अलंकार शास्त्र

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अलंकारशास्त्र संस्कृत आलोचना के अनेक अभिधानों में 'अलंकारशास्त्र' ही नितांत लोकप्रिय अभिधान है। इसके प्राचीन नामों में क्रियाकलाप (क्रिया काव्यग्रंथ; कल्प विधान) वात्स्यायन द्वारा निर्दिष्ट 64 कलाओं में से अन्यतम है। राजशेखर द्वारा उल्लिखित 'साहित्य विद्या' नामकरण काव्य की भारतीय कल्पना के ऊपर आश्रित है, परंतु ये नामकरण प्रसिद्ध नहीं हो सके। 'अलंकारशास्त्र' में अलंकार शब्द का प्रयोग व्यापक तथा संकीर्ण दोनों अर्थों में समझना चाहिए।

अलंकार के दो अर्थ मान्य हैं- (1) अलंक्रियते अनेन इति अलंकार: (=काव्य में शोभा के आधायक उपमा, रूपक आदि; संकीर्ण अर्थ); (2) अलंक्रियते इति अलंकार:=काव्य की शोभा (व्यापक अर्थ)। व्यापक अर्थ स्वीकार करने पर अलंकारशास्त्र काव्यशोभा के आधाएक समस्त तत्वों-गुण, रीति, रस, वृत्ति ध्वनि आदि--का विजाएक शास्त्र है जिसमें इन तत्वों के स्वरूप तथा महत्व का रुचिर विवरण प्रस्तुत किया गया है। संकीर्ण अर्थ में ग्रहण करने पर यह नाम अपने ऐतिहासिक महत्व को अभिव्यक्त करता है। साहित्यशास्त्र के आरंभिक युग में 'अलंकार' (उपमा, रूपक, अनुप्रास आदि) ही काव्य का सर्वस्व माना जाता था जिसके अभाव में काव्य उष्णताहीन अग्नि के समान निष्प्राण और निर्जीव होता है। 'अलंकार' के गंभीर विश्लेषण से एक ओर 'वक्रोक्ति' का तत्व उद्भूत हुआ और दूसरी ओर अर्थ की समीक्षा करने पर 'ध्वनि' के सिद्धांत का स्पष्ट संकेत मिला। इसलिए रस, ध्वनि, गुण आदि काव्यतत्वों का प्रतिपादक होने पर भी, अलंकार प्राधान्य दृष्टि के कारण ही, आलोचनाशास्त्र का नाम 'अलंकारशास्त्र' पड़ा और वह लोकप्रिय भी हुआ।

प्राचीनता

अलंकारों की, विशेषत: उपमा, रूपक, स्वाभावोक्ति तथा अतिशयोक्ति की, उपलब्धि ऋग्वेद के मंत्रों में निश्चित रूप से होती है, परंतु वैदिक युग में इस शास्त्र के आविर्भाव का प्रमाण नहीं मिलता। निरुक्त के अनुशीलन से 'उपमा' का साहित्यिक विश्लेषण यास्क से पूर्ववर्ती युग की आलोचना की परिणत फल प्रतीत होता है। यास्क ने किसी प्राचीन गार्म्य आचार्य के उपमालक्षण का निर्देश ही नहीं किया है, प्रत्युत कर्मोपमा, भूतोपमा, रूपोपमा, सिद्धोपमा, अर्थोपमा (लुप्तोपमा) जैसे मौलिक उपमा-प्रकारों का भी दृष्टांतपुर:सर वर्णन किया है।[1] इससे स्पष्ट है कि अलंकार का उदय यास्क (सप्तम शती ई.पू.) से भी पूर्व हो चुका था। काश्यप तथा वररुचि, ब्रह्मदत्त तथा नंदिस्वामी के नाम तरुणवाचस्पति ने आद्य आलंकारिकों में अवश्य लिए हैं परंतु इनके ग्रंथ और मत का परिचय नहीं मिलता। राजशेखर द्वारा 'काव्यमीमांसा' में निर्दिष्ट बृहस्पति, उपमन्यु, सुवर्णनाभ, प्रचेतायन, शेष, पुलस्त्य, पाराशर, उतथ्य आदि अष्टादश आचार्यों में से केवल भरत का 'नाट्यशास्त्र' ही आजकल उपलब्ध है। अन्य आचार्य केवल काल्पनिक सत्ता धारण करते हैं। इतना तो निश्चित है कि यूनानी आलोचना के उदय शताब्दियों पूर्व 'अलंकारशास्त्र' प्रामाणिक शास्त्रपद्धति के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका था।

संप्रदाय

'अलंकारसर्वस्व' के टीकाकार समुद्रबंध ने इस शास्त्र के अनेक संप्रदायों की विशिष्टता की सुंदर विवरण प्रस्तुत किया है। काव्य के विभिझ अंगों पर महत्व तथा बल देने से विभिझ संप्रदायों की विभिझ शताब्दियों में उत्पत्ति हुई। मुख्य संप्रदायों की संख्या छह मानी जा सकती है- (1) रस संप्रदाय, (2) अलंकार संप्रदाय, (3) रीति या गुण संप्रदाय, (4) वक्रोक्ति संप्रदाय, (5) ध्वनि संप्रदाय तथा (6) औचित्य संप्रदाय। इन संप्रदायों में अपने नामानुसार तत्तत्‌ काव्य की आत्म अर्थात्‌ मुख्य प्राणजाएक स्वीकृत किए जाते हैं। (1) रस संप्रदाय के के मुख्य आचार्य भरत मुनि हैं (द्वितीय शताब्दी) जिन्होंने नाट्यरस का ही मुख्यत: विश्लेषण किया और उस विवरण को अवांतर आचार्यों ने काव्यरस के लिए भी प्रामाणिक माना। (2) अलंकार संप्रदाय के प्रमुख आचार्य भामह (छठी शताब्दी का पूर्वार्ध), दंडी (सातवीं शताब्दी), उद्भट (आठवीं शताब्दी) तथा रुद्रट (नवीं शताब्दी का पूर्वार्ध) हैं। इस मत में अलंकार ही काव्य की आत्मा माना जाता है। इस शास्त्र के इतिहास में यही संप्रदाय प्राचीनतम तथा व्यापक प्रभावपूर्ण अंगीकृत किया जाता है। (3) रीति संप्रदाय के प्रमुख आचार्य वामन (अष्टम शताब्दी का उत्तरार्ध) हैं जिन्होंने अपने 'काव्यालंकारसूत्र' में रीति को स्पष्ट शब्दों में काव्य की आत्मा माना है (रीतिरात्मा काव्यस्य)। दंडी ने भी रीति के उभय प्रकार-वैदर्भी तथा गौड़ी-की अपने 'काव्यादर्श' में बड़ी मार्मिक समीक्षा की थी, परंतु उनकी दृष्टि में काव्य में अलंकार की ही प्रमुखता रहती है। (4) वक्रोक्ति संप्रदाय की उद्भावना का श्रेय आचार्य कुंतक को (10 वीं शताब्दी का उत्तरार्ध) है जिन्होंने अपने 'वक्रोक्ति जीवित' में 'वक्रोक्ति' को काव्य की आत्मा (जीवित) स्वीकार किया है। (5) ध्वनि संप्रदाय का प्रवर्त्तन आनंदवर्धन (नवम शताब्दी का उत्तरार्ध) ने अपने युगांतरकारी ग्रंथ 'ध्वन्यालोक' में किया तथा इसका प्रतिष्ठापन अभिनव गुप्त (10वीं शताब्दी) ने ध्वन्यालोक की लोचन टीका में किया। मम्मट (11वीं शताब्दी का उत्तरार्ध), रुय्यक (12वीं शताब्दी का पूर्वार्ध), हेमचंद्र (12वीं शताब्दी का उत्तरार्ध), पीयूषवर्ष जयदेव (13वीं शताब्दी का उत्तरार्ध), विश्वनाथ कविराज (14वीं शताब्दी का पूर्वार्ध), पंडितराज जगन्नाथ (17वीं शताब्दी का मध्यकाल)-इसी संप्रदाय के प्रतिष्ठित आचार्य हैं। (6) औचित्य संप्रदाय के प्रतिष्ठाता क्षेमेंद्र (11वीं शताब्दी का मध्यकाल) ने भरत, आनंदवर्धन आदि प्राचीन आचार्यों के मत को ग्रहण कर काव्य में औचित्य तत्व को प्रमुख तत्व अंगीकार किया तथा इसे स्वतंत्र संप्रदाय के रूप में प्रतिष्ठित किया। अलंकारशास्त्र इस प्रकार लगभग दो सहस्र वर्षों काव्यतत्वों की समीक्षा करता आ रहा है।

महत्व

यह शास्त्र अत्यंत प्राचीन काल से काव्य की समीक्षा और काव्य की रचना में आलोचकों तथा कवियों का मार्गनिर्देश करता आया है। यह काव्य के अंतरंग और बहिरंग दोनों का विश्लेषण बड़ी मार्मिकता से प्रस्तुत करता है। समीक्षासंसार के लिए अलंकारशास्त्र की काव्यतत्वों की चार अत्यंत महत्वपूर्ण देन है जिनका सर्वांग विवेचन, अंतरंग परीक्षण तथा व्यावहारिक उपयोग भारतीय साहित्यिक मनीषियों ने बड़ी सूक्ष्मता से अनेक ग्रंथों में प्रतिपादित किया है।[2]

ये महनीय काव्य तत्व हैं- औचित्य, वक्रोक्ति, ध्वनि तथा रस। औचित्य का तत्व लोक व्यवहार में और काव्यकला में नितांत व्यापक सिद्धांत है। औचित्य के आधार पर ही रसमीमांसा का प्रासाद खड़ा होता है। आनंदवर्धन की यह उक्ति समीक्षाजगत्‌ में मौलिक तथ्य का उपन्यास करती है कि अनौचित्य को छोड़कर रसभंग का कोई दूसरा कारण नहीं है और औचित्य का उपनिबंधन रस का रहस्यभूत उपनिषत्‌ है-अनौचित्यादृते नान्यत्‌ रसभंगस्य कारणम। औचित्योपनिधबंधस्तु रसस्योपनिषत्‌ परा (ध्वन्यालोक)। वक्रोक्ति लोकातिक्रांत गोचर वचन के विन्यास की साहित्यिक संज्ञा है। वक्रोक्ति के माहात्म्य से ही कोई भी उक्ति काव्य की रसपेशल सूक्ति के रूप में परिणत होती है। यूरोप में क्रोचे द्वारा निर्दिष्ट 'अभिव्यंजनावाद' (एक्सप्रेशनिज्म) वक्रोक्ति को बहुत कुछ स्पर्श करनेवाला काव्यतत्व है। ध्वनि का तत्व संस्कृत आलोचना की तीसरी महती देन है। हमारे आलोचकों का कहना है कि काव्य उतना ही नहीं प्रकट करता जितना हमारे कानों को प्रतीत होता है, प्रत्युत वह नितांत गूढ़ अर्थों को भी हमारे हृदय तक पहुँचाने की क्षमता रखता है। यह सुंदर मनोरम अर्थ 'व्यंजना' नामक एक विशिष्ट शब्दव्यापार के द्वारा प्रकट होता है और इस प्रकार व्यंजक शब्दार्थ को ध्वनिकाव्य के नाम से पुकारते हैं। सौभाग्य की बात है कि अंग्रेेजी के मान्य आलोचक एबरक्रांबी तथा रिचर्ड्‌स की दृष्टि इस तत्व की ओर अभी-अभी आकृष्ट हुई है। रसतत्व की मीमांसा भारतीय आलोचकों के मनोवैज्ञानिक समीक्षापद्धति के अनुशीलन का मनोरम फल है। काव्य अलौकिक आनंद के उन्मीलन में ही चरितार्थ होता है चाहे वह काव्य श्रव्य हो या दृश्य। हृदयपक्ष ही काव्य का कलापक्ष की अपेक्षा नितांत मधुरतर तथा शोभन पक्ष है, इस तथ्य पर भारतीय आलोचना का नितांत आग्रह है। भारतीय आलोचना जीवन की समस्या को सुलझाने वाले दर्शन कील छानबीन से कथमपि पराङ्‌मुख नहीं होती और इस प्रकार यह पाश्चात्य जगत्‌ के तीन शास्त्रों-'पोएटिक्स', 'रेटारिक्स' तथा 'ऐस्थेटिक्स'-का प्रतिनिधित्व अकेले ही अपने आप करती है। प्राचीनता, गंभीरता तथा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण में यह पश्चिमी आलोचना से कहीं अधिक महत्वशाली है; इस विषय में दो मत नहीं हो सकते।[3]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. निरुक्त 3।13-18
  2. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 246 |
  3. सं.ग्रं.-काणे : हिस्ट्री ऑव अलंकारशास्त्र (बंबई, 1955); एस.के.दे. : संस्कृत पोएटिक्स (लंदन, 1925); बलदेव उपाध्याय : भारतीय साहित्यशास्त्र (दो खंड, काशी, 1950)।

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