मत्स्य जयन्ती

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मत्स्य जयन्ती
भगवान विष्णु का मत्स्य अवतार
विवरण 'मत्स्य जयन्ती' हिन्दू धर्म में मान्य प्रमुख जयन्ती है। इस दिन भगवान श्रीविष्णु के निमित्त व्रत रखने तथा भजन-कीर्तन आदि करने का बड़ा महत्त्व है।
माह चैत्र
तिथि शुक्ल पक्ष की तृतीया
देवता भगवान श्रीविष्णु
धर्म हिन्दू
संबंधित लेख भगवान विष्णु, विष्णु के अवतार
अन्य जानकारी इस दिन जो भी व्यक्ति मत्स्य भगवान का पूजन कर उनके प्राकट्य लीला कथाओं का श्रवण व मंत्रों का जाप करता है, तब निश्चय ही उस भगवद्भक्त का जीवन आलोकिक व संपूर्ण ज्ञान-विज्ञान से संयुक्त हो जाता है।

मत्स्य जयन्ती (अंग्रेज़ी: Matsya Jayanti) चैत्र माह में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाई जाती है। इस दिन मत्स्य अवतार में विष्णु की पूजा की जाती है।[1] इसे 'हयपंचमी' भी कहा जाता है। इस दिन भगवान नारायण ने मध्याह्नोत्तर बेला में पुष्पभद्रा तट पर मत्स्यावतार धारण कर जगत् कल्याण किया था। व्यक्ति इस पावन तिथि पर प्रातःकालीन बेला में नित्य नैमित्तिक कृत्यों को पूर्ण कर भगवान मत्स्य के व्रत के हेतु संकल्पादि कृत्यों को पूर्ण करता हुआ पुरुषसूक्त या वेदोक्त मंत्रों से मत्स्य भगवान का षोडशोपचार[2] पूजन कर उनके प्राकट्य की लीला कथाओं का श्रवण व मंत्रों का जाप करता है, तो निश्चय ही उस भगवद्भक्त का जीवन आलोकित व संपूर्ण ज्ञान-विज्ञान से संयुक्त हो जाता है।

पौराणिक कथा

कल्पांत के पूर्व एक बार ब्रह्मा जी के पास से वेदों को एक बहुत बड़े दैत्य ने चुरा लिया। चारों ओर अज्ञानता का अंधकार फैल गया और पाप तथा अधर्म का बोलबाला हो गया। तब भगवान ने धर्म की रक्षा के लिए मत्स्य रूप धारण करके उस दैत्य का वध किया और वेदों की रक्षा की।[3]

कल्पांत के पूर्व एक पुण्यात्मा राजा तप कर रहा था। राजा का नाम सत्यव्रत था। सत्यव्रत पुण्यात्मा तो था ही, बड़े उदार हृदय का भी था। प्रभात का समय था। सूर्योदय हो चुका था। सत्यव्रत कृतमाला नदी में स्नान कर रहा था। उसने स्नान करने के पश्चात् जब तर्पण के लिए अंजलि में जल लिया, तो अंजलि में जल के साथ एक छोटी-सी मछली भी आ गई। जैसे ही सत्यव्रत ने मछली को नदी के जल में छोड़ना चाहा, मछली बोली, "राजन! जल के बड़े-बड़े जीव छोटे-छोटे जीवों को मारकर खा जाते हैं। अवश्य कोई बड़ा जीव मुझे भी मारकर खा जायेगा। कृपा करके मेरे प्राणों की रक्षा कीजिए।" सत्यव्रत के हृदय में दया उत्पन्न हो उठी। उसने मछली को जल से भरे हुए अपने कमंडलु में डाल लिया। एक रात में मछली का शरीर इतना बढ़ गया कि कमंडलु उसके रहने के लिए छोटा पड़ने लगा। इसी तरह राजा जिस भी पात्र में उस मछली को रखते वही छोटा हो जाता और मछली का आकार बढ़ता जाता। तब सत्यव्रत ने मछली को निकालकर एक सरोवर में डाल किया, किंतु सरोवर भी मछली के लिए छोटा पड़ गया। इसके बाद सत्यव्रत ने मछली को नदी में और फिर उसके बाद समुद्र में डाल किया।

आश्चर्य! समुद्र में भी मछली का शरीर इतना अधिक बढ़ गया कि मछली के रहने के लिए वह छोटा पड़ गया। अतः मछली पुनः सत्यव्रत से बोली, "राजन! यह समुद्र भी मेरे रहने के लिए उपयुक्त नहीं है। मेरे रहने की व्यवस्था कहीं और कीजिए।" सत्यव्रत विस्मित हो उठा। उसने आज तक ऐसी मछली कभी नहीं देखी थी। वह विस्मय-भरे स्वर में बोला, "मेरी बुद्धि को विस्मय के सागर में डुबो देने वाले आप कौन हैं? आपका शरीर जिस गति से प्रतिदिन बढ़ता है, उसे दृष्टि में रखते हुए बिना किसी संदेह के कहा जा सकता है कि आप अवश्य परमात्मा हैं। यदि यह बात सत्य है, तो कृपा करके बताइये के आपने मत्स्य का रूप क्यों धारण किया है?" सचमुच, वह भगवान श्रीहरि ही थे। मत्स्य रूपधारी श्रीहरि ने उत्तर दिया, "राजन! एक दैत्य ने वेदों को चुरा लिया है। जगत् में चारों ओर अज्ञान और अधर्म का अंधकार फैला हुआ है। मैंने हयग्रीव को मारने के लिए ही मत्स्य का रूप धारण किया है। आज से सातवें दिन सारी पृथ्वी पानी में डूब जाएगी। जल के अतिरिक्त कहीं कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होगा। आपके पास एक नाव पहुंचेगी, आप सभी अनाजों और औषधियों के बीजों को लेकर सप्तऋषियों के साथ नाव पर बैठ जाइयेगा। मैं उसी समय आपको पुनः दिखाई पड़ूंगा और आपको आत्मतत्त्व का ज्ञान प्रदान करूंगा।"[3]

पृथ्वी पर प्रलय

सत्यव्रत उसी दिन से हरि का स्मरण करते हुए प्रलय की प्रतीक्षा करने लगे। सातवें दिन प्रलय का दृश्य उपस्थित हो उठा। जल उमड़कर अपनी सीमा से बाहर बहने लगा। भयानक वृष्टि होने लगी। थोड़ी ही देर में जल ही जल हो गया। संपूर्ण पृथ्वी जल में समा गई। उसी समय एक नाव दिखाई पड़ी। सत्यव्रत सप्तऋषियों के साथ उस नाव पर बैठ गए, उन्होंने नाव के ऊपर संपूर्ण अनाजों और औषधियों के बीज भी भर लिए। नाव प्रलय के सागर में तैरने लगी। प्रलय के उस सागर में उस नाव के अतिरिक्त कहीं भी कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। सहसा मत्स्यरूपी भगवान प्रलय के सागर में दिखाई पड़े। सत्यव्रत और सप्तर्षिगण मतस्य रूपी भगवान की प्रार्थना करने लगे, "हे प्रभो! आप ही सृष्टि के आदि हैं, आप ही पालक है और आप ही रक्षक ही हैं। दया करके हमें अपनी शरण में लीजिए, हमारी रक्षा कीजिए।"

सत्यव्रत और सप्तऋषियों की प्रार्थना पर मत्स्यरूपी भगवान प्रसन्न हो उठे। उन्होंने अपने वचन के अनुसार सत्यव्रत को आत्मज्ञान प्रदान किया और बताया, "सभी प्राणियों में मैं ही निवास करता हूं। न कोई ऊंच है, न नीच। सभी प्राणी एक समान हैं। जगत् नश्वर है। नश्वर जगत् में मेरे अतिरिक्त कहीं कुछ भी नहीं है। जो प्राणी मुझे सबमें देखता हुआ जीवन व्यतीत करता है, वह अंत में मुझमें ही मिल जाता है।" मत्स्य रूपी भगवान से आत्मज्ञान पाकर सत्यव्रत का जीवन धन्य हो उठा। वे जीते जी ही जीवन मुक्त हो गए। प्रलय का प्रकोप शांत होने पर मत्स्य रूपी भगवान ने उस दैत्य को मारकर, उससे वेद छीन लिए। भगवान ने ब्रह्मा जी को पुनः वेद दे दिए।[3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अहल्याकामधेनु, 360 बी
  2. भगवान की सोलह उपचारों से की जाने वाली पूजा को षोडशोपचार पूजा कहते हैं।
  3. 3.0 3.1 3.2 भगवान श्रीहरि का मत्स्य अवतार दिन (हिंदी) sanatansewa.blogspot.in। अभिगमन तिथि: 24 फ़रवरी, 2017।

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