प्रशस्तपाद
प्रशस्तपाद वैशेषिक दर्शन के एक बड़े प्रवक्ता थे। कणाद का रचा हुआ वैशेषिक सूत्र ही वैशेषिक दर्शन का मान्य मूल ग्रन्थ है, पर बहुत ही समासात्मक तथा क्लिष्ट होने के कारण तथा वैशेषिक सूत्र पर सही अर्थ में कोई अच्छा-सा भाष्य उपलब्ध न होने के कारण प्रशस्तपाद के 'पदार्थ धर्मसंग्रह' नामक ग्रन्थ को ही वैशेषिक दर्शन में मूल ग्रन्थ जैसी मान्यता मिली। बाद में पदार्थ धर्मसंग्रह पर ही बहुत अच्छे और महत्त्वपूर्ण टीका ग्रन्थ रचे गए। व्योमशिवाचार्य की 'व्योमवती टीका', उदयनाचार्य की 'किरणावली', श्रीधराचार्य की 'न्यायकंदली' तथा श्रीवत्साचार्य की 'न्यायलीलावती' इत्यादि बहुत सी व्याख्यां पदार्थ धर्मसंग्रह पर लिखी गईं। इससे पदार्थ धर्मसंग्रह का महत्त्व स्पष्ट होता है।
भाष्य का मुख्यार्थ
पदार्थ धर्मसंग्रह का ही दूसरा नाम 'प्रशस्तपादभाष्य' है। यदि 'भाष्य' शब्द का मुख्यार्थ लिया जाए तो पदार्थ धर्मसंग्रह भाष्य नहीं है, क्योंकि कणाद के वैशेषिक सूत्र में जो सूत्रों का तथा विषयों का क्रम है, उस क्रम से प्रशस्तपाद ने वैशेषिक दर्शन को प्रस्तुत नहीं किया है।
'सूत्रार्थोवर्ण्यते यत्र वाक्यै: सूत्रानुसारिभि:। स्वपदानि च वर्ण्यन्ते, भाष्यं भाष्यविदो विदु:।।'
भाष्य की इस परिभाषा पर पदार्थ धर्मसंग्रह खरा नहीं उतरता। व्योमशिव, उदयन आदि भाष्यकारों ने सूचित किया है कि पदार्थ धर्मसंग्रह सच्चे अर्थ में भाष्य नहीं है, लेकिन यह ग्रन्थ 'संग्रह' का उदाहरण है। सूत्रभाष्यों के विचार का संकलित रूप में प्रतिपादन जिस निबन्ध में किया जाता है, वह संग्रह है। इसी अर्थ में पदार्थ धर्मसंग्रह संग्रह ग्रन्थ है।
काल मतभेद
प्रस्तुत पदार्थ धर्मसंग्रह के लेखक प्रशस्तपाद, फ़्राउवाल्नर के अनुसार छठी शताब्दी के उत्तरार्ध में हुए। कई विद्वानों के अनुसार प्रशस्तपाद का समय अधिक प्राचीन है। शेरबाट्स्की ने युक्तियाँ देते हुए मत प्रदर्शन किया है कि प्रशस्तपाद बौद्ध दार्शनिक वसुबन्धु के समकालीन थे। उनके मत में वसुबन्धु ने जो विचार 'वैशेषिक दर्शन' के नाम से उद्धृत किए हैं, वे प्रशस्तपाद के पदार्थ धर्मसंग्रह में प्रकटित विचारों से बराबर मिलते हैं। लेकिन रैंडेल के अनुसार शेरबाट्स्की का यह कथन ग़लत है कि वह इस विश्वास पर आधारित है कि कणाद के बाद प्रशस्तपाद तक वैशेषिक दर्शन का कुछ विकास हुआ ही नहीं। अगर शेरबाट्स्की का यह विश्वास ग़लत हो सकता है तो प्रशस्तपाद से पहले भी कोई वैशेषिक आचार्य हुए होंगे, जिनका मत वसुबन्धु के लेख में प्रकट किया गया है। शेरबाट्स्की से बढ़ते हुए कई विद्वानों ने विचार प्रकट किया है कि प्रशस्तपाद का काल वसुबन्धु से भी पूर्व है।
पहले तो शेरबाट्स्की का मत उपर्युल्लिखित मत के बिल्कुल विरुद्ध था। उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि प्रशस्तपाद वसुबन्धु तथा दिङनाग से उत्तरकालीन थे। दिङनाग के दर्शन में हेतु के तीन रूपों का तथा इससे संबंधित तीन हेत्वाभासों का जो विवरण मिलता है, उसके समान्तर विवरण प्रशस्तपाद के पदार्थ धर्मसंग्रह में मिलता है। हेतु के त्रैरूप्य का विचार अनुमानविचार के इतिहास में बुनियादी परिवर्तन लाने वाले विचार है। इस विचार के प्रथम गवेषण का श्रेय प्रशस्तपाद को मिलना चाहिए, या दिङनाग जैसे किसी बौद्ध आचार्य को। यह विवाद का मुद्दा भी इस कालनिर्णय विषयक चर्चा में एक प्रेरक विचार बना है। इसलिए यह भी सम्भव है कि प्रशस्तपाद ने हेतु त्रैरूप्य का विचार वसुबन्धु से लिया हो। शायद प्रशस्तपाद को वसुबन्धु का समकालीन बताने में शेरबाट्स्की का यही तात्पर्य है।
लेकिन बात उल्टी भी हो सकती है। वसुबन्धु और प्रशस्तपाद अगर समकालीन थे, तो प्रशस्तपाद का हेतु त्रैरूप्य का सिद्धांत वसुबन्धु ने स्वीकृत किया होगा, यह भी संभव है। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि यद्यपि हेतु त्रैरूप्य का विचार प्रशस्तपाद तथा वसुबन्धु दोनों ने प्रकट किया है, तथापि प्रशस्तपाद का हेतु त्रैरूप्य का विवरण दिङनाग के विस्तृत विवरण में जितना मिलता है, उतना वसुबन्धु के उल्लेखात्मक विवेचन में नहीं। इसलिए प्रशस्तपाद के वसुबन्धु का समकालीन होने की कम ही सम्भावना है। 'प्रशस्तपाद' के अलावा 'प्रशस्त' तथा 'प्रशस्तमति' नाम भी दार्शनिक वाङमय में मिलते हैं। 'मल्लवादिन' नामक जैन दार्शनिक ने किसी प्रशस्तपाद नामक वैशेषिक दार्शनिक का तथा उसके 'टीका', 'वाक्य' तथा 'भाष्य' का उल्लेख किया है। शान्तरक्षित ने अनेक बार 'प्रशस्तमति' नामक दार्शनिक का उल्लेख किया है। किन्तु यह प्रशस्त या प्रशस्तमति और एक ही दार्शनिक के नाम हैं, या अलग अलग दार्शनिकों के, यह एक विवाद का विषय बना हुआ है।
सूत्र तथा भाष्य
प्राचीन परम्परा के अनुसार ऐसा माना जाता है कि जो सूत्र में है, वही वृत्ति मे (भाष्य में) या वार्तिक में होता है।[1] वृत्तिकार या वार्तिककार का कुछ भी अपना नया योगदान नहीं होता। सब सूत्र का ही विवरणमात्र होता है। तदनुसार यह कहा जा सकता है कि प्रशस्तपाद भाष्य में प्रशस्तपाद का अपना योगदान कुछ भी नहीं है। लेकिन सूक्ष्म दृष्टि से अगर इस सूत्रभाष्य परम्परा की ओर ध्यान दें, तो मालूम पड़ेगा कि यद्यपि भाष्य, वार्तिक आदि ग्रन्थों के बाहयांग से उनका विवरणात्मक स्वरूप ही सूचित होता है, तथापि उनके अंतरंग में कई नई बातें छिपी होती हैं, जो भारत में हुए विचार परिवर्तन तथा विचार विकास की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करती हैं। प्रशस्तपाद भी इस नियम का अपवाद नहीं हैं।
कणाद के सूत्र में पाया गया है कि सामान्य और विशेष में कोई स्पष्ट सीमा नहीं खींची गयी है। जो घटत्व सब घटों में एक होने के कारण सामान्य है, वही घटत्व, कणाद के अनुसार, पट में न होने के कारण विशेष भी है। इसीलिए कणाद ने सामान्य तथा विशेष को बुद्धयपेक्षज्ञानसापेक्ष माना। कणाद ने अन्त्यविशेष को अपवादभूत समझा, क्योंकि अन्त्यविशेष सिर्फ़ विशेष है, सामान्य नहीं, तथा 'सत्ता' को भी हम अपवादभूत समझ सकते हैं, क्योंकि 'सत्ता सिर्फ़' सामान्य है, विशेष नहीं। प्रशस्तपाद ने सामान्य और विशेष में सीमा रेखा स्पष्ट करते हुए अन्त्यविशेष को ही विशेष माना, बाकी सब सामान्य धर्मों को सामान्य। इस तरह प्रशस्तपाद भाष्य में 'विशेष' एक पारिभाषिक शब्द समझा गया, जिसमें पहले का अर्थ संकोच किया गया है। आज वैशेषिकों के 'विशेष' को जिस रूप में पहचानते हैं, वह रूप उसे पहले प्रशस्तपाद ने ही दिया।
गुणों की संख्या
कणाद की तरह प्रशस्तपाद ने भी द्रव्य, गुण, कर्म, धर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय, ये छ: पदार्थ माने। 'अभावपदार्थ' नहीं माना। कणाद ने गुणों की जो सूची दी थी, उसमें प्रशस्तपाद ने सुधार किया। कणाद ने केवल सत्रह गुण बतलाए थे। प्रशस्तपाद ने अतिरिक्त सात गुणों का निर्देश करते हुए गुणों की संख्या चौबीस कर दी। आज वैशेषिक दर्शन में सम्मत चौबीस गुण यही हैं। जिन अतिरिक्त सात गुणों का समावेश प्रशस्तपाद ने गुणों की सूची में किया, उनका निर्देश कणादसूत्र में इधर उधर मिलता है। लेकिन इन सात गुणों को गुण के रूप में कणाद ने मान्यता दी थी या नहीं, इसके बारे में स्पष्ट संकेत नहीं मिलता। प्रशस्तपाद ने इन सात गुणों को उनका समुचित स्थान दिया है।
ईश्वरवाद
कणाद के सूत्रों में हम देखते हैं कि ईश्वर का स्पष्ट निर्देश कहीं नहीं है। प्रशस्तपाद भाष्य में लक्षणीय बात यह है कि प्रशस्तपाद ने ईश्वरवाद को वैशेषिक दर्शन में स्पष्ट रूप से स्थान दिया है। प्रशस्तपाद के बाद वैशेषिक दर्शन एक ईश्वरवादी दर्शन बन गया। शायद कणाद के सामने जो प्रश्न था, वह जगत् की सृष्टि तथा संहार किस तरह से, किस प्रक्रिया से होता है?, यह नहीं था। इस प्रश्न की चर्चा वैशेषिकसूत्र में कहीं नहीं मिलती। हम जिस जगत् में पैदा हुए, वह जगत् हमारे लिए 'दत्त' है। इस जगत् की प्रक्रियाएं किस-किस तरीके की हैं, इस जगत् के घटक कौन-कौन से हैं, यह जगत् कैसे जाना जा सकता है, किस तरह से उसका तात्विक विश्लेषण किया जा सकता है, ये सारी बातें कणाद के लिए चिंता का विषय थीं। शायद कणाद के अनुसार यह 'दत्त' जगत् अनादि और अनन्त था। लेकिन प्रशस्तपाद ने अपने भाष्य में जगत् की सृष्टि तथा संहार का प्रश्न महत्त्वपूर्ण समझा और वैशेषिक दर्शन के अनुकूल सृष्टि तथा संहार की प्रक्रिया क्या हो सकती है, इसका विवेचन किया। प्रशस्तपाद ने माना कि सृष्टि से पहले जगत् एक अलग-अलग नित्य द्रव्यों का समुदाय था। उसमें हलचल नहीं थी। तब आत्माएं भी थीं और आत्माओं के पूर्व कर्म से आया हुआ अदृष्ट भी था, पर यह अदृष्ट भी जड़मूढ़ सा आत्माओं को चिपका हुआ था। उस अदृष्ट से कोई कर्म नहीं उत्पन्न हो रहा था। ईश्वर की इच्छा से ही इन सब आत्माओं के अदृष्ट कर्म के लिए प्रेरित हुए।
संहार के समय भी, संसार से थके हुए प्राणियों को विश्रांति देने के लिए ईश्वर को जब संहार की इच्छा होती है, तब इन सब धर्माधर्मरूप अदृष्टों का कार्य स्थगित करने वाला, आत्मा तथा अणुओं के संयोग से कर्म उत्पन्न करते हुए सब द्रव्यों का शरीर तथा इन्द्रिय के कारण द्रव्यों का परमाणु पर्यन्त विभाग करने वाला भी ईश्वर ही है। इस प्रकार प्रशस्तपाद के अनुसार ईश्वर जगत् का सिर्फ़ निमित्त कारण है, उपादान कारण नहीं। ईश्वर कोई सर्वथा नई चीज़ पैदा नहीं करता। जो चीज़ें नित्य स्वरूप में हैं, उनमें गति पैदा करता है, उन्हें एक दूसरी से जोड़ते हुए उनकी नई रचना उत्पन्न करता है। ईश्वर जगत् का निर्माण तथा संहार किस लिए करता है। प्रशस्तपाद के मतानुसार, ईश्वर कुछ भी अपने लाभ के लिए नहीं कर रहा है, बल्कि प्राणियों को अपने अपने कर्मों के फल भुगतने क लिए तथा कभी-कभी उन्हें विश्रांति देने के लिए, ईश्वर यह सब कर रहा है। इस प्रकार सृष्टि तथा संहार की प्रक्रिया का वर्णन करते हुए प्रशस्तपाद ने ईश्वरवाद को स्पष्ट स्वीकृति दी है।
तत्वज्ञान का प्रसार
प्रशस्तपाद ने कणाद के तत्वज्ञान को अतिभौतिक दिशा में आगे बढ़ाया तथा साथ-साथ भौतिक दिशा में भी आगे बढ़ाया। भौतिक द्रव्य, जो अधिकतर परमाणुओं से निमित्त माना जाता है, किस तरह संयुक्त या विभक्त होता है, इसका विशद विवेचन प्रशस्तपाद भाष्य में पाया जाता है। आकाश के सिवाय सब भौतिक द्रव्य परमाणुओं से बने हैं। परमाणु उनका सबसे छोटा घटक है। कणाद ने सिर्फ़ इतना स्पष्ट किया था कि अणु परिमाण सूक्ष्म है, अतीन्द्रिय है तथा महत्परिमाण प्रत्यक्षग्राह्य है। लेकिन किन-किन चीज़ों का अणु परिमाण है तथा किन चीज़ों का महत्वपरिणाम है, इसका विवेचन पहले प्रशस्तपाद भाष्य में मिलता है। दो परमाणुओं से एक त्रयणुक बनता है। परमाणु की तरह द्वयणुक भी सूक्ष्म है, अणु परिमाण वाला है। वह हमारी पार्थिव दृष्टि से दिखाई नहीं देता। तीन द्वयणुकों से एक त्रयणुक बनता है, जो महत् है, जिसे हम देख सकते हैं अर्थात् घट इत्यादि पदार्थों के अंतिम दृश्य घटक त्रयणुक हैं, तथा अंतिम अदृश्य घटक हैं परमाणु। इस प्रकार परमाणु आदि का परिमाण प्रशस्तपाद ने निश्चित किया है।
संख्याओं का महत्त्व तथा ज्ञान
संख्या नामक गुण के बारे में भी कणाद की अपेक्षा प्रशस्तपाद ने विशेष विचार किया है। कणाद ने अपने वैशेषिक दर्शन में संख्या नामक स्वतंत्र गुण की सिद्धि करते हुए यह स्पष्ट किया कि 'संख्या को किसी अन्य गुण या किसी अन्य पदार्थ के रूप में समझना सम्भव नहीं है। प्रशस्तपाद ने अधिक विचार करते हुए इन संख्याओं में मौलिक संख्या कौन-सी है, और कौन-सी संख्याएं उस मौलिक संख्या से निष्पन्न की जाती है, इस प्रश्न पर भी विचार किया। उन्होंने दिखा दिया कि 'एकत्व' भौतिक संख्या है, तथा दो से शुरू होने वाली सब संख्याएं एकत्वबुद्धि पर अवलम्बित हैं। 'एक' का ज्ञान होने के लिए 'दो' का ज्ञान ज़रूरी है। 'दो' का ज्ञान होने से पहले जो 'एक' 'एक' ऐसा ज्ञान होता है, उसे प्रशस्तपाद ने 'अपेक्षाबुद्धि' नाम दिया। इससे द्वित्व, त्रित्व आदि संख्याएं हमारी अपेक्षाबुद्धि पर अवलम्बित हैं, यह विचार स्पष्ट हुआ। वस्तुत: इससे अन्य गुण, जो वस्तुगत हैं, और अपनी सत्ता के लिए किसी अन्य अलग ज्ञान की अपेक्षा नहीं रखते, इन द्वित्व आदि से बिल्कुल भिन्न सिद्ध होते हैं। द्वित्वादि धर्म आरोपित धर्म जैसे मालूम होते हैं। लेकिन वैशेषिक दर्शन में इन द्वित्व आदि का 'गुणत्व' तथा 'द्रव्यगतत्व' क्यों क़ायम रखा गया, यह एक अजीब सी बात लगती है। इसका कारण यह मालूम पड़ता है कि वैशेषिक दर्शन की जड़ें वास्तववादी थीं और इन्हें उखाड़ने की हरेक कोशिश का प्रतिकार करना वैशेषिकों ने अपना कर्तव्य समझा। इस संघर्ष में बाद में वैशेषिकों की द्वित्वादि संख्याओं के स्पष्टीकरण के लिए 'पर्याप्ति' नामक विशेष संबंध की परिकल्पना करनी पड़ी।
शब्दों की उत्पन्नता
शब्दगुण की प्रशस्तपाद ने जो चर्चा की है, वहाँ शब्द हम किस तरह सुनते हैं, इसकी भी थोड़े में चर्चा आती है। कणाद सूत्र में यह चर्चा नहीं मिलती। शब्द संतान की कल्पना प्रस्तुत करते हुए प्रशस्तपाद कहते हैं कि जब एक प्रदेश में संयोग तथा विभाग से शब्द उत्पन्न होता है, तब वह उत्पन्न शब्द अपने आप उस प्रदेश को छोड़कर हमारे श्रोत्रेंद्रिय तक नहीं आता है और न हमारा श्रोत्रेंद्रिय उन तक जाता है। जिस प्रकार जल में पत्थर डालने पर एक तरंग उठती है, और तरंग से दूसरी, दूसरी से तीसरी, तीसरी से चार्थी इत्यादि तरंगों की एक संतान उत्पन्न होती है, उसी प्रकार एक शब्द उत्पन्न होने से नजदीक के प्रदेश में दूसरा शब्द, दूसरे से उसके नजदीक के प्रदेश में तीसरा, इस तरह शब्दों की एक संतान उत्पन्न होती है। उस संतान में ही जो शब्द हमारे श्रोत्रेंद्रिय के प्रदेश में उत्पन्न होता है, वह हमें सुनाई देता है। शब्द की संतान की यह कल्पना आधुनिक कल्पना से मिलती है। इस प्रकार प्रशस्तपाद ने कणाद के सूत्रों में ग्रंथित विचारों को विशद करते-करते विचारों का विकास भी किया।
वैशेषिक दर्शन में योगदान
प्रमाण मीमांसा के क्षेत्र में भी प्रशस्तपाद का वैशेषिक दर्शन में महत्त्वपूर्ण योगदान है। कणाद ने अपने सूत्रों में प्रत्यक्ष तथा अनुमान के अलावा आगम प्रमाण का पृथक् निर्दश किया था। शब्दादि प्रमाणों का अंतर्भाव अनुमान में ही करना चाहिए, यह वैशेषिकों का विचार कणाद के सूत्रों में कहीं नहीं दिखाई देता। लेकिन प्रशस्तपाद ने, शायद बौद्धों का विचार अपनाते हुए, शब्दादि अन्य प्रमाणों का स्पष्ट रूप से अनुमान में अंतर्भाव किया। कणाद के सूत्रों में अनुमान प्रमाण की जो चर्चा मिलती है, वह थोड़ी और प्राथमिक है। प्रशस्तपाद में अनुमान की बहुत ही विस्तृत तथा सुव्यवस्थित चर्चा मिलती है। यद्यपि इसके बारे में विवाद है कि अनुमान का यह विचार प्रशस्तपाद ने बौद्ध नैयायिकों से लिया है या स्वयं स्वतंत्र रूप से प्रस्तुत किया है तथापि इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह विचार वैशेषिक तथा न्याय दर्शन के विकास के लिए सहायक सिद्ध हुआ।
लिंगों का वर्णन
अनुमान में जो लिंग के तीन रूपों का वर्णन प्रशस्तपाद ने किया है, जिसके बारे में अनुमान किया जाता है (अनुमेय, जैसे कि पर्वत), उससे वह चिह्न (जैसे कि धूम) संबद्ध होना चाहिए (पहला रूप)। जिसका अनुमान किया जाता है (जैसे कि अग्नि) वह जहाँ-जहाँ है, (तदन्वित, समान जातीय, जैसे कि पाकशाला) वहाँ-वहाँ वह चिह्न होना चाहिए (दूसरा रूप), तथा जिसका अनुमान किया जाता है, वह जहाँ-जहाँ नहीं है) –तदभाव, असमान जातीय, जैसे कि जलाशय, वहाँ-वहाँ उस चिह्न का भी नियमित रूप से अभाव होना चाहिए (तीसरा रूप) लिंगी के इन तीन रूपों यानी तीन आवश्यक धर्मों को बताकर प्रशस्तपाद ने अनुमान विचार को एक सुव्यवस्थित रूप दिया। प्रशस्तपाद का दावा है कि लिंग का यह त्रैरूप्य पहले काश्यप ने यानी कणाद ने बताया। यद्यपि कणाद के सूत्रों में इस प्रकार का कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिलता, तथापि प्रशस्तपाद ने कणाद का जो सूत्र 'अप्रसिद्ध.अनपदेश: असन् सन्दिग्धश्च' उद्धृत किया है, उससे ज्ञात होता है कि हेतु साध्य संबंध के बारे में कणाद के मन में एक व्यवस्थित रूपरेखा थी।
लिंग के रूप यानी आवश्यक नियम तीन होने से उन नियमों के भंग से उत्पन्न होने वाले 'अलिंग' या 'अनपदेश' (हेत्वाभास) भी मूलत: तीन हैं। यह विचार भी प्रशस्तपाद ने प्रस्तुत किया है। यहाँ प्रशस्तपाद भाष्य में मिलने वाला लिंग, अनपदेश (हेत्वाभास) तथा निदर्शनाभास का विवरण दिङनाग नामक बौद्ध नैयिक के न्यायमुख आदि ग्रन्थों में मिलने वाले विवरण से बहुत ही मिलता है। इसलिए यह संभव है कि प्रशस्तपाद ने दिङनाग का अनुमान विचार अपना लिया तथा वैशेषिक सूत्र में मिलने वाले अनुमान विचार के मूलस्रोत को पकड़कर उससे दिङनाग का विचार मिलाकर वह विचार वैशेषिकों की निजी शब्दावली में प्रकट किया। आज यही ज़्यादातर विद्वानों का मत है। लेकिन इसके बारे में आज भी चर्चा जारी है। इसलिए निर्णायक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सूत्रेष्वेव हि तत्सर्व यद् वृत्ति यच्च वार्तिक।
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