
- ‘नाट्यशास्त्र’ के सर्वप्रधान व्याख्याता अभिनव गुप्त[3] ने भरतमुनि के रस-सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए शान्त को नवाँ रस सिद्ध कर दिया, पर नव रसों के अतिरिक्त अन्य किसी रस की स्वतंत्र स्थिति को स्वीकार नहीं किया। सबका नौ में से ही किसी न किसी रस में अन्तर्भाव मान लिया और - ‘एवं भक्तावपि वाच्यमिति’ लिखकर वही बात भक्ति पर भी लागू कर दी। यही नहीं, उन्होंने भक्ति को रस मानने का स्पष्ट निषध भी किया है। यथा -
‘अतएवेश्वरप्रणिधानविषये भक्तिश्रद्धेस्मृतिमतिधृत्युत्साहाद्यनुप्रविष्टेभ्योऽन्यथैवागमिति न तयो: पृथक् रसत्वेन गणनम्’[4], अर्थात् अतएव ईश्वरोपासना विषयक भक्ति और श्रद्धा, स्मृति, मति, धृति, उत्साह आदि में ही समाविष्ट होने के कारण अंगरूप ही है, अत: उनका पृथक् रसरूप से परिगणन नहीं होता।
- मम्मट[5]ने भक्ति का न तो शान्त रस में अन्तर्भाव माना और न ही स्वतंत्र रसरूप में ही उसे स्थापित कर सके। अभिनवगुप्त की उक्त धारणा से भी वे सन्तुष्ट नहीं हुए, अतएव मध्यम मार्ग का अनुसरण करते हुए उन्होंने भक्ति की मूल भावना ‘देवादिविषयक रति’ को व्यभिचारी भावों से पुष्ट भाव विशेष के रूप में स्पष्ट मान्यता दे दी -
'रतिर्देवादिविषया व्यभिचारी तथाऽञ्जित:। भाव:, प्रोक्त:[6]।'
- क्या रस इतने (नौ) ही हैं? इस प्रश्न को सामने रखकर जगन्नाथ [7] ने अपने पूर्वपक्ष का निरूपण करते हुए भक्ति को रस मानने वाले मत के आधार से पूरी अभिज्ञता प्रदर्शित की -
'भगवान जिसके आलम्ब्न हैं, रोमांच, अश्रुपातादि जिसके अनुभाव हैं, भागवतादि पुराण श्रवण के समय भगवद्भक्त जिसका प्रकट अनुभव करते हैं और भगवान के प्रति अनुरागस्वरूपा भक्ति ही जिसका स्थायी भाव है, उस जीवन रस का शान्त रस में अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता है, क्योंकि अनुराग और विराग परस्पर विरोधी हैं। किन्तु भक्ति देवादिरति - विषय से सम्बन्ध रखती है। अतएव वह भाव के अन्तर्गत है और उसमें रसत्व नहीं माना जा सकता[8]।
पहले तो लेखक ने रस के विभाव, अनुभाव, संचारी तथा स्थायी सभी रसांगों का उल्लेख करके उसका पूरा स्वरूप खड़ा किया, फिर रस के नवत्व की रूढ़ि के आग्रह से उसने शान्त रस में भक्ति रस के अन्तर्भाव पर विचार किया है। तदनन्तर ‘मुनि वचन’ का उल्लघंन न हो जाए, यह सोचकर भक्ति को रस न मानकर भाव मानने के पक्ष का ही समर्थन कर दिया। तर्क यह दिया कि देवादिविषयक रति के आधार पर भक्ति को रस माना जायेगा तो पुत्रादि विषयक रति के आधार पर स्वतंत्र वात्सल्य रस को भी मानना पड़ेगा। यही नहीं, इससे आगे जुगुत्सा और शोक को स्थायी भाव न मानकर शुद्ध भाव ही मनवाने का आग्रह किया जा सकता है। जिसके परिणामस्वरूप सारा रसशास्त्र विश्रृंखल हो जाने की आशंका होती है[9]। अतएव मुनि वचन से नियन्त्रित रसों की नवत्व गणना ही मान्य होनी चाहिए। यहाँ पण्डितराज ने निश्चय ही संकीर्ण परम्परावादी दृष्टिकोण का परिचय दिया है। अनुराग और विराग के विरोध की जो महत्त्वपूर्ण समस्या उन्होंने उठायी, उसका भी समुचित विश्लेषण विवेचन नहीं किया गया। भक्ति में अनुराग ईश्वर के प्रति और विराग संसार के प्रति रहता है, अत: आलम्बन भेद होने से दोनों का वैसे विरोध सिद्ध नहीं होता, जैसे ‘रसगंगाधर’ के रचयिता ने परिकल्पित कर लिया।
- भामह[10], दण्डी[11] आदि के द्वारा मान्य ‘प्रेयस’ अलंकार में जिन रत्यादिक भावों का समावेश होता था, उनमें पुत्रविषयक रति की तरह देवादिविषयक रति की भी गणना की जा सकती है, इसका सप्रमाण निर्देश करते हुए भक्ति रस के विकास का कुछ सम्बन्ध उक्त अलंकार से भी बताया गया है।[12] भक्तिशास्त्र में गीता - उपनिषद के अन्तर्गत ब्रह्म के रसमय तथा आनन्दमय होने का अनेक स्थानों पर उल्लेख मिलता है। गीता में भक्ति और भक्त को विशेष महत्ता प्रदान की गई है, किन्तु ‘भागवतपुराण’ को ही भक्ति को व्यापक एवं श्रेष्ठ रसरूप में प्रतिष्ठापित करने का मौलिक श्रेय है। ‘भागवत’ के प्रारम्भ में ही भगवद्विषयक आलौकिक रस तथा उसके रसिकों का उल्लेख मिलता है -
'निगमकल्पतरोर्गलितं फलं शुकमुखादमृतद्रवसंसुतम्।
पिबत भागवतं रसमालयम् मुहुरहो रसिका भुवि भावुका:।[13]
- भक्ति रस की महत्ता तथा उसका स्वरूप ‘भागवत’ में स्थान-स्थान पर व्यक्त किया है।[14]
- शाण्डिल्य भक्तिसूत्र में भक्ति को ‘परानुरक्तिरीश्वरे’ रूप में परिभाषित करते हुए उसे द्वेष की विरोधिनी तथा ‘रस’ से प्रतिपाद्य होने के कारण भी रागस्वरूपा माना गया है-
‘द्वेषप्रतिपक्षभावाद्रसशब्दाच्च राग:।[15]।
- इसी तरह ‘नारद भक्तिसूत्र’ में भक्ति को ‘परमप्रेमरूपा’ कहा गया है। इन सूत्र ग्रन्थों में ज्ञान और भक्ति के पारस्परिक सम्बन्ध तथा राग और विराग की भावना के भक्तिगत अविरोध पर भी सूक्ष्म प्रकाश डाला गया है। भक्ति की उपलब्धि अमृतत्व, तृप्ति और सिद्धिकारक होती है तथा उससे शोक, द्वेष, रति और उत्साह आदि का शमन होता है। [16] इसे बताकर शान्त और भक्ति रस के बीच जो द्वैध खड़ा करने की चेष्टा की जाती है, उसका तात्त्विक निषध किया गया है।
- मधुसूदन सरस्वती के ‘भक्तिरसायन’ नामक ग्रन्थ में भक्ति के आलौकिक महत्त्व और रसत्व का विशद निरूपण करते हुए उसे एक ओर दसवाँ रस बताया गया है, तो दूसरी ओर सब रसों से श्रेष्ठ भी माना गया है। उसके रसांगों का निर्देश भी ‘भक्तिरसायन’ में मिलता है।
- ‘भगवद्भक्तिचन्द्रिका’ नामक ग्रन्थ के रचयिता ने भी पराभक्ति को रस कहा है- पराभक्ति: प्रोक्ता रस इति।[17]
- गौड़ीय सम्प्रदाय के प्रतिष्ठित आचार्य रूपगोस्वामी[18] कृत ‘हरिभक्तिरसामृतसिन्धु’ में काव्य शास्त्रीय दृष्टि से भक्ति रस का विस्तार एक सुनिश्चित व्यवस्था के साथ किया गया है। ‘भागवत’ के बाद भक्ति रस की मान्यता का सर्वाधिक श्रेय रूपगोस्वामी को ही है। उन्होंने भक्ति के पाँच रूप माने हैं -
- शान्ति,
- प्रीति,
- प्रेय,
- वत्सल
- मधुर।
ये शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य पाँच भाव-भक्ति के मूल हैं। उत्कृष्टता के आधार पर भक्ति रस पराकोटि और अपराकोटि का माना गया है। इन भावों का मूल ‘भागवत’ की नवधा भक्ति तथा ‘नारद भक्ति सूत्र’ की एकादश आसक्तियों में मिल जाता है। ग्रन्थ के दक्षिण विभाग में भक्ति के रसांगों का विवेचन विस्तार सहित किया गया है। चैतन्य महाप्रभु गौड़ीय भक्ति सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे। उनकी उपासना का आधार रसप्लावित तीव्र प्रमानुभूति रही है। अतएव उन्हीं के सम्प्रदाय में भक्ति रस का विशद विस्तार हुआ, यह स्वाभाविक ही था।
- हिन्दी में रीतिकालीन काव्याचार्यों ने भक्तिमूलक काव्य की तो रचना की, परन्तु काव्य रस के रूप में भक्ति की प्रतिष्ठा का कदाचित् कोई भी प्रयास उन्होंने नहीं किया। देव ने अवश्य भक्ति रस पर विचार करते हुए उसको प्रेम, शुद्ध तथा प्रेमशुद्ध नामक तीन भेद किए हैं और प्रेमाश्रयी भक्ति के अन्तर्गत शान्त की गणना की है।
- आधुनिक लेखकों में ‘हरिऔध’ को इस स्थिति से सबसे अधिक क्षोभ हुआ, जो उनके ‘वात्सल्य रस’ शीर्षक में भक्तिविषयक प्रसंगान्तर बनकर तीव्रता से व्यक्त हुआ। भक्ति रस का महत्त्व अन्य रसों की तुलना में बताते हुए उन्होंने लिखा- रसो वै स:। रस शब्द का अर्थ है - य: रसयति आनन्दयति स रस:। वैष्णवों को माधुर्य उपासना परम प्रिय है। अतएव भगवदनुरागरूपा भक्ति को रस मानते हैं।.....मेरा विचार कि वत्सल में उतना चमत्कार नहीं, जितना भक्ति में.... । हरिश्चन्द्र ने ‘भक्ति या दास्य’ लिखकर उसे दास्य तक परिमित कर दिया है, किन्तु भक्ति बहुत व्यापक और उदात्त है, साथ ही उसमें इतना चमत्कार है कि श्रृंगार रस भी समता नहीं कर सकता।[19]
- इसी प्रकार कन्हैयालाल पोद्दार ने भी इस समस्या पर विचार करते हुए कि ‘भक्ति भाव है या रस’ अपना मत बलपूर्वक भक्ति के रसत्व के पक्ष में दिया है-
दुख और आश्चर्य है कि जिन साक्ष्याभास श्रृंगारादि रसों में चिदानन्द के अंशांश के स्फुरण मात्र से रसानुभूति होती है, उनको रस संज्ञा दी जाती है और जो साक्षात् चिदानन्दात्मक भक्ति रस है, उसे रस न मानकर भाव माना गया है। यही क्यों, क्रोध, भय, जुगुत्सा आदि स्थायी भावों को (जो प्रत्यक्षत: सुखविरोधी हैं) रौद्र, करुण, भयानक और बीभत्स रस की संज्ञा दी गई है।[20]
पोद्दार ने भक्ति रस के रसांगों की व्याख्या निम्नलिखित रूप में निर्धारित की है और सबको आलौकिक माना है। स्थायी भाव - भगवद्विषयक अनुराग। आलम्बन विभाग - भगवान राम, कृष्ण आदि के अखिल विश्व सौन्दर्य निधि दिव्य विग्रह। अनुभाव-भगवान के अनन्य प्रेमजन्य अश्रु, रोमांच आदि। व्यभिचारी भाव-हर्षश, सुख, आवेग, चपलता, उन्माद, चिन्ता, दैन्य, धृति, स्मृति और मति। शान्त रस की तरह ही उन्होंने भक्ति रस को वास्तविक ब्रह्मनन्द सहोदर बताया है। रति स्थायी आलम्बन भेद से ही रस या भाव होता है, अतएव आलौकिक आलम्बन होने से तो यह आलौकिक भक्ति रस होगा ही।
- आधुनिक मराठी रस शास्त्रियों ने भक्ति रस की समस्या पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया है। वाटवे ने बीभत्स तथा रौद्र रस को कम करके नव रसों में उनके स्थान पर वात्सल्य और भक्ति रस को स्थापित करने का प्रस्ताव किया है।[21]
- डी. के. बेडेकर ने इससे भरत के रस-चतुष्टय की व्याख्या भंग होती हुई देखकर वाटवे के मत का तीव्र विरोध किया है। उनकी धारणा है कि रस-व्यवस्था का मूल आधार ‘देवासुर-कथा’ है और रौद्र और बीभत्स को निकाल देने से वह बिना रावण के रामायण जैसी एकपक्षी हो जाती है।[22]
- मा. दा. आलतेकर भक्ति का श्रृंगार में अन्तर्भाव करते हैं, इसी तरह कृ. कोल्हटकर अद्भुत में। आनन्दप्रकाश दीक्षित ने इनके मत का सतर्क विरोध किया है। द. सा. पंगु निर्जीव आलम्बन होने से, रा. श्री जोग भक्ति की अव्यापकता तथा उसके मूल में भावना न होने से तथा रा. हिंगणेकर शक्ति के विक्रियाहीन होने से उसकी रसत्व का अधिकारी नहीं मानते। शिवराम पन्त ने भक्ति के विविध रूपों की कल्पना करके ‘देशभक्ति’ को स्वतंत्र रस बताया है, जिसका स्थायी भाव उन्होंने ‘देशभिमान’ निर्धारत किया है।
निष्कर्ष
वस्तुत: भक्ति रस का आलम्बन लौकिक न होकर आलौकिक ही मानना समीचीन होगा। भक्तिशास्त्र में निराकार-निर्गुण ब्रह्म की अवतारवाद के आधार पर इस प्रकार सगुण-साकार कल्पना की गई कि वह भक्ति-भावना का वास्तविक आलम्बन बन सका। निश्चय ही भक्ति काव्य में भावना का जो विस्तार भारतीय साहित्य में मिलता है, उसको देखते हुए भक्ति को रस न स्वीकार करना वस्तुस्थिति की उपेक्षा करना है। यह अवश्य है कि महत्त्व के साथ भक्ति रस की अपनी अनेक सीमाएँ भी हैं, जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। भारत की सभी प्रमुख प्रान्तीय भाषाओं में भक्ति का साहित्य उपलब्ध होता है। हिन्दी साहित्य में सूर, तुलसी, मीरा आदि की रचनाएँ भी भक्ति रस का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। निर्गुणधारा के काव्य में जहाँ तक वैष्णव भावना का प्रवेश हुआ है, वहीं तक भक्ति रस की व्याप्ति है, अन्यथा नहीं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 3 शती ई.
- ↑ 17-18 शती ई.
- ↑ 10-11 शती ई.
- ↑ अभिनवभारती
- ↑ (12 शती ई. पूर्वा)
- ↑ काव्य प्रकाश, 4|35
- ↑ 17-18 शती ई.
- ↑ रस गंगाधर, पृष्ठ 45-46
- ↑ इत्यखिलदर्शन: व्याकुली स्यात्
- ↑ 7वीं शती ई. पूर्वा.
- ↑ 7वीं शती ई.
- ↑ संस्कृत साहित्य का इतिहास, कन्हैयालाल पोद्दार, पृष्ठ 90-91
- ↑ भागवत, 1|3
- ↑ भागवत, श्लोक-4|9|10; 6|12|22; 11|3|32 आदि
- ↑ भक्तिसूत्र, 6
- ↑ नारद भक्तिसूत्र, 4-5
- ↑ अमृतरसोल्लास
- ↑ 15-16 शती ई.
- ↑ कोशोत्सव स्मारक संग्रह, पृष्ठ 425-26
- ↑ सा. स., पृष्ठ 72-73
- ↑ रस-विमर्श
- ↑ आलोचना, अंक 4 : पृष्ठ 86
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