नाभादास

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नाभादास अग्रदास जी के शिष्य, बड़े भक्त और साधुसेवी थे। संवत् 1657 के लगभग वर्तमान थे और गोस्वामी तुलसीदास जी की मृत्यु के बहुत पीछे तक जीवित रहे। इनका प्रसिद्ध ग्रंथ 'भक्तमाल' संवत् 1642 के पीछे बना और संवत् 1769 में 'प्रियादास' जी ने उसकी टीका लिखी।

नाभादास के जन्मस्थान, माता-पिता, जाति आदि के संबंध में भी प्रमाणों के अभाव में अधिकारपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। 'भक्तनामावली' के संपादक राधाकृष्णदास ने किंवदंती के आधार पर लिखा है कि नाभादास जन्मांध थे और बाल्यावस्था में ही इनके पिता की मृत्यु हो गई। उस समय देश में अकाल की स्थिति थी, अत: माता इनका पालन-पोषण न कर सकीं और इन्हें वन में छोड़कर चली गईं। संयोगवश कील्ह और अग्रदास जी उसी वन में होकर जा रहे थे, उन्होंने बालक को देखा और उठा ले आए। महात्माओं के प्रभाव से नाभादास ने आँखों की ज्योति प्राप्त की और अग्रदास जी ने इन्हें दीक्षित किया।

तुलसीदास और नाभादास

नाभा जी को कुछ लोग 'डोम', कुछ 'क्षत्रिय' बताते हैं। ऐसा प्रसिद्ध है कि वे एक बार गोस्वामी तुलसीदास जी से मिलने काशी गए। पर उस समय गोस्वामी जी ध्यान में थे, इससे न मिल सके। नाभा जी उसी दिन वृंदावन चले गए। ध्यान भंग होने पर गोस्वामी जी को बड़ा खेद हुआ और वे तुरंत नाभा जी से मिलने वृंदावन चल दिए। नाभा जी के यहाँ वैष्णवों का भंडारा था जिसमें गोस्वामी जी बिना बुलाए जा पहुँचे। गोस्वामी जी यह समझकर कि नाभा जी ने मुझे अभिमानी न समझा हो, सबसे दूर एक किनारे बुरी जगह बैठ गए। नाभा जी ने जान बूझकर उनकी ओर ध्यान न दिया। परसने के समय कोई पात्र न मिलता था जिसमें गोस्वामी जी को खीर दी जाती। यह देखकर गोस्वामी जी एक साधु का जूता उठा लाए और बोले, 'इससे सुंदर पात्र मेरे लिए और क्या होगा?' इस पर नाभा जी ने उठकर उन्हें गले लगा लिया और गद्गद हो गए। ऐसा कहा जाता है कि तुलसी संबंधी अपने प्रसिद्ध छप्पय के अंत में पहले नाभा जी ने कुछ चिढ़कर यह चरण रखा था कलि कुटिल जीव तुलसी भए, वाल्मीकि अवतार धारि। यह वृत्तांत कहाँ तक ठीक है, नहीं कहा जा सकता, क्योंकि गोस्वामी जी खानपान का विचार रखने वाले स्मार्त वैष्णव थे। तुलसीदास जी के संबंध में नाभा जी का प्रसिद्ध छप्पय है -

त्रोता काव्य निबंध करी सत कोटि रमायन।
इक अच्छर उच्चरे ब्रह्महत्यादि परायन॥
अब भक्तन सुख दैन बहुरि लीला बिस्तारी।
रामचरनरसमत्ता रहत अहनिसि व्रतधारी॥
संसार अपार के पार को सुगम रूप नौका लियो।
कलि कुटिल जीव निस्तारहित वाल्मीकि तुलसी भयो॥

राम भक्ति

अपने गुरु अग्रदास के समान इन्होंने भी रामभक्ति संबंधी कविता की है। ब्रजभाषा पर इनका अच्छा अधिकार था और पद्य रचना में अच्छी निपुणता थी। रामचरित संबंधी इनके पदों का एक छोटा सा संग्रह अभी थोड़े दिन हुए प्राप्त हुआ है।

अष्टयाम

इन पुस्तकों के अतिरिक्त इन्होंने दो 'अष्टयाम' भी बनाए एक ब्रजभाषा गद्य में, दूसरा रामचरितमानस की शैली पर दोहा चौपाइयों में। दोनों के उदाहरण इस प्रकार हैं -

गद्य

तब श्री महाराजकुमार प्रथम श्री वशिष्ठ महाराज के चरन छुइ प्रनाम करत भए। फिरि अपर वृद्ध समाज तिनको प्रनाम करत भए। फिरि श्री राजाधिराज जू को जोहार करिके श्री महेंद्रनाथ दशरथ जू के निकट बैठत भए।

पद्य

अवधपुरी की शोभा जैसी । कहि नहिं सकहिं शेष श्रुति तैसी॥
रचित कोट कलधौत सुहावन । बिबिधा रंग मति अति मन भावन॥
चहुँ दिसि विपिन प्रमोदअनूपा । चतुरवीस जोजन रस रूपा॥
सुदिसि नगर सरजूसरिपावनि । मनिमय तीरथ परम सुहावनि॥
बिगसे जलज भृंग रस भूले । गुंजत जल समूह दोउ कूले॥
परिखा प्रति चहुँदिसि लसति, कंचन कोट प्रकास।
बिबिधा भाँति नग जगमगत, प्रति गोपुर पुर पास॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ


आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 4”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 108।

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