एपीक्यूरस

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एपीक्यूरस (ई.पू. 342-1 से ई.पू. 271-70)–प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक। इसके माता पिता एथेंस के निवासी थे पर इसके जन्म के समय वे सामोस्‌ नामक द्वीप में रहते थे। एपीक्यूरस के पिता का नाम नेओक्लेस और माता का नाम खाराएस्त्राता था। दर्शनशास्त्र के प्रेम का अंकुर तो उसके हृदय में 12-14 वर्ष की अवस्था में ही उत्पन्न हो गया था, अतएव वह अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए 18वें वर्ष में एथेंस आया और एक वर्ष अफलातून की अकादमी में रहा। यहाँ से लौटकर कोलोफ़न नगर को गया जहाँ उसके परिवार के लोग जा बसे थे। इस नगर के समीप तेऔस नगर में उसने नाउसीफ़ानेस से संभवतया देमाक्रीतुस के सिद्धांतों की शिक्षा ग्रहण की। लगभग 32 वर्ष की अवस्था में उसने पहले मीतिलेने नगर में और कुछ समय उपरांत लांप्‌साकुस नामक नगर में अपना विद्यालय स्थापित किया। इसके पाँच वर्ष उपरांत वह अपने विद्यालय को एथेंस नगरी में ले गया। यहाँ पर उसने एक उद्यान में अपना विद्यालय स्थापित किया। यों तो उस समय एथेंस में अनेक प्रसिद्ध विद्यालय थे तथापि एपीक्यूरस ने ही सबसे प्रथम स्त्रियों तथा दासों को भी अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया। उसके शिष्यों में अनेक वारांगनाएँ भी थीं और उनमें से, संभवतया, लियोंतियन नामक वारांगना के साथ उसकी घनिष्ठता गुरु शिष्य के संबंध की अपेक्षा अधिक गहरी थी। वह लगभग 36 वर्ष से अधिक एथेंस नगरी में रहा। विद्यालय और शिष्यमंडली में एपीक्यूरस देवतुल्य पूजा जाता था और उसके जन्मदिन पर विशेष उत्सव मनाया जाता था। यद्यपि उसके आलोचकों ने उसको विलासिता में फँसा हुआ कहा है, तथापि वास्तविकता यह है कि उसका तथा उसके शिष्यों का जीवन सीधासादा, शांत और सरल था। मृत्यु के समय उसको पथरी रोग हो गया था जिसके कारण उसकी शारीरिक पीड़ा की कोई सीमा नहीं थी; तथापि अंतिम दिन जो पत्र उसने अपने मित्र को लिखा उसमें उसने शांति और सुख की ही भावना को अभिव्यक्त किया।

दिओगेनेस लाएर्तियुस ने दार्शनिकों के जीवन नामक पुस्तक में एपीक्यूरस की जीवनी ग्रंथांत में सबसे अधिक विस्तार के साथ लिखी है और उसने बतलाया है कि एपीक्यूरस ने 300 ग्रंथों की रचना की थी। परंतु दुर्भाग्यवश निम्नलिखित थोड़ी सी रचनाओं के अतिरिक्त अन्य सब कुछ आज अनुपलब्ध है। जो कृतियाँ बच रही हैं वे हैं–(1) हेरोदोतुस को लिखा हुआ एक लंबा पत्र जो आजकल उसके मत को जानने का मुख्य साधन हैं; (2) ऋतुविज्ञान के संबंध में पीथौक्लेस को लिखा हुआ पत्र; (3) आचार दर्शन के संबंध में मेनोकेडस को लिखा हुआ पत्र; (4) लाएर्तियुस की जीवनी के अंत में दिए हुए आचार संबंधी 40 सूत्र, और (5) 1888 में वोट्के द्वारा वातिकन (पोप की नगरी) में पाए गए 80 सूत्र। अनुपलब्ध ग्रंथों में एपीक्यूरस की सर्वश्रेष्ठ रचना प्रकृति (पैरीफ़ीसिओस) भी है जो 37 पुस्तकों अथवा अध्यायों में थी।

एपीक्यूरस का दर्शनिक सिद्धांत स्वादुवाद या प्रेयवाद कहलाता है। वह केवल इंद्रिप्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है। जो विवेचन, संमति अथवा विभावना प्रत्यक्षविरोधिनी हो वह भ्रांत होती है तथा जो प्रत्यक्ष से मेल खाती हो वही निर्भ्रांत है। भौतिक जगत्‌ के संबंध में एपीक्यूरस को देमीक्रीतुस का परमाणु वाद मान्य है। वस्तुएँ अपने बाह्य धरातल से अपने सूक्ष्म बिंबों को निरंतर शीघ्र गति से निक्षिप्त करती रहती हैं। इन्हीं बिंबों द्वारा हमारी इंद्रियों का विषयों से संपर्क हुआ करता है। यह बिंबनिक्षेप वस्तुओं के घटक अणुओं की गति के कारण हुआ करता है। परमाणु और उनकी गति के लिए शून्य स्थान, ये दो परम तत्व हैं। एपीक्यूरस के मत में परमाणुओं की गति में स्वछंदता रहती है। समग्र विश्व, चराचर सृष्टि, यहाँ तक कि आत्मा भी, अणुओं के संघात मात्र हैं। देवता मनुष्यों की अपेक्षा सूक्ष्मतर परमाणुओं से निर्मित हैं। वे जगतों के मध्यवर्ती अंतराल में निश्चिततामय परिपूर्ण जीवन बिताते हैं।

मानव जीवन के लिए एपिक्यूरस का लक्ष्य प्रेम की प्राप्ति था। परंतु उसकी प्रेम की परिभाषा थी दु:ख और पीड़ा का अभाव और स्थिरबुद्धिता एवं शरीर और मन की शांत तथा स्वस्थ स्थिति। अत: वह संसार से विरक्ति का उपदेश करता था; सामाजिक और राजनीतिक जीवन में उलझना भी उसकी दृष्टि में उचित नहीं था। वैवाहिक जीवन भी उसको अभीष्ट नहीं था। वह मनुष्य को सब प्रकार की भीतियों से–यहाँ तक कि मृत्यु के भय से भी–मुक्त करना चाहता है। देवताओं और प्राचीन परंपराओं के बंधनों को भी त्यागने का उपदेश एपीक्यूरस दिया करता था। अतएव परंपराप्रिय अनेक भक्तों ने उसकी निंदा की है। पर वास्तविकता यह है कि उसकी शिक्षा का सार शुद्ध, सरल, निश्चिंत और सुखपूर्ण जीवन की उपलब्धि है।[1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सं.ग्रं.–दियोगेनेस लाएर्तियुस : दार्शनिकों के जीवन की अंतिम (दशम) पुस्तक; त्सैलर, स्टोइक्स : एपीक्यूरियन्स ऐंड स्केप्‌टिक्स; स्टेस : क्रिटिल हिस्ट्री ऑव ग्रीक फ़िलासफ़ी; लियौं रोबिन : ग्रीक थाट्।

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