गुलज़ार
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पूरा नाम | सम्पूर्ण सिंह कालरा |
प्रसिद्ध नाम | गुलज़ार |
अन्य नाम | गुलज़ार साहब |
जन्म | 18 अगस्त, 1936 |
जन्म भूमि | दीना गांव, झेलम ज़िला, (पाकिस्तान) |
पति/पत्नी | राखी गुलज़ार |
संतान | मेघना गुलज़ार |
कर्म भूमि | मुम्बई |
कर्म-क्षेत्र | गीतकार, कवि, साहित्यकार, फ़िल्म निर्देशक |
मुख्य रचनाएँ | 'चौरस रात' (1962), 'जानम' (1963), 'एक बूँद चाँद' (1972) |
मुख्य फ़िल्में | 'मेरे अपने' (1971), 'आँधी' (1975), 'कोशिश' (1972), 'अंगूर' (1980), 'माचिस' (1996) |
पुरस्कार-उपाधि | ऑस्कर, ग्रैमी पुरस्कार, दादा साहब फाल्के पुरस्कार, तीन बार राष्ट्रीय पुरस्कार, पद्मभूषण, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार |
नागरिकता | भारतीय |
भाषा | हिन्दी, उर्दू तथा पंजाबी |
अन्य जानकारी | वर्ष 2009 में डैनी बॉयल द्वारा निर्देशित फ़िल्म स्लमडॉग मिलियनेयर में गुलज़ार द्वारा लिखे गीत 'जय हो...' के लिये उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीत का ऑस्कर पुरस्कार भी मिल चुका है। इसी गीत के लिये वे ग्रैमी पुरस्कार से भी सम्मानित किये जा चुके हैं। |
अद्यतन | 12:46, 18 अगस्त 2022 (IST)
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गुलज़ार (अंग्रेज़ी: Gulzar) वास्तविक नाम: सम्पूर्ण सिंह कालरा (जन्म: 18 अगस्त, 1936) हिन्दी फ़िल्मों के प्रसिद्ध गीतकार होने के साथ ही एक कवि, पटकथा लेखक, फ़िल्म निर्देशक तथा नाटककार भी हैं। इनकी रचनाएँ मुख्यतः हिन्दी, उर्दू तथा पंजाबी में हैं। गुलज़ार को वर्ष 2002 में साहित्य अकादमी पुरस्कार और वर्ष 2004 में भारत सरकार द्वारा दिया जाने वाला तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म भूषण से भी सम्मानित किया जा चुका है। वर्ष 2009 में डैनी बॉयल द्वारा निर्देशित फ़िल्म स्लमडॉग मिलियनेयर में उनके द्वारा लिखे गीत 'जय हो...' के लिये उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीत का ऑस्कर पुरस्कार भी मिल चुका है। इसी गीत के लिये गुलज़ार को ग्रैमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। वर्ष 2013 के लिए गुलज़ार को भारतीय सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार के लिए चुना गया।
जीवन परिचय
पश्चिमी पंजाब के झेलम ज़िले (जो अब पाकिस्तान में है) के दीना गांव में 18 अगस्त 1936 को जन्मे सम्पूर्ण सिंह कालरा उर्फ गुलज़ार ने न सिर्फ एक गीतकार के रूप में, बल्कि लेखक, निर्माता और निर्देशक के रूप में भी बॉलीवुड में अपना विशेष योगदान दिया है। बचपन के दिनों से ही शेर-ओ-शायरी का शौक़ रखने वाले गुलज़ार अंताक्षरी के कार्यक्रमों में भी हिस्सा लेते थे। उन्हें गीत संगीत के प्रति ख़ासी रुचि थी। वह रवि शंकर और अली अकबर खान के कार्यक्रम सुनने के लिए जाया करते थे। वर्ष 1947 में हिन्दुस्तान विभाजन के बाद उनका परिवार अमृतसर चला आया। इसके बाद अपने सपनों को नया रूप देने के लिए गुलज़ार मुंबई आ गए; लेकिन सपनों की नगरी में उन्हें काफ़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। अपने जीवन यापन के लिए उन्होंने मोटर गैराज में एक मैकेनिक की नौकरी भी की।[1]
आंरभिक जीवन
मुंबई आने के बाद कवि के रूप में गुलज़ार 'पी.डब्लू.ए.' [2] से जुड़ गए। उन्होंने अपने सिने कॅरियर की शुरुआत वर्ष 1961 में बॉलीवुड के महान् निर्देशक बिमल रॉय के सहायक के रूप में की। गुलज़ार ने ऋषिकेश मुखर्जी और हेमन्त कुमार के सहायक के तौर पर भी काम किया। बिमल राय ने अपने इस सहायक निर्देशक के भीतर एक ऐसे कवि को देखा जो रूहानी और रोमानी शब्दों से इस तरह खेलता था, जैसे बच्चे खिलौनों से खेलते हैं। उन्होंने गुलज़ार को सहायक निर्देशक के रूप में काम देते हुए अपनी क्लासिक फ़िल्म 'बंदिनी' के लिए गीत लिखने का काम दिया। गीतकार के रूप में गुलज़ार ने पहला गाना 'मेरा गोरा अंग लेई ले' वर्ष 1963 में प्रदर्शित फ़िल्म 'बंदिनी' के लिए लिखा। जब तक बंदिनी प्रदर्शित हुई, उससे पहले बलराज साहनी की फ़िल्म 'काबुली वाला' का प्रदर्शन हो गया। इस फ़िल्म के गीतों को भी गुलज़ार ने ही लिखा था। काबुली वाला में उनका लिखा गाना 'ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछडे चमन, तुझ पे दिल कुर्बान' और 'गंगा आए कहां से, गंगा जाए कहां से' ने उन्हें न सिर्फ श्रोताओं और दर्शकों की नज़र में उभार दिया था बल्कि बंदिनी के गीतकार के रूप में दर्शकों ने जब उनका नाम सुना तो उम्मीदें ज़्यादा बढ़ गईं और गुलज़ार श्रोताओं की उम्मीदों पर न सिर्फ खरे उतरे बल्कि उन्होंने अपने लिए बॉलीवुड में नाम और शोहरत भी पाई।[1]
फ़िल्म निर्देशन
काबुली वाला के बाद गुलज़ार ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने एक से बढ़कर एक गीत लिखकर जन-जन के हृदय के तार झनझनाए और उन्हें भाव विभोर कर फ़िल्मी गीत गंगा को समृद्ध किया। गुलज़ार ने वर्ष 1971 में फ़िल्म 'मेरे अपने' के जरिए निर्देशन के क्षेत्र में भी कदम रखा। अपने समय की 'ट्रेजडी क्वीन' के नाम से विख्यात मीना कुमारी के साथ उन्होंने विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा को इस फ़िल्म में पेश किया था। 'मेरे अपने' फ़िल्म मीना कुमारी के दमदार अभिनय और गुलज़ार की निर्देशकीय क्षमता की वजह से सफलता पाने में कामयाब हुई। गुलज़ार ने अपनी फ़िल्मों में अनगिनत अभिनेत्रियों को बेहतरीन किरदारों में पेश किया। उन्होंने सुचित्रा सेन के साथ 'आंधी', रेखा के साथ 'इजाज़त', हेमा मालिनी के साथ 'खुशबू', 'किनारा', शबाना आज़मी के साथ 'देवता', शर्मिला टैगोर के साथ 'मौसम', 'नमकीन' जैसी अविस्मरणीय फ़िल्में बनाई। संजीव कुमार गुलज़ार के पसन्दीदा कलाकार थे। संजीव कुमार को लेकर उन्होंने 'मौसम', 'कोशिश', 'आंधी', 'नमकीन', 'अंगूर', 'देवता' जैसी अविस्मरणीय फ़िल्में दीं। ऐसा नहीं कि उन्होंने अन्य नायकों के साथ काम नहीं किया उन्होंने अपनी शुरूआत विनोद खन्ना से की थी उनके साथ उन्होंने समय-समय कुछ चुनिंदा फ़िल्में- 'अचानक', 'लेकिन' और 'मीरा' जैसी फ़िल्में कीं।[1]
प्रमुख फ़िल्में (बतौर निर्देशक)
- मेरे अपने (1971)
- परिचय (1972)
- कोशिश (1972)
- अचानक (1973)
- खुशबू (1974)
- आँधी (1975)
- मौसम (1976)
- किनारा (1977)
- किताब (1978)
- अंगूर (1980)
- नमकीन (1981)
- मीरा (1981)
- इजाजत (1986)
- लेकिन (1990)
- लिबास (1993)
- माचिस (1996)
- हु तू तू (1999)
- टीवी सीरियल
- मिर्ज़ा ग़ालिब (1988)
- किरदार (1993) [3]
विवाह
1973 में गुलज़ार का संजोग कुछ ऐसा बना कि उन्होंने फ़िल्म अभिनेत्री राखी से शादी कर ली। राखी और गुलज़ार की शादी में गुलज़ार ने सिर्फ एक शर्त रखी कि राखी शादी के बाद फ़िल्मों में काम नहीं करेंगी। राखी ने गुलज़ार का कहा माना और काम बन्द कर दिया। इसके बावजूद इन दोनों की कभी नहीं बनी और तीन साल बाद राखी अपनी बेटी मेघना को लेकर गुलज़ार से अलग हो गईं और उन्होंने फिर से फ़िल्मों में काम करना शुरू कर दिया। गुलज़ार से शादी से पूर्व 15 वर्ष की उम्र में राखी की शादी अजय विश्वास के साथ हुई थी। वह मुम्बई के फ़िल्मालय में काम करते थे। सास ने राखी को पति के पास रहने के लिए मुम्बई भिजवा दिया। राखी को अजय का साथ जरा भी नहीं जमा। एक दिन अजय ने राखी को घर से निकाल दिया। राखी को आज भी इस बात का ग़म है कि गुलज़ार ने कभी उसकी अभिनय क्षमता को पहचानने की कोशिश ही नहीं की। गुलज़ार से राखी को एक बेटी मेघना हुई, आज वह भी बॉलीवुड में बतौर निर्देशक और लेखक के रूप में अपनी पहचान रखती है।[1]
मीना कुमारी और गुलज़ार
मीना कुमारी और गुलज़ार के रिश्ते भावनाओं से भरे हुए रहे हैं। मीना ने मौत से पहले अपनी तमाम डायरी और शायरी की कापियाँ गुलज़ार को सौंप दी थीं। गुलज़ार ने उन्हें संपादित कर बाद में प्रकाशित भी कराया था। मीना-गुलज़ार की भेंट फ़िल्म ‘बेनज़ीर’ के सेट पर हुई थी। बिमल राय निर्देशक थे और गुलज़ार सहायक थे। शॉट रेडी होने पर स्टार को कैमरे तक लाने की जिम्मेदारी उनकी थी। यहीं से दोस्ती में अपनापन पनपता चला गया। बाद में गुलज़ार जब स्वतंत्र फ़िल्म निर्देशक बने तो फ़िल्म ‘मेरे अपने’ की मुख्य भूमिका गुलज़ार ने मीना को सौंपी। 1972 में मीना चल बसीं। ‘मेरे अपने’ कुछ समय बाद प्रदर्शित हुई और गुलज़ार स्वतंत्र फ़िल्म निर्देशक बन गए। आज भी गुलज़ार के ऑफिस में दीवार पर ट्रेजेडी क्वीन मीना कुमारी का चित्र बोलता-सा नजर आता है।[3]
संजीव कुमार और पंचम दा थे दोस्त
फ़िल्म, 'मेरे अपने' (1971) से गुलज़ार ने बतौर फ़िल्म निर्माता भी अपने दिल की बातें पर्दे पर उतारीं। 1972 में उन्होंने एक और भावपूर्ण फ़िल्म बनाई, 'कोशिश'। इस फ़िल्म में संजीव कुमार और जया भादुड़ी ने गूंगे-बहरे (मूक-बधिर) का अभिनय कर दर्शकों की आँखें नम कर दी थीं। गुलज़ार की कलम सीधे दिल पर दस्तख़त करती है। उस पर संजीव कुमार से मिलकर, जैसे गुलज़ार की लेखनी को और सिफ़त हासिल हो गई। फिर दोनों लेखक और अदाकार से दोस्त हो गए। इस जोड़ी ने 1975 में 'आंधी' और 'मौसम' के अलावा 1981 और 1982 में क्रमशः 'अंगूर' और 'नमकीन' बनाई। 1987 में आई 'इजाज़त' भी उनके निर्देशन में बनी दिल छू लेने वाली फ़िल्म थी। उनकी बनाई फिल्मों की फ़ेहरिस्त लम्बी है। आरडी बर्मन (पंचम) भी गुलज़ार के ख़ास दोस्तों में एक थे जिनके साथ उन्होंने क़रीब 21 फ़िल्में बनाईं। सलिल चौधरी और एआर रहमान के साथ भी उनका काम यादगार रहा है। इस वक़्त उनके लफ़्ज़ों को सुरों में ढालने की ज़िम्मेदारी संगीतकार विशाल भारद्वाज निभा रहे हैं।[4]
साहित्य लेखन
शैलेन्द्र ने शायद गुलज़ार में छुपे एक प्रतिभाशाली गीतकार, शायर और कवि को देख लिया था। संभवतः इसी हुनर से मुतअस्सिर होकर उन्होंने एसडी बर्मन से गुलज़ार की सिफ़ारिश की होगी। लिहाज़ा गुलज़ार, बर्मन दा की चौखट पर पहुँचे। इस वक़्त बर्मन दा 'बंदिनी' के गीतों को लेकर मस्रूफ़ थे। फिर भी गीतकार शैलेन्द्र की सिफ़ारिश थी, इसलिए उन्होंने गुलज़ार को एक गीत लिखने का मौका दिया। 5 दिन बाद गुलज़ार गीत लेकर बर्मन दा के पास पहुँचे। बर्मन दा को गीत भा गया। फिर यही गीत उन्होंने 'बंदिनी' के निर्देशक बिमल रॉय को गाकर सुनाया। बिमल दा की रज़ामंदी से भरी मुस्कान ने इस गीत को 'बंदिनी' के दीगर गीतों की फ़ेहरिस्त में जोड़ दिया। गीत के बोल थे- 'मोरा गोरा अंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे / छुप जाऊंगी रात ही में, मोहे पी का संग दई दे'। साल था 1963 का। ख़ास बात यह थी कि गुलज़ार के सबसे पहले गीत को ही स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर की आवाज़ मिली। इससे पहले 1961 में बिमल रॉय के सहायक के रूप में अपने हुनर को धार लगाई। फिर ऋषिकेश मुखर्जी और हेमंत कुमार का सान्निध्य भी पाया था। ख़ैर, 'बंदिनी' से मिली कामयाबी के बाद उनकी लेखनी ने रफ़्तार पकड़ ली। उन्होंने ऋषिकेश मुखर्जी के लिए 'आनंद' (1970), 'गुड्डी' (1971), 'बावर्ची' (1972) और 'नमक हराम' (1973) के साथ-साथ असित सेन के लिए 'दो दूनी चार' (1968), 'ख़ामोशी' (1969) और 'सफ़र' (1970) फ़िल्में लिखीं।[4]
- गुलज़ार द्वारा लिखित कुछ पुस्तकें निम्न हैं
- चौरस रात (लघु कथाएँ, 1962)
- जानम (कविता संग्रह, 1963)
- एक बूँद चाँद (कविताएँ, 1972)
- रावी पार (कथा संग्रह, 1997)
- रात, चाँद और मैं (2002)
- रात पश्मीने की
- खराशें (2003) [3]
ख़ामोशी को पहनाया लफ़्ज़ों का पैरहन
गुलज़ार उम्मीदों के शहर मुंबई में अपने क़दम जमाने की कोशिश ही कर रहे थे। अच्छा यह था कि 1961 से बिमल रॉय के मार्गदर्शन में काम सीखने और करने का सौभाग्य मिल रहा था। इसी बीच एक दिन दिल्ली में उनके पिताजी माखन सिंह का निधन हो गया। चूँकि गुलज़ार को अभी नया-नया काम मिला ही था, इसलिए उन्हें परेशान न करने की ग़रज़ से किसी ने उन्हें इस बात की ख़बर नहीं की। मुंबई में ही रह रहे बड़े भाई को ख़बर मिली, और वो उड़ कर दिल्ली पहुँच गए। पहुँच कर अंत्येष्टि क्रिया संबंधी दायित्व भी पूरे कर दिए। कुछ दिनों बाद दिल्ली में ही रहने वाले गुलज़ार के एक पड़ोसी से जब उन्हें यह ख़बर मिली, गुलज़ार फ्रंटियर मेल से अपने घर, दिल्ली के लिए रवाना हो गए। उन दिनों यही वो रेल थी, जो सबसे कम समय में मुंबई से दिल्ली पहुँचाती थी। लिहाज़ा, गुलज़ार 24 घंटे में घर पहुँचे, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। सारी रस्में निभाई जा चुकी थीं। गुलज़ार, बोझिल मन से मुंबई लौट आए। अपने माज़ी का बोझ उनके लेखन में भी साफ़ नज़र आता था। ज़िंदगी सरकते-सरकते और 5 बरस आगे बढ़ चुकी थी, कि बिमल रॉय ने भी बिस्तर पकड़ लिया। पितृ तुल्य बिमल दा को रफ़्ता-रफ़्ता कैंसर के शिकंजे में कसते हुए देख रहे थे गुलज़ार। ये तड़प बर्दाश्त के बाहर थी। अपने पिता के अंतिम दर्शन न कर पाने वाले गुलज़ार ने बिमल दा के बीमार होने पर पूरी तरह से बेटे का फ़र्ज़ निभाया। रात-रात भर उनके पास बैठे बिमल दा की पसंदीदा किताब 'अमृत कुंभ' पढ़ कर उन्हें सुनाते। आख़िर एक रोज़ कैंसर ने बिमल दा के खोखले हो चुके शरीर पर पूरी तरह से कब्ज़ा कर लिया और साँसों की डोर काट दी। ये तारीख़ थी, 08 जनवरी 1966. इसी रोज़ एक तरफ़ गुलज़ार ने बिमल दा की अंत्येष्टि संबंधी क्रियाएं पूरी कीं, वहीं दूसरी तरफ़ अपने पिता का भी तर्पण कर कुछ हद तक दिल का बोझ हल्का किया।
15 मई, 1973 को अभिनेत्री राखी और गुलज़ार ने साथ जीने-मरने की कसमें खाईं, लेकिन 3 साल में ही कसमों की ये डोर टूट गई और दोनों अलग हो गए। इस बीच एक बेटी 'मेघना' उनकी ज़िन्दगी में आई। प्यार से गुलज़ार ने उसे 'बोस्की' नाम दिया। बरसों से अलग-अलग रह रहे पति-पत्नी, राखी-गुलज़ार के बीच फ़िलवक़्त बोस्की ही एक कड़ी है। गुलज़ार अपने एकाकीपन को 'ख़ामोशी' से जीने के साथ-साथ इस एहसास को लफ़्ज़ों का पैरहन ओढ़ाकर नए-नए शाहकार रच रहे हैं। उन्हें बोलते हुए सुनना कभी न भूल पाने वाला एहसास है। यूँ लगता है, जैसे वो हाथों के इशारे से अपने चारों तरफ़ हवा के कैनवास पर कोई चित्र बना रहे हैं। और यही चित्र लफ़्ज़, शायरी, नज़्म या नग़मे की शक़्ल में हमारे दिलों पर उभर जाते हैं। बरसों से सफ़ेद कुर्ते-पायजामे को अपना लिबास किए हुए, लगता है गुलज़ार कभी अपने माज़ी के गाँव दीना की गलियों से बाहर आए ही नहीं। या फिर लगता है, उनके बचपन पर लगे हिज्रत के घावों ने उनके दिल में हर रंग के लिए नफ़रत भर दी हो, शायद आज तक गुलज़ार उसी के मातम में सफ़ेद रंग ओढ़े हुए हैं।[4]
सम्मान और पुरस्कार
गुलज़ार को तीन बार 'राष्ट्रीय पुरस्कार' से भी नवाजा जा चुका है। इनमें वर्ष 1972 में 'कोशिश' फ़िल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ स्क्रीनप्ले का पुरस्कार, वर्ष 1975 में 'मौसम' फ़िल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक और वर्ष 1987 में 'इजाज़त' फ़िल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का पुरस्कार शामिल है। गुलज़ार के चमकदार कैरियर में एक गौरवपूर्ण नया अध्याय तब जुड़ गया जब वर्ष 2009 में फ़िल्म 'स्लमडॉग मिलियनेयर' में उनके गीत 'जय हो' को ऑस्कर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। भारतीय सिनेमा में उनके योगदान को देखते हुए वर्ष 2004 में उन्हें देश के तीसरे बड़े नागरिक सम्मान पद्मभूषण से भी सम्मानित किया गया।[1]इसके अतिरिक्त गुलज़ार को वर्ष 2002 में 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' भी मिल चुका है। क़रीब चार दशकों से भारतीय सिने प्रेमियों को अपने गीतों का दीवाना बनाने वाले मशहूर गीतकार गुलज़ार को वर्ष 2013 के लिए दादा साहब फाल्के पुरस्कार दिया गया है। ‘तुझसे नाराज़ नहीं ज़िंदगी’ और ‘तेरे बिना ज़िंदगी से’ जैसे अनेक लोकप्रिय गीत लिखने वाले और ‘मेरे अपने’, ‘कोशिश’, ‘खुशबू’, ‘अंगूर’, ‘लिबास’ और ‘माचिस’ जैसी फिल्मों का निर्देशन कर चुके 79 वर्षीय गुलजार यह सम्मान पाने वाले 45वीं शख्सियत हैं। इसके अलावा उन्हें 1977, 1979, 1980, 1983, 1988, 1991,1998, 2002, 2005 आदि में सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार भी मिल चुका है।
70 साल बाद पाकिस्तान यात्रा
गुलज़ार का जन्म विभाजन से पहले पाकिस्तान के हिस्से वाले पंजाब के दीना में हुआ था। लेकिन विभाजन के बाद गुलज़ार अपने परिवार के साथ भारत आ गए थे। उस वक्त गुलज़ार की उम्र महज 8 साल थी। गुलज़ार ने अपने दिल में 70 साल तक अपनी एक इच्छा को जिंदा रखा। वह पाकिस्तान में बीते अपने बचपन, घर और गलियों को एक बार फिर देखना चाहते थे। अपनी इसी ख्वाहिश को पूरा करने के लिए गुलज़ार साल 2015 में पाकिस्तान गए। 70 साल बाद अपनी बचपन की यादों को ताजा कर पाकिस्तान से लौटे गुलज़ार ने पाकिस्तान जाने के अपने अनुभव को साझा भी किया था।[5]
गुलज़ार ने पाकिस्तान में अपने अनुभव को साझा करते हुए कहा था, "70 साल के बाद आप जब दोबारा उस जगह जाते हैं, वो घर वहां पाते हैं, वो गली वहां पाते हैं, वो स्कूल देखते हैं। तो ये बहुत ही भावनात्मक अनुभव होता है।" उन्होंने आगे कहा, "पाकिस्तान में अपने घर को देखकर मेरे बचपन की यादें ताजा हो गईं थी। उस समय मेरा कुछ पल अकेले रहने का मन था। मैं अकेले बैठकर रोना चाहता था लेकिन जब लोग आपको जानते हों तो ये आपके लिए कई बार अड़चन भी बन जाता है। क्योंकि जब उस वक्त लोगों की भीड़ आपके आसपास हो तो आप वो गली कैसे देखेंगे, भीड़ हटती तो पूरी गली देखता।" पाकिस्तान जाने के अनुभव को गुलज़ार साहब ने मराठी अखबार 'लोकमत' के गेस्ट एडिटर के तौर पर साझा किया था। उनकी इस पाकिस्तान यात्रा को दोनों देशों की मीडिया ने भी कवर किया था। गुलज़ार ने इस बारे में आगे कहा था कि पाकिस्तानी लोग बहुत अच्छे थे। उन्होंने मुझे मेरा घर अंदर से देखने दिया। कुछ बुज़ुर्ग वहां मिले, बहुत बूढे़ थे। कुछ तो मेरे परिवार वालों को जानते भी थे। एक मेरे बड़े भाई को जानते थे, एक को मेरी बहन का नाम पता था और एक को मेरी मां का नाम भी याद था। यही नहीं एक बुज़ुर्ग तो मेरे मामा को भी जानते थे। गुलज़ार ने कहा कि उन्होंने मेरे कई ऐसे रिश्तेदारों के बारे में भी पूछा जिनके बारे में हमें ही पता नहीं था कि वो अब कहां जाकर बस गए।
गुलज़ार आगे बोले, वहां मौजूद लोगों में एक ने पंजाबी में हंसकर बोला, 'तेरा बाप आता था तो किराए के पांच रुपए लेता था, अब मकान मालिक तू है और यहां आया है तो पांच रुपए ले जा।' गुलज़ार ने बताया था कि ये सब बातें सुनकर वह अकेले बैठकर रोना चाहते थे। वहां अकेले बैठकर कुछ वक्त बिताना चाहते थे। गुलज़ार ने यह भी कहा था कि ये सब सुनकर और देखकर उनका मन इतना भर आया कि वह वहां से बिना कुछ खाए चले गए। लोगों ने बहुत इंतजाम भी किए थे लेकिन उस वक्त उनका कुछ खाने का मन नहीं था और वह वहां से निकल गए। उनके इसी कदम को बाद में लोगों ने बुरा बर्ताव बताया था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 गुलज़ार जन्म दिवस पर: दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन. . (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) खास खबर। अभिगमन तिथि: 24 सितम्बर, 2012।
- ↑ प्रोग्रेसिव रायर्टस एसोसिएशन
- ↑ 3.0 3.1 3.2 हजार चेहरों वाले गुलज़ार (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) वेब दुनिया हिन्दी। अभिगमन तिथि: 24 सितम्बर, 2012।
- ↑ 4.0 4.1 4.2 शायद इसीलिए आज तक सफ़ेद रंग ओढ़े हैं गुलज़ार (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) वेब दुनिया हिन्दी। अभिगमन तिथि: 19 फ़रवरी, 2017।
- ↑ जब Gulzar sahab को एक पाकिस्तानी ने कहा-‘यहां आया है तो ले 5 रुपये ले जा’ (हिंदी) livehindustan.com। अभिगमन तिथि: 18 अगस्त, 2021।
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