समुच्चय अलंकार

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समुच्चय अलंकार 'अलंकार चन्द्रोदय' के अनुसार हिन्दी कविता में प्रयुक्त होने वाला एक अलंकार है। यह वाक्यन्यायमूल अर्थालंकार होता है, जिसमें किसी कार्य की सिद्धि के हेतु तुल्य बल वाले अनेक पदार्थों का समुच्चय होता है।

अर्थ

'समुच्चय' का अर्थ है- 'एक साथ इकट्ठा होना।' प्रस्तुत अलंकार की प्रवृत्ति 'विकल्प' के सर्वथा विपरीत है। उसमें-दो तुल्य बल वाले पदार्थों में एक ही काल और स्थिति में विरोध होता है, किंतु इसमें तुल्य बल वालों की काल में एकत्र स्थिति होती है। रुद्रट तथा रुय्यक से इस अलंकार की विवेचना निरंतर होती रही है। रुद्रट ने समुच्चय को त्रिविध दस्, असत् तथा सदसत् के योग के अनुसार माना है[1] अर्थात् कार्य के उत्तम साधनों का योग, असत् साधनों का योग तथा सत्, असत् दोनों का योग।[2]

तीन भेद

मम्मट के अनुसार- "तत्सिद्धिहेतावेकस्मिन् यत्रान्य- तत्कर भवेत्"[3] अर्थात् किसी प्रस्तुत कार्य की सिद्धि के वर्णन में एक कारण के रहते अन्य कारण का समावेश किया जाना। मम्मट ने रुद्रट के विभाजन को अपने लक्षण के अंतर्गत घटित बतलाया है और गुण-क्रिया के योग से तीन भेदों का प्रतिपादन किया है-

  1. गुण का योग
  2. क्रिया का योग
  3. गुण-क्रिया का योग 'सत्वन्यो युगपत् या गुणक्रिया:' (वही)


'साहित्यदर्पण' के लेखक विश्वनाथ ने इस मत को स्वीकार किया है।

हिन्दी के आचार्यों ने इस अलंकार की विवेचना में जयदेव तथा अप्पय दीक्षित से प्रेरणा प्राप्त की है, पर ये अपने दृष्टिकोण में बहुत स्पष्ट नहीं है। संस्कृत के आचार्यों ने प्रमुखत: समुच्चय के दो भेद किये हैं-

  • प्रथम समुच्चय - किसी कार्य की सिद्धि के लिए एक साधन के होने पर भी अन्य साधनों का उसी कार्य की सिद्धि के सहायक तत्त्व के रूप में कथन किया जाना। हिंदी के आचार्यों ने प्रथम समुच्चय के लक्षण "बहुत भये एक बारगी तिन को गुग्फ जो होय"[4], "एक बार ही जहम भयो बहु काजन को बंध"[5] आदि किये हैं। चिंतामणि के 'कविककल्पतरु' में "एकसिद्धकर संग मिलि औरी साधक शेय" और दास के 'काव्यनिर्णय' में "एकै करता सिद्धि के औरों होंइ सहाइ" अधिक स्पष्ट लक्षण है। इसके विस्तार की ओर प्राय: ध्यान नहीं दिया गया।[1]
  • द्वितीय समुच्चय - गुण या क्रिया का अथवा गुण और क्रिया दोनों का एक ही काल में वर्णन अथवा इनकी स्थिति। पर हिन्दी के आचार्यों के लक्षण अधिक स्पष्ट नहीं है- "बहसि बरन बहु हेत जँह एक काजकी सिद्धि"[6], अथवा- "वरतु अनेकन को जहाँ वरनत एकै ठौर"[7] आदि। कन्हैयालाल पोद्दार तथा रामदहिन मिश्र आदि आधुनिक आचार्यों ने इस विभाजन को प्रस्तुत किया है।

प्रथम समुच्चय के प्रकार

प्रथम समुच्चय के तीन प्रकार किये गये हैं-
(क) सद्योग - उत्तम कारणों के योग का समुच्चय - "तात बच्चन पुनि मातु हित भाइ भरत अस राउ। मोकहँ दरस तुम्हार प्रभु, सब मम पुन्य प्रभाउ।[8] इसमें पिता दशरथ की आशा राम-वन-गमन के लिए साधना रूप में पर्याप्त थी, किंतु उसकी सिद्धि के लिए कैकेयी की स्पृहा, भरत की राज्य प्राप्ति एवं मुनिजनों के दर्शन रूप उत्तम साधनों का समुच्चय किया गया है।
(ख) असद्योग - असत् साधनों के योग का समुच्चय - "धन जोबन बल अग्यता, मोह मूल इक एक। दास मिलें चार यों तहाँ, पैसे कह विवेक"।[9] यहाँ धन और यौवन आदि चारों एक की प्राप्ति ही उचित-अनुचित के विवेक-नाश के लिए पर्याप्त है, किंतु यहाँ चारों असत् साधनों का समुच्चय किया गया है।
(ग) सदयद्योग - स्रत् तथा असत् कारणों के योग का समुच्चय - "दिन को दुति मंद सु चंद सरोवर को अरबिंद बिहीन लखावै।... खुल राजसभा गत सातहु ये लखि कंटक लौ हियमें चुभि जावै"[10] इसमें सत् तथा असत् दोनों प्रकार के साधनों का समुच्चय है।

द्वितीय समुच्चय के प्रकार

द्वितीय समुच्चय के तीन प्रकार है-
(क) गुण - एक से अधिक गुण (निर्मलता, अधुरता आदि) का समुच्चय - "सुंदरता, सुरुता, प्रभुता भनि भूषन होत है आदर जामै"।[11]
(ख) क्रिया - अनेक क्रियाओं का समुच्चय - "तब ही ते देव देखो देवता-सी हँसति-सी, खीझति सी रीझति-सी रूसमि रिसानी-सी।[12]
(ग) गुणक्रिया - अर्थात् दोनों का एक साथ समुच्चय - "आली तू ही बात दे इस विजय बिना मै कहाँ आज जाऊँ। दीना हीना अधीना ठहरकर जहाँ शांति दूँ और पाऊँ", यहाँ दीना, हीना, अधीना आदि गुणों तथा 'दूँ' और 'पाऊँ' आदि क्रियाओं की एक ही काल में स्थिति है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 काव्यालंकार, 7:19
  2. हिन्दी साहित्य कोश, भाग 1 |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |संपादन: डॉ. धीरेंद्र वर्मा |पृष्ठ संख्या: 732 |
  3. काव्य प्रबोधिनी, 10:116
  4. ल. ल., 277
  5. शि. भू., 254
  6. ल. ल., 271
  7. शि.भृ., 256
  8. रा. च. मा. 2
  9. का. नि., 15
  10. रुय्यक से अनु. कन्हैयालाल पोद्दार
  11. शि. भू.: 257
  12. मा. वि.

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