कीजै प्रभु अपने बिरद की लाज -सूरदास

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
व्यवस्थापन (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:17, 12 अप्रैल 2018 का अवतरण (Text replacement - " गरीब" to " ग़रीब")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
Icon-edit.gif इस लेख का पुनरीक्षण एवं सम्पादन होना आवश्यक है। आप इसमें सहायता कर सकते हैं। "सुझाव"
कीजै प्रभु अपने बिरद की लाज -सूरदास
सूरदास
कवि महाकवि सूरदास
जन्म संवत 1535 वि.(सन 1478 ई.)
जन्म स्थान रुनकता
मृत्यु 1583 ई.
मृत्यु स्थान पारसौली
मुख्य रचनाएँ सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य-लहरी, नल-दमयन्ती, ब्याहलो
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
सूरदास की रचनाएँ

कीजै प्रभु अपने बिरद[1] की लाज।
महापतित कबहूं नहिं आयौ, नैकु तिहारे काज॥
माया सबल धाम धन बनिता, बांध्यौ हौं इहिं साज।
देखत सुनत सबै जानत हौं, तऊ न आयौं बाज॥[2]
कहियत पतित बहुत तुम तारे स्रवननि सुनी आवाज।
दई न जाति खेवट[3] उतराई,[4] चाहत चढ्यौ जहाज॥
लीजै पार उतारि सूर कौं महाराज ब्रजराज।
नई[5] न करन कहत, प्रभु तुम हौ सदा ग़रीब निवाज॥
 

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बड़ाई।
  2. छोड़ा नहीं।
  3. नाव खेने वाला।
  4. पार उतारने की मज़दूरी।
  5. कोई नई बात।

संबंधित लेख