सूरति मिश्र

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सूरति मिश्र आगरा के रहने वाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इन्होंने स्वयं लिखा है, सूरति मिश्र कनौजिया, नगर आगरे बास। इन्होंने 'अलंकारमाला' संवत 1766 में और 'बिहारी सतसई' की 'अमरचंद्रिका' टीका संवत 1794 में लिखी। अत: इनका कविता काल विक्रम की अठारहवीं शताब्दी का अंतिम चरण माना जा सकता है।

  • ये नसरुल्ला खाँ नामक सरदार के यहाँ तथा दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह के दरबार में आया जाया करते थे।
  • इन्होंने 'बिहारी सतसई', 'कविप्रिया' और 'रसिकप्रिया' पर विस्तृत टीकाएँ रची हैं, जिनसे इनके साहित्यज्ञान और मार्मिकता का अच्छा परिचय मिलता है। टीकाएँ ब्रजभाषा गद्य में हैं। इन टीकाओं के अतिरिक्त इन्होंने 'वैताल पंचविंशति' का ब्रजभाषा गद्य में अनुवाद किया है और निम्नलिखित रीतिग्रंथ रचे हैं -
  1. अलंकारमाला
  2. रसरत्नमाला
  3. रससरस
  4. रसग्राहकचंद्रिका
  5. नखशिख
  6. काव्यसिध्दांत
  7. रसरत्नाकर
  • अलंकारमाला की रचना इन्होंने 'भाषाभूषण' के ढंग पर की है। इसमें भी लक्षण और उदाहरण प्राय: एक ही दोहे में मिलते हैं; जैसे

हिम सो, हर के हास सो जस मालोपम ठानि

सो असंगति, कारन अवर, कारज औरै थान।
चलि अहि श्रुति आनहि डसत, नसत और के प्रान

  • इनके सब ग्रंथ सब नहीं मिलते हैं। उपलब्ध साहित्य से ये अच्छे साहित्य मर्मज्ञ और कवि जान पड़ते हैं।
  • 'नखशिख' से इनका एक कवित्त इस प्रकार है -

तेरे ये कपोल बाल अतिही रसाल,
मन जिनकी सदाई उपमा बिचारियत है।
कोऊ न समान जाहि कीजै उपमान,
अरु बापुरे मधूकन की देह जारियत है
नेकु दरपन समता की चाह करी कहूँ,
भए अपराधी ऐसो चित्त धारियत है।
'सूरति' सो याही तें जगत बीच आजहूँ लौ,
उनके बदन पर छार डारियत है


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