हास्य रस

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हास्य रस का स्थायी भाव हास है। ‘साहित्यदर्पण’[1] में कहा गया है - "बागादिवैकृतैश्चेतोविकासो हास इष्यते", अर्थात वाणी, रूप आदि के विकारों को देखकर चित्त का विकसित होना ‘हास’ कहा जाता है।

  • पण्डितराज का कथन है - 'जिसकी, वाणी एवं अंगों के विकारों को देखने आदि से, उत्पत्ति होती है और जिसका नाम खिल जाना है, उसे ‘हास’ कहते हैं।"
  • भरतमुनि ने कहा है कि दूसरों की चेष्टा से अनुकरण से ‘हास’ उत्पन्न होता है, तथा यह स्मित, हास एवं अतिहसित के द्वारा व्यंजित होता है "स्मितहासातिहसितैरभिनेय:।"[2] भरत ने त्रिविध हास का जो उल्लेख किया है, उसे ‘हास’ स्थायी के भेद नहीं समझना चाहिए।
  • केशवदास ने चार प्रकार के हास का उल्लेख किया है -
  1. मन्दहास,
  2. कलहास,
  3. अतिहास एवं
  4. परिहास
  • अन्य साहित्यशास्त्रियों ने छ: प्रकार का हास बताये है -
  1. स्मित
  2. हसित,
  3. विहसित
  4. उपहसित,
  5. अपहसित
  6. अतिहसित।
  1. जब नेत्रों तथा कपोलों पर कुछ विकास हो तथा अधर आरंजित हों, तब स्मित होता है।
  2. यदि नेत्रों एवं कपोलों के विकास के साथ दाँत भी दीख पड़ें तो हसित होता है।
  3. नेत्रों और कपोलों के विकास के साथ दाँत दिखाते हुए जब आरंजित मुख से कुछ मधुर शब्द भी निकलें, तब विहसित होता है,
  4. विहसित के लक्षणों के साथ जब सिर और कन्धे कंपने लगें, नाक फूल जाए तथा चितवन तिरछी हो जाए, तब उपहसित होता है।
  5. आँसू टपकाते हुए उद्धत हास को उपहसित तथा आँसू बहाते हुए ताली देकर ऊँचे स्वर से ठहाका मारकर हँसने को 'अतिहसित’ कहते हैं। *वास्तव में इन्हें हास स्थायी के भेद मानना युक्तिसंगत नहीं है। जैसा ‘हरिओध’ ने कहा है, सभी स्थायी भाव वासना स्वरूप हैं। अतएव अन्त:करण में उनका स्थान है, शरीर में नहीं। स्मितहसितादि शरीर से सम्बद्ध व्यापार है। अतएव ये हसन क्रिया के ही भेद हैं। अश्रु, हर्ष, कम्प, स्वेद, चपलता इत्यादि ‘हास’ स्थायी के साथ सहचार करने वाले व्यभिचारी भाव हैं। उदाहरण -

"मैं यह तोहीं मै लखी भगति अपूरब बाल। लहि प्रसाद माला जु भौ तनु कदम्ब की माल।"[3] प्रेमी द्वारा स्पर्श की हुई माल के धारण करने से नायिका के रोमांचित हो जाने पर नायिकाओं के प्रति सखी के इस विनोद में ‘हास’ भाव की व्यंजना है, हास स्थायी प्रस्फुटित नहीं है।

रसों में हास्य रस

हास्य रस नव रसों के अन्तर्गत स्वभावत: सबसे अधिक सुखात्मक रस प्रतीत होता है, पर भरतमुनि [4] के ‘नाट्यशास्त्र’ के अनुसार यह चार उपरसों की कोटि में आता है। इसकी उत्पत्ति श्रृंगार रस से मानी गई है।[5] इसको स्पष्ट करते हुए भरत ने आगे लिखा है कि वह श्रृंगार की अनुकृति है - "श्रृंगारानुकृतियाँ तु स हास्य इति संशित:।"[6] यद्यपि हास्य श्रृंगार से उत्पन्न कहा गया है, पर उसका वर्ण श्रृंगार रस के ‘श्याम’ वर्ण के विपरीत ‘सित’ बताया गया है - "सितो हास्य: प्रकीर्तित:।"[7] इसी प्रकार हास्य के देवता भी श्रृंगार के देवता विष्णु से भिन्न शैव ‘प्रथम’ अर्थात् शिवगण है। यथा - "हास्य प्रथमदेवत:।"[8]

हास्य रस का स्थायी भाव
  • हास्य रस का स्थायी भाव हास और विभाव आचार, व्यवहार, केशविन्यास, नाम तथा अर्थ आदि की विकृति है, जिसमें विकृतदेवालंकार ‘धाष्टर्य’ लौल्ह, कलह, असत्प्रलाप, व्यंग्यदर्शन, दोषोदाहरण आदि की गणना की गयी है। ओष्ठ-दंशन, नासा-कपोल स्पन्दन, आँखों के सिकुड़ने, स्वेद, पार्श्वग्रहण आदि अनुभावों के द्वारा इसके अभिनय का निर्देश किया गया है, तथा व्यभिचारी भाव आलस्य, अवहित्य (अपना भाव छिपाना), तन्द्रा, निन्द्रा, स्वप्न, प्रबोध, असूया (ईर्ष्या, निन्दा-मिश्रित) आदि माने गये हैं।
  • साहचर्य भाव से हास्य रस श्रृंगार, वीर और अद्भुत रस का पोषक है। शान्त के भी अनुकूल नहीं है। आधुनिक साहित्य में हास्य के जो रूप विकसित हुए हैं, उन पर बहुत कुछ यूरोपीय चिन्तन और साहित्य का प्रभाव है। वे सब न तो श्रृंगार से उद्भूत माने जा सकते हैं, और न ‘नाट्यशास्त्र’ की व्यवस्था के अनुसार सहचर रसों के पोषक ही कहे जा सकते हैं।
  • हास्य की उत्पत्ति के मूल कारण के सम्बन्ध में भी पर्याप्त मतभेद मिलता है। प्राचीन भारतीय आचार्यों ने उसे ‘राग’ से उत्पन्न माना है। पर फ़्रायड आदि आधुनिक मनोवैज्ञानिक उसके मूल में ‘द्वेष’ की भावना का प्रधान्य मानते हैं। यूरोपीय दार्शनिकों ने अन्य स्वतंत्र मत व्यक्त किए हैं। [9]
  • शारदातनय[10] ने रजोगुण के अभाव और सत्त्व गुण के आविर्भाव से हास्य की सम्भावना बतायी है, और उसे प्रीति पर आधारित एक चित्त विकार के रूप में प्रस्तुत किया है। ".....स श्रृंगार इतीरित:। तस्मादेव रजोहीनात्समत्वाद्धास्यसम्भव:।"[11]
  • अभिनवगुप्त [12] ने सभी रसों के आभास (रसाभास) से हास्य की उत्पत्ति मानी है - "तेन करुणाद्यावासेष्वपि हास्यत्वं सर्वेषु मन्तव्यम्।"[13] इस प्रकार करुण, बीभत्स आदि रसों से भी विशेष परिस्थिति में हास्य की सृष्टि हो सकती है। ‘करुणोऽपि हास्य एवेति’ कहकर आचार्य ने इसे मान्यता भी दी है। विकृति के साथ-साथ अनौचित्य को भी इसीलिए उत्पादक कारण बताया गया है। अनौचित्य अनेक प्रकार का हो सकता है। अशिष्टता और वैपरीत्व भी उनकी सीमा में आते हैं।

हास्य रस के भेद

हास्य रस के भेद कई आधारों से किये गये हैं। एक आधार है हास्य का आश्रय। जब कोई स्वयं हसे तो वह ‘आत्मस्य’ हास्य होगा, पर जब वह दूसरे को हँसाये तो उसे ‘परस्थ’ हास्य कहा जायेगा। कदाचित् ‘आत्मसमुत्थ’ और ‘परसमुत्थ’ भी इन्हीं को कहा जायेगा। ‘नाट्यशास्त्र’ में गद्यभाग में पहले शब्द युग्म का प्रयोग हुआ है और श्लोक में दूसरे का। [14]

  • जगन्नाथ[15] ने इन भेदों को स्वीकार तो किया है, पर व्याख्या स्वतंत्र रीति से की है। उनके अनुसार आत्मस्य हास्य सीधे विभावों से उत्पन्न होता है और परस्य हास्य हँसते हुए व्यक्ति या व्यक्तियों को देखने से उपजता है। इनके अतिरिक्त भाव के विकास का क्रम अथवा उसक तारतम्य को भी आधार मानकर हास्य के छ: भेद किये गय हैं, जो अधिक विख्यात हैं। इनको प्रकृति की दृष्टि से उत्तम, मध्यम और अधम इन तीन कोटियों में निम्नलिखित क्रम से रखा गया है -
  1. उत्तम
    1. स्मित,
    2. हसित।
  2. मध्यम
    1. विहसित,
    2. उपहसित
  3. अधम
    1. अपहसित,
    2. अतहसित।

"स्मितमथ हसितं विहसितमुपहसितं चापहसित-मतिहसितम्। द्वौ-द्वौ भेदौ स्यातामुत्तमध्यमाधमप्रकृतौ।"[16]

  • भरत ने न केवल यह विभाजन ही प्रस्तुत किया है, वरन् उसकी सम्यक व्याख्या भी की है, जिससे प्रत्येक भेद की विशेषताएँ तथा भेदों का पारस्परिक अन्तर स्पष्ट हो जाता है।
  • नाट्यशास्त्र’ [17] तक के अनुसार स्मित हास्य में कपोलों के निचले भाग पर हँसी की हलकी छाया रहती है। कटाक्ष-सौष्ठव समन्वित रहते हैं तथा दाँत नहीं झलकते। हसित में मुख-नेत्र अधिक उत्फुल हो जाते हैं, कपोलों पर हास्य प्रकट रहता है तथा दाँत भी कुछ-कुछ दीख जाते हैं। आँखों और कपोलों का आकुंचित होना, मधुर स्वर के साथ समयानुसार मुख पर लालिमा का झलक जाना विहसित का लक्षण है। उपहसित में नाक फूल जाना, दृष्टि में कुटिलता आ जाना तथा कन्धे और सिर का संकुचित हो जाना आवश्यक माना गया है। असमय पर हँसना, हँसते हुए आँखों में आँसुओं का आ जाना तथा कन्धे और सिर का हिलने लगना अपहसित की विशेषता है। नेत्रों में तीव्रता से आँसू आ जाना, उद्धत चिल्लाहट का स्वर होना तथा हाथों से बगल को दबा लेना अन्तिम भेद अतिहसित का लक्षण बताया गया है। इन भेदों को मुख्यतया अनुभावों के आधार पर कल्पित किया गया है। अत: इन्हें शारीरिक ही माना गया है, मानसिक कम। यह अवश्य है कि अनुभाव मनोभावों के अनुरूप ही प्रकट होते हैं और उनसे आन्तरिक मानसिक दशा परिलक्षित होती है।
  • कुछ संस्कृत आचार्यों ने इन छ: भेदों में ‘आत्म’ और ‘पर’ का भेद दिखाते हुए पहले तीन भेदों को ‘आत्मसमुत्थ’ और अन्तिम तीनों को ‘परसमुत्थ’ बताया है, पर इस तारतम्य-मूलक विभाजन का आधार उत्तरोत्तर विकास ही है। अत: इसमें आत्म और पर का अन्तर करना अनुपयुक्त प्रतीत होता है।
  • भानुदत्त[18] ने करुण और वीभत्स की तरह हास्य के भी ‘आत्मनिष्ठ’ और ‘परनिष्ठ’ भेद किये हैं, जो स्पष्टतया भरत के आत्मस्थ और परस्थ के समानान्तर हैं।
  • हिन्दी के स्वतंत्र आचार्यों में केशवदास[19] ने हास्य के मदहास, कलहास आदि केवल चार स्वतंत्र भेदों का उल्लेख किया है, जिन पर नाट्यशास्त्रौक्त भेदों की गहरी छाया है, पर कुछ अन्तर भी दिखाई देता है। अतएव केशव का विभाजन लक्षण सहित उल्लेखनीय है -

"विकसहिं नयन कपोल कछु दसन-दसन के वास। ‘मदहास’ तासों कहै कोबिद केसवदास। जहँ सुनिए कल ध्वनि कछू कोमल बिमल विलास। केसव तन-मन मोहिये वरनत कवि ‘कलहास’। जहाँ हँसहिं निरसंक है प्रगटहि सुख मुख वास। आधे-आधे बरन पर उपजि परत ‘अतिहास’। जहँ परिजन सव हँसि उठें तजि दम्पति की कानि। केसव कौनहुँ बुद्धिबल सो ‘परिहास’ बखानि।"[20] केशव के पहले तीन भेद तो भरत के भेदों के समानान्तर और भाव के विकास क्रम पर आधारित है, जिसमें नायक-नायिका की प्रीति परिजनों के परिहास का कारण बन जाए। केशव के अतिरिक्त अन्य रीतिकालीन काव्याचार्यों में हास्य रस का चिन्तामणि [21] ने सबसे अधिक सांगोपांग विवरण प्रस्तुत किया है, जो ‘साहित्यदर्पण’ में दिये गये विवरण का पद्यानुवादमात्र है। ‘रसनिवास’[22] के रचयिता राम सिंह ने हास्य रस का स्थायी भाव ‘हँसना’ माना है।

  • स्मित, हसित आदि नाट्यशास्त्र में प्राप्त पूर्वोक्त छ: भेद नहीं हो सकते, पर कुछ लोगों ने उन्हें स्थायी भाव का भेद भी माना है, जिसका खण्डन करते हुए आधुनिक विवेचक ‘हरिऔध’ ने लिखा है - ‘किसी-किसी ने स्थायी भाव हास के छ: भेद माने हैं। यह युक्तिसंगत नहीं। सभी स्थायी भाव वासनारूप हैं। अतएव अन्त:करण में उनका स्थान है, शरीर में नहीं। स्मित, हसित, विहसित, अवहसित, उपहसित और अतिहसित के नाम और लक्षण बताते हैं कि उनका निवास स्थान देह है। अतएव ये हसनक्रिया के भेद हैं।[23]
  • अपने रिमझिम नामक हास्य एकांकी संग्रह की भूमिका में रामकुमार वर्मा ने इन छ: भेदों के साथ ‘आत्मस्थ’ - ‘परस्थ’ का गुणन करके बारह भेद मान लिए हैं, जिसका आधार ‘नाट्यशास्त्र’ में ही मिल जाता है।[24]
  • रामकुमार वर्मा ने पाश्चात्य साहित्य में उपलब्ध हास्य के पाँच मुख्य रूप मानते हुए उनकी परिभाषा इस प्रकार से की है -
सैटायर (विकृति) -

आक्रमण करने की दृष्टि से वस्तुस्थिति को विकृत कर उससे हास्य उत्पन्न करना,

कैरीकेचर (विरूप का अतिरंजना) -

किसी भी ज्ञात वस्तु या परिस्थिति को अनुपात रहित बढ़ाकर या गिराकर हास्य उत्पन्न करना।

पैरोडी (परिहास) -

उदात्त मनोभावों को अनुदात्त सन्दर्भ से जोड़कर हास्य उत्पन्न करना।

आइरनी (व्यंग्य) -

किसी वाक्य को कहकर उसका दूसरा ही अर्थ निकालना।

विट (वचन वैदग्ध्य) -

शब्दों तथा विचारों का चमत्कारपूर्ण प्रयोग।

  • फ़्रायड ने इसे दो प्रकार का माना है - सहज चमत्कार और प्रवृत्ति चमत्कार। सहज चमत्कार में विनोदमात्र रहता है। साहित्य की आधुनिक प्रवृत्तियों को दृष्टि में रखकर उन्होंने अपनी ओर से पाँच स्वतंत्र भेदों की स्थापना की, जिनमें से प्रत्येक में दो-दो उपभेद करके कुछ दस प्रकारों में हास्य रस के प्राय: समस्त प्रचलित स्वरूपों को समाविष्ट करने का प्रयास किया है-
  • इस विभाजन वर्गीकरण के सम्बन्ध में लेखक की अपनी धारणा है कि - "इस भाँति हास्य सहज विनोद से चलकर क्रमश: दृष्टि, भाव, ध्वनि और बुद्धि में नाना रूप ग्रहण करता हुआ विकृति में समाप्त होता है।" [25]
  • हास्य रस को लेकर उसको विभाजित और वर्गीकृत करने का ऊहापोह स्वतंत्र विवेचन की अपेक्षा रखता है। कुछ बातों पर सरलता से आपत्ति की जा सकती है, जैसे विनोद और ब्याजोक्ति जो ‘विट’ के रूप माने गये हैं, उन्हें बुद्धि विकार से अलग मानना और ‘सहज’ तथा ‘ध्वनि-विकार’ नामक वर्गों में रखना।
  • वक्रोक्ति भी काव्यशास्त्र में दो प्रकार की मानी गई है -
  1. श्लेष
  2. काकु।

ध्वनिविकार के अन्तर्गत केवल काकुवक्रोक्ति ही आ सकती है, श्लेषवक्रोक्ति नहीं। श्लेष या श्लेषवक्रोक्ति पर आधारित हास्य को भी किसी न किसी वर्ग में समाविष्ट किया जाना चाहिए था। इसी प्रकार ‘ब्याजोक्ति’, जो वाच्यार्थ का ही एक रूप है, ‘ध्वनिविकार’ के अन्तर्ग्त नहीं रखी जा सकती, क्योंकि ध्वनिगत विकार उसका आधार नहीं है, न उसके लिए अनिवार्य ही हैं।

प्रधान रस

हास्य रस उन प्रधान रसों में है, जिनके आधार पर नाट्यसाहित्य में स्वतंत्र नाट्यरूपों की कल्पना हुई। रूपक के दस भेदों में भाण और प्रहसन न्यूनाधिक हास्य रस से सम्बद्ध हैं। प्रहसन में तो हास्य रस ही प्रधान है। भारतेन्दु के ‘वेदि की हिंसा हिंसा न भवति’ तथा ‘विषस्य विषमौषधम्’ नामक प्रहसन संस्कृत नाट्यशास्त्र के आदर्श पर ही रचे गये। संस्कृत नाटकों में हास्य रस की, सृष्टि करने के लिए विदूषक की अलग से योजना मिलती है, जिस परम्परा का निर्वाह ‘प्रसाद’ के ‘स्कन्दगुप्त’ जैसे अनेक हिन्दी नाटकों तक व्याप्त मिलता है। शेक्सपीयर के सुखान्त नाटकों में भी विदूषक की योजना की गयी है। वस्तुत: विदूषक की कल्पना मध्यकालीन सामन्ती जीवन और संस्कारों की उपज है। आधुनिक नाट्यसाहित्य में हास्य और व्यंग्य के लिए ऐसे किसी स्वतंत्र भाव की सृष्टि आवश्यक नहीं है। जीवन के स्वाभाविक क्रम में अन्य मनोभावों के साथ ही हास्य का भी सहज रूप में समावेश अपेक्षित माना जाता है।

हास्य रस का निरूपण

हिन्दी काव्य साहित्य में भी हास्य रस का निरूपण बहुत समय तक संस्कृत साहित्य के आदर्श पर होता रहा। रीतिकालीन कविता में बहुधा आश्रयदाताओं अथवा दानदाताओं के प्रति कटु व्यंग्योक्तियाँ की गई हैं। जिन्हें हास्य रस के अन्तर्गत माना जाता है। बेनी कवि के ‘भड़ौआ’ इस क्षेत्र में विशेष प्रसिद्ध हैं। ऐसे ‘भड़ौआ’ का एक संग्रह ‘विचित्रोप्रदेश’ नाम से प्रकाशित कराया गया था। इस प्रकार की रचनाएँ हास्य का उदाहरण ही प्रस्तुत करती हैं। इधर अंग्रेज़ी ‘पैरोडी’ या विडम्बना काव्य की एक स्वतंत्र धारा का विकास पाश्चात्य साहित्य के प्रभाव से हुआ है। उर्दू कवि अकबर का प्रभाव हिन्दी के अर्वाचीन काव्य पर विशेष पड़ा है। ‘बेढ़ब’ बनारसी आदि की रचनाएँ इसका उदाहरण हैं।

गद्यसाहित्य में हास्य रस

गद्यसाहित्य में भारतेन्दु काल से ही हास्य रस की रचनाएँ होने लगीं, पर उनका क्षेत्र अधिकतर नाटक ही रहा। द्विवेदी काल में व्यंग्यपूर्ण लेखों की भारतेन्दु युगीन परम्परा विशेष विकसित हुई। ‘दूबेजी का चिट्ठा’ आदि इसी के उदाहरण हैं। उपन्यासों के क्षेत्र में जी. पी. श्रीवास्तव को विशेष ख्याति प्राप्त हुई, पर ‘लतखोरीलाल’ ‘लम्बी दाढ़ी’ आदि अनेक उपन्यासों में कुत्रिमता की मात्रा बहुत अधिक है। अमृतलाल नागर, ‘शिक्षार्थी, केशवचन्द्र वर्मा तथा अन्य अनेक नये लेखक शिष्ट हास्य के विकास में विशेष तत्पर है। ऐसे लेखकों में स्वर्गीय अन्नापूर्णाचन्द्र का भी नाम विशेष उल्लेखनीय है। मुख्यतया हास्य रस को लेकर ‘नौंक-झौंक’, ‘मुस्कान’ और ‘तुंग-श्रृंग’ आदि कई पत्रिकाएँ प्रकाशित होती रही हैं। पर यह सत्य है कि हिन्दी का अधिकतर हास्य साहित्य अब तक अपरिपक्व है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. साहित्यदर्पण 1:179
  2. नाट्यशास्त्र भरतमुनि, 7:10।
  3. बिहारी सतसई, 470
  4. 3, 4 शताब्दी ईस्वी
  5. नाट्यशास्त्र, 6, 39
  6. नाट्यशास्त्र,6:40
  7. नाट्यशास्त्र, 6:42
  8. नाट्यशास्त्र, 6:44
  9. काव्य में रस; अप्र. नि, पृष्ठ 414-15
  10. 13 शताब्दी ईस्वी
  11. भावप्रकाश, पृष्ठ 47
  12. 10-11 शताब्दी ईस्वी
  13. अभिनव भारती, पृष्ठ 297
  14. नाट्यशास्त्र 6:49 तथा 61
  15. 17-18 शातब्दी ईस्वी
  16. नाट्यशास्त्र, 6:53
  17. नाट्यशास्त्र, 6:54 से 60
  18. 14 शताब्दी ईस्वी मध्य
  19. 16-17 शताब्दी ईस्वी
  20. रसिकप्रिया, 14: 3, 8, 12, 15
  21. 17 शताब्दी ईस्वी
  22. 1782 ईस्वी
  23. रसकलश पृष्ठ 292
  24. नाट्यशास्त्र, 6:61
  25. रिमझिम, पृष्ठ 11

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