वैशेषिक प्रमुख ग्रन्थ

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वैशेषिक के प्रकीर्ण ग्रन्थ

वैशेषिक सिद्धान्तों की परम्परा अतिप्राचीन है। महाभारत आदि ग्रन्थों में भी इसके तत्त्व उपलब्ध होते हैं। महात्मा बुद्ध और उनके अनुयायियों के कथनों से भी यह प्रमाणित होता है कि सिद्धान्तों के रूप में वैशेषिक का प्रचलन 600 ई. से पहले भी विद्यमान था। महर्षि कणाद ने वैशेषिक सूत्रों का ग्रंथन कब किया? इसके संबन्ध में अनुसन्धाता विद्वान किसी एक तिथि पर अभी तक सहमत नहीं हो पाये, किन्तु अब अधिकतर विद्वानों की यह धारणा बनती जा रही है कि कणाद महात्मा बुद्ध के पूर्ववर्ती थे और सिद्धान्त के रूप में तो वैशेषिक परम्परा अति प्राचीन काल से ही चली आ रही है। वैशेषिक दर्शन पर उपलब्ध भाष्यों में प्रशस्तपाद भाष्य का स्थान अति महत्त्वपूर्ण है। किन्तु कणाद-प्रशस्तपाद के समय के लम्बे अन्तराल में और प्रशस्तपाद के बाद भी बहुत से ऐसे भाष्यकार या व्याख्याकार हुए, जिनके ग्रन्थ अब उपलब्ध नहीं हैं। यत्र-तत्र उनके जो संकेत या अंश उपलब्ध होते हैं, उनके आधार पर विभिन्न अनुसन्धाताओं ने जिन कतिपय कृतियों की जानकारी या खोज की है, उनका संक्षिप्त रूप से उल्लेख करना यहाँ अप्रासंगिक न होगा। असंदिग्ध प्रमाणों की अनुपलब्धता के कारण इनमें से कई ग्रन्थों के रचनाकाल आदि का विभिन्न विद्वानों ने संकेत मात्र किया है। ऐसी कृतियों का सामान्य ढंग से संक्षिप्त परिचय इस प्रकार हैं।

कतिपय अन्य वृत्तियाँ

वैशेषिक दर्शन पर कुछ अन्य आधुनिक वृत्तियाँ भी हैं तद्यथा—

  1. देवदत्त शर्मा (1898 ई.) द्वारा रचित भाष्याख्या वृत्ति (मुरादाबाद से मुद्रित)
  2. चन्द्रकान्त तर्कालंकार (1887 ई.) द्वारा रचित तत्त्वावलीवृत्ति (चौ.से.मी. 48 में मुद्रित)
  3. पंचानन तर्कभट्टाचार्य (1406 ई.) द्वारा रचित परीक्षावृत्ति (कलकत्ता से मुद्रित)
  4. उत्तमूर वीरराघवाचार्य स्वामी (1950 ई.) द्वारा रचित रसायनाख्यावृत्ति (मद्रास से मुद्रित)
  5. चयनी उपनामक (वीरभद्र वाजपेयी के पुत्र) द्वारा रचित नयभूषणाख्यावृत्ति (अपूर्ण तथा अमुद्रित, मद्रास तथा अड्यार पुस्तकालय में उपलब्ध है)
  6. गंगाधर कविरत्न द्वारा संपादित भारद्वाजवृत्ति (त्रुटिपूर्ण, कलकत्ता से प्रकाशित)
  7. काशीनाथ शर्मा द्वारा वेदभास्करभाष्यामिधा वृत्ति (होशियारपुर से मुद्रित)

वैशेषिक प्रधान प्रकरण-ग्रन्थ

प्रकरण एक विशेष प्रकार के ग्रन्थ होते हैं। इनमें सम्बद्धशास्त्र की समग्र विषयवस्तु का नहीं, अपितु उसके अंशों का ऐसा विश्लेषण किया जाता है जो परम्परा से कुछ भिन्न और नये मन्तव्यों से युक्त भी हो सकता है। न्याय और वैशेषिक के सिद्धान्तों में से कुछ अंशों (शास्त्रैकदेश) को चुनकर रचित प्रकरणग्रन्थों की संख्या पर्याप्त है। प्राय: जिन प्रकरणग्रन्थों में न्याय में परिगणित सोलह पदार्थों में वैशेषिकनिर्दिष्ट सात पदार्थों का अन्तर्भाव किया गया है, वे न्यायप्रधान प्रकरण ग्रन्थ हैं- जैसे भासर्वज्ञ (1000 ई.) का न्यायसार, वरदराज (12वीं शती) की तार्किकरक्षा और केशव मिश्र 13वीं शती की तर्कभाषा, और जिन ग्रन्थों में वैशेषिक के सात पदार्थों में न्याय के सोलह पदार्थों का अन्तर्भाव किया गया है, वे वैशेषिकप्रधान प्रकरण-ग्रन्थ हैं- जैसे अन्नंभट्ट का तर्कसंग्रह, विश्वनाथ पंचानन का भाषापरिच्छेद और लौगाक्षिभास्कर की तर्ककौमुदी। यहाँ हम इन्हीं ग्रन्थकारों और ग्रन्थों का संक्षेप में उल्लेख कर रहे हैं- यो तो उदयनाचार्य की लक्षणावली और शिवादित्य की सप्तपदार्थी भी प्रकरण-ग्रन्थ ही है। किन्तु उनका उल्लेख प्रकीर्ण ग्रन्थों में पहले कर दिया गया है।

अन्नंभट्टविरचित तर्कसंग्रह

अन्नंभट्ट आन्ध्रप्रदेश के चित्तूर ज़िले के रहने वाले थे। उन्होंने न्याय और वैशेषिक के पदार्थों का एक साथ विश्लेषण किया और न्याय के सोलह पदार्थों का वैशेषिक के सात पदार्थों में अन्तर्भाव दिखाया। इन्होंने गुण के अन्तर्गत बुद्धि और बुद्धि के अन्तर्गत प्रमाणों का विवेचन किया है। अन्नंभट्ट ने अपने इस ग्रन्थ पर तर्कसंग्रहदीपिकानाम्नी एक स्वोपज्ञ टीका भी लिखी। इस ग्रन्थ पर लगभग पैंतीस टीकाएँ उपलब्ध हैं। अन्नंभट्ट का समय सत्रहवीं शती माना जाता है।

विश्वनाथपंचानन-विरचित भाषापरिच्छेद

विश्वनाथ पंचानन का जन्म 17वीं शती में नवद्वीप बंगाल में हुआ था। इनके पिता का नाम विद्यानिवास था। यह रघुनाथ शिरोमणि की शिष्य-परम्परा में गिने जाते हैं। इनके द्वारा रचित भाषारिच्छेद नामक ग्रन्थ कारिकावली अपर नाम से भी विख्यात है। इन्होंने भाषापरिच्छेद पर एक स्वोपज्ञ टीका लिखी, जिसका नाम न्यायसिद्धान्तमुक्तावली है। विश्वनाथ ने सात पदार्थों का परिगणन करके उनमें से द्रव्य के एक भेद आत्मा को बुद्धि का आश्रय बताया। बुद्धि के दो भेद- (1) अनुभूति और (2) स्मृति माने एवं अनुभूति के अन्तर्गत प्रमाणों का निरूपण किया।

लौगाक्षिभास्कर-रचित तर्ककौमुदी

इनका वास्तविक नाम भास्कर और उपनाम लोगाक्षि था। इन्होंने मणिकर्णिका घाट का उल्लेख किया, अत: ऐसा प्रतीत होता है कि यह बनारस में रहते थे। इनका समय 1700 ई. माना जाता है। तर्ककौमुदी ग्रन्थ में इन्होंने द्रव्य, गुण, आदि सात पदार्थों का उल्लेख करके बुद्धि को आत्मा का गुण बताया तथा बुद्धि के दो भेद माने- (1) अनुभव और (2) स्मृति। अनुभव के भी इन्होंने दो भेद माने (1) प्रमा और (2) अप्रमा। प्रमा के भी दो भेद किये- (1) प्रत्यक्ष और (2) अनुमान। इस प्रकार इन्होंने न्याय के पदार्थों का वैशेषिक के पदार्थों में अन्तर्भाव बताया है।

वेणीदत्तरचित पदार्थमण्डनम्

रधुनाथ शिरोमणि के ग्रन्थ पदार्थखण्डनम् (पदार्थनिरूपणम्) में उल्लिखित सूत्रविरोधी मन्तव्यों में से अनेक मन्तव्यों का खण्डन करते हुए वैशेषिक पदार्थों की मान्यताओं में कतिपय नवीन मन्तव्यों को जोड़ते हुए वेणीदत्त (अठारहवीं शतीं) ने 'पदार्थमण्डनम्' नामक ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ में उन्होंने पदार्थों का जो विश्लेषण किया, उसमें खण्डन-मण्डन ही नहीं, अपितु कई नये तथ्य और मन्तव्य भी प्रस्तुत किये हैं।

वेणीदत्त सात नहीं, अपितु द्रव्य, गुण, कर्म, धर्म, और अभाव इन पाँच पदार्थों को मानते हैं। वह गुणों की संख्या भी चौबीस नहीं अपितु उन्नीस मानने के पक्ष में हैं। इनके ग्रन्थ के नाम से प्रतीत तो ऐसा होता है कि वेणीदत्त ने रघुनाथ शिरोमणि के मत का प्रत्याख्यान करने के लिए ग्रन्थ लिखा होगा, पर विशेष को पदार्थ न मानकर इन्होंने रघुनाथ के मत से अपनी सहमति भी प्रकट की है। इन्होंने यह कहा कि वह रघुनाथ के श्रुतिसूत्रविरुद्ध विचारों का खण्डन करते हैं। अत: सभी बातों में उनकी रघुनाथ से असहमति नहीं है। यह ग्रन्थ अठारहवीं शती में लिखा गया था। अत: यह आधुनिक चिन्तन की दृष्टि से भी ध्यान देने योग्य है।

प्रथमाध्याय का सार व समाहार

वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कणाद द्वारा वर्तमान वैशेषिक सूत्र के संग्रथन का समय भले ही 600 ई.पू. के आसपास माना जाता हो, किन्तु वैशेषिक शास्त्र की परम्परा अति प्राचीन है। वैशेषिक साहित्य का ज्ञात इतिहास 600 ई. पूर्व से अठारहवीं शती तक व्यापृत रहा है। इस लम्बी कालावधि में अनेक भाष्यकारों, टीकाकारों, वृत्तिकारों, और प्रकीर्ण ग्रन्थकारों ने वैशेषिक के चिन्तन को आगे बढ़ाया। न्यायवैशेषिक के अनेक आचार्यों ने दोनों दर्शनों को समन्वित रूप से प्रस्तुत करने का भी प्रयास किया। वस्तुत: न्याय के अधिकतर आचार्यों का कहीं न कहीं वैशेषिक का संस्पर्श किये बिना काम नहीं चला, अत: वैसे तो वैशेषिक वाङमय में अनेक नैयायिकों और न्याय के ग्रन्थों का भी उल्लेख किया जाना अपेक्षित है, फिर भी यहाँ हमने केवल उन्हीं नैयायिकों और न्यायग्रन्थों का उल्लेख किया, जो वैशेषिक के चिन्तन से साक्षात् सम्बद्ध हैं।

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