प्रतापसाहि

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  • प्रतापसाहि 'रतनसेन बंदीजन' के पुत्र थे और चरखारी, बुंदेलखंड के महाराज 'विक्रमसाहि' के यहाँ रहते थे।
  • इन्होंने संवत 1882 में 'व्यंग्यार्थ कौमुदी' और संवत 1886 में 'काव्य विलास' की रचना की। इन दोनों परम प्रसिद्ध ग्रंथों के अतिरिक्त निम्नलिखित पुस्तकें इनकी लिखी हुई हैं-
  1. जयसिंह प्रकाश [1],
  2. श्रृंगारमंजरी [2],
  3. श्रृंगार शिरोमणि [3],
  4. अलंकार चिंतामणि [4],
  5. काव्य विनोद [5],
  6. रसराज की टीका [6],
  7. रत्नचंद्रिका [7],
  8. जुगल नखशिख [8],
  9. बलभद्र नखशिख की टीका।
  10. इनका कविता काल संवत 1880 से 1900 तक ठहरता है।
  • इनकी रचनाओं से इनकी साहित्यमर्मज्ञता और पांडित्य का अनुमान होता है। आचार्यत्व में इनका नाम मतिराम, श्रीपति और भिखारी दास के साथ आता है और एक दृष्टि से इन्होंने उनके चलाए हुए कार्य को पूर्णता को पहुँचाया था। लक्षणा व्यंजना का उदाहरणों द्वारा विस्तृत निरूपण पूर्ववर्ती तीन कवियों ने नहीं किया था। इन्होंने व्यंजना के उदाहरणों की एक अलग पुस्तक ही 'व्यंग्यार्थ कौमुदी' के नाम से रची। इसमें कवित्त, दोहे, सवैये मिलाकर 130 पद्य हैं जो सब व्यंजना या ध्वनि के उदाहरण हैं।
  • नायिकाओं के भेदों, रसादि के सब अंगों तथा भिन्न-भिन्न बँधो उपमान का अभ्यास न रखने वाले के लिए ऐसे पद्य पहेली ही समझिए। उदाहरण के लिए 'व्यंग्यार्थ कौमुदी' का सवैया -

सीख सिखाई न मानति है, बर ही बस संग सखीन के आवै।
खेलत खेल नए जल में, बिना काम बृथा कत जाम बितावै
छोड़ि कै साथ सहेलिन को, रहि कै कहि कौन सवादहि पावै।
कौन परी यह बानि, अरी! नित नीरभरी गगरी ढरकावै

  • घड़े के पानी में अपने नेत्रों का प्रतिबिंब देख उसे मछलियों का भ्रम होता है। इस प्रकार का भ्रम एक अलंकार है। अत: भ्रम या भ्रांति अलंकार, यहाँ व्यंग्य हुआ। 'भ्रम' अलंकार में 'सादृश्य' व्यंग्य रहा करता है अत: अब इस व्यंग्यार्थ पर पहुँचे कि 'नेत्र मीन के समान हैं'।
  • प्रतापसाहि का काव्य कौशल अपूर्व है। उन्होंने एक रस ग्रंथ के अनुरूप नायिका भेद के क्रम से सब पद्य रखे हैं जिससे उनके ग्रंथ को जी चाहे तो नायिका भेद का एक अत्यंत सरस और मधुर ग्रंथ भी कह सकते हैं।
  • आचार्यत्व और कवित्व दोनों के एक अनूठे संयोग की दृष्टि से मतिराम, श्रीपति और दास से ये कुछ बीस ही ठहरते हैं।
  • भाषा की स्निग्ध सुख सरल गति, कल्पना की मूर्तिमत्ता और हृदय की द्रवणशीलता मतिराम, श्रीपति और बेनी प्रवीन के जाती है तो उधर आचार्यत्व इन तीनों में भी और दास से भी कुछ आगे दिखाई पड़ता है। इनकी प्रखर प्रतिभा ने मानो पद्माकर की प्रतिभा के साथ रीतिबद्ध काव्यकला को पूर्णता पर पहुँचाकर छोड़ दिया। पद्माकर की अनुप्रास योजना कभी कभी रुचिकर सीमा के बाहर जा पड़ी है, पर इस भावुक और प्रवीण की वाणी में यह दोष कहीं नहीं आने पाया है। इनकी भाषा में बड़ा गुण यह है कि यह बराबर एक समान चलती है, उसमें न कहीं कृत्रिम आडंबर है, न गति का शैथिल्य और न शब्दों की तोड़ मरोड़।
  • हिन्दी के मुक्तक कवियों में समस्यापूर्ति की पद्धति पर रचना करने के कारण एक अत्यंत प्रत्यक्ष दोष देखने में आता है। उनके अंतिम चरण की भाषा तो बहुत ही गँठी हुई, व्यवस्थित और मार्मिकहै पर शेष तीन चरणों में यह बात बहुत ही कम है। बहुत से स्थलों पर वाक्य रचना बिल्कुल अव्यवस्थित और बहुत सी पदयोजना निरर्थक हैं। पर 'प्रताप' की भाषा एकरस चलती है। इन सब बातों के विचार से हम प्रताप जी को पद्माकर के समकक्ष ही बहुत बड़ा कवि मानते हैं।


चंचलता अपनी तजि कै रस ही रस सों रस सुंदर पीजियो।
कोऊ कितेक कहै तुमसों तिनकी कही बातन को न पतीजियो
चोज चवाइन के सुनियो न यही इक मेरी कही नित कीजियो।
मंजुल मंजरी पै हौ, मलिंद! विचारि कै भार सँभारि कै दीजियो

तड़पै तड़िता चहुँ ओरन तें, छिति छाई समीरन की लहरैं।
मदमाते महा गिरिशृंगन पै, गन मंजु मयूरन के कहरैं
इनकी करनी बरनी न परै, मगरूर गुमानन सों गहरैं।
घन ये नभमंडल में छहरैं, घहरैं कहुँ जाय, कहूँ ठहरैं

कानि करै गुरुलोगन की, न सखीन की सीखन ही मन लावति।
ऐंड़ भरी अंगराति खरी, कत घूँघट में नए नैन नचावति
मंजन कै दृग अंजन ऑंजति, अंग अनंग उमंग बढ़ावति।
कौन सुभाव री तेरो परयो, खिन ऑंगन में खिन पौरि में आवति

कहा जानि, मन में मनोरथ विचारि कौन,
चेति कौन काज, कौन हेतु उठि आई प्रात।
कहै परताप छिन डोलिबो पगन कहूँ,
अंतर को खोलिबो न बोलिबो हमैं सुहात
ननद जिठानी सतरानी, अनखानी अति,
रिस कै रिसानी, सो न हमैं कछु जानीजात।
चाहौ पल बैठ रहौ, चाहौ उठि जाव तौन,
हमको हमारी परी, बूझै को तिहारी बात?

चंचल चपला चारु चमकत चारों ओर,
झूमि झूमि धाुरवा धारनि परसत है।
सीतल समीर लगै दुखद वियोगिन्ह,
सँयोगिन्ह समाज सुखसाज सरसत है
कहैं परताप अति निविड़ अंधेरी माँह,
मारग चलत नाहि नेकु दरसत है।
झुमड़ि झलानि चहुँ कोद तें उमड़ि आज,
धाराधार धारन अपार बरसत है


महाराज रामराज रावरो सजत दल,
होत मुख अमल अनंदित महेस के।
सेवत दरीन केते गब्बर गनीम रहैं,
पन्नग पताल त्यों ही डरन खगेस के
कहैं परताप धारा धाँसत त्रासत,
कसमसत कमठ पीठि कठिन कलेस के।
कहरत कोल, हहरत हैं दिगीस दल,
लहरत सिंधु, थहरत फन सेस के


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संवत 1882
  2. संवत 1889
  3. 1894
  4. संवत 1894
  5. संवत 1896
  6. संवत 1896
  7. सतसई की टीका, संवत 1896
  8. सीता राम का नखशिख वर्णन

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