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[[शांतनु|महाराज शांतनु]] तथा [[गंगा|देवी गंगा]] के पुत्र [[भीष्म|भीष्म पितामह]] ने आजीवन ब्रह्मचारी रहने की अखंड प्रतिज्ञा ली थी। उनका पूरा जीवन सत्य और न्याय का पक्ष लेते हुए व्यतीत हुआ। यही कारण है कि [[महाभारत]] के सभी पात्रों में भीष्म पितामह अपना एक विशिष्ट स्थान रखते है। इनका जन्म का नाम 'देवव्रत' था, परन्तु अपने [[पिता]] के लिये इन्होंने आजीवन [[विवाह संस्कार|विवाह]] न करने का प्रण लिया था, इसी कारण से इनका नाम 'भीष्म' पड़ा।  
 
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==कथा==
 
[[महाभारत]] के तथ्यों के अनुसार गंगापुत्र देवव्रत (भीष्म) की माता देवी गंगा अपने पति को दिये वचन के अनुसार अपने पुत्र को अपने साथ ले गई थी। देवव्रत की प्रारम्भिक शिक्षा और लालन-पालन इनकी माता के पास ही पूरा हुआ। इन्होंने [[परशुराम|महार्षि परशुराम]] से [[अस्त्र शस्त्र|अस्त्र-शस्त्र]] की शिक्षा प्राप्त की। दैत्यगुरु [[शुक्राचार्य]] से भी इन्हें काफ़ी कुछ सीखने का सौभाग्य मिला था। अपनी अनुपम युद्ध कला के लिये भी देवव्रत को विशेष रूप से जाना जाता है।
 
 
जब देवव्रत ने अपनी सभी शिक्षाएं पूरी कर लीं तो उन्हें उनकी माता ने उनके पिता [[हस्तिनापुर]] के [[शांतनु|महाराज शांतनु]] को सौंप दिया। कई वर्षों के बाद पिता-पुत्र का मिलन हुआ और महाराज शांतनु ने अपने पुत्र को युवराज घोषित कर दिया।<ref>{{cite web |url= http://astrobix.com/jyotisha/post/bhishma-ashtami-2011-bhishma-ashtami-vrat-katha.aspx|title= भीष्म अष्टमी व्रत|accessmonthday= 20 दिसम्बर|accessyear= 2014|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=ज्योतिष ब्लॉग|language= हिन्दी}}</ref>
 
====भीष्म प्रतिज्ञा====
 
एक समय राजा शांतनु शिकार खेलते-खेलते [[गंगा]] तट के पार चले गए। वहां से लौटते वक्त उनकी भेंट हरिदास केवट की पुत्री 'मत्स्यगंधा' ([[सत्यवती]]) से हुई। मत्स्यगंधा बहुत ही रूपवान थी। उसे देखकर शांतनु उसके लावण्य पर मोहित हो गए। राजा शांतनु हरिदास के पास जाकर उसका हाथ मांगते है, परंतु वह राजा के प्रस्ताव को ठुकरा देता है और कहता है कि- "महाराज! आपका ज्येष्ठ पुत्र देवव्रत है, जो आपके राज्य का उत्तराधिकारी है, यदि आप मेरी कन्या के पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी बनाने की घोषणा करें तो मैं मत्स्यगंधा का हाथ आपके हाथ में देने को तैयार हूं।" परंतु राजा शांतनु को यह प्रस्ताव किसी भी मूल्य पर स्वीकार नहीं था और वे हरिदास केवट के प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं। ऐसे ही समय व्यतीत होता रहा, लेकिन महाराज शांतनु मत्स्यगंधा को न भूला सके और दिन-रात उसकी याद में व्याकुल रहने लगे। यह सब देखकर एक दिन देवव्रत ने अपने पिता से उनकी व्याकुलता का कारण पूछा। सारा वृत्तांत जानने पर देवव्रत स्वयं केवट हरिदास के पास गए और उनकी जिज्ञासा को शांत करने के लिए गंगा जल हाथ में लेकर शपथ लेते हैं कि- "मैं गंगापुत्र देवव्रत आज ये प्रतिज्ञा करता हूँ कि आजीवन अविवाहित ही रहूँगा।"<ref>{{cite web |url= http://hindi.webdunia.com/other-festivals/%E0%A4%AD%E0%A5%80%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%AE%E0%A5%80-%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-%E0%A4%AA%E0%A4%A2%E0%A4%BC%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%AA%E0%A5%8C%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%BF%E0%A4%95-%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A4-%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE-114020600072_1.htm|title= भीमाष्टमी पर्व, पौराणिक व्रत कथा|accessmonthday=20 दिसम्बर|accessyear= 2014|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=वेबदुनिया|language= हिन्दी}}</ref>
 
 
देवव्रत की इसी कठिन प्रतिज्ञा के कारण उनका नाम '[[भीष्म]]' पड़ा। तब [[शांतनु|राजा शांतनु]] ने प्रसन्न होकर अपने पुत्र को इच्छित मृत्यु का वरदान दिया। [[महाभारत]] के युद्ध की समाप्ति पर जब [[सूर्य देव]] [[दक्षिणायन]] से [[उत्तरायण]] हुए, तब भीष्म पितामह ने अपना शरीर त्याग दिया। इसलिए [[माघ]] [[शुक्ल पक्ष]] की [[अष्टमी]] को उनका निर्वाण दिवस मनाया जाता है।
 
 
==व्रत महत्त्व==
 
==व्रत महत्त्व==
 
माना जाता है कि भीष्म अष्टमी के दिन भीष्म पितामह की स्मृति के निमित्त जो श्रद्धालु कुश, [[तिल]], [[जल]] के साथ [[श्राद्ध]], [[तर्पण (श्राद्ध)|तर्पण]] करता है, उसे संतान तथा मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होती है और पाप नष्ट हो जाते हैं। इस व्रत को करने से पितृ्दोष से मुक्ति मिलती है और संतान की कामना भी पूरी होती है। व्रत करने वाले व्यक्ति को चाहिए, कि इस व्रत को करने के साथ-साथ इस दिन भीष्म पितामह की [[आत्मा]] की शान्ति के लिये तर्पण भी करे। पितामह के आशिर्वाद से उपवासक को पितामह समान सुसंस्कार युक्त संतान की प्राप्ति होती है।
 
माना जाता है कि भीष्म अष्टमी के दिन भीष्म पितामह की स्मृति के निमित्त जो श्रद्धालु कुश, [[तिल]], [[जल]] के साथ [[श्राद्ध]], [[तर्पण (श्राद्ध)|तर्पण]] करता है, उसे संतान तथा मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होती है और पाप नष्ट हो जाते हैं। इस व्रत को करने से पितृ्दोष से मुक्ति मिलती है और संतान की कामना भी पूरी होती है। व्रत करने वाले व्यक्ति को चाहिए, कि इस व्रत को करने के साथ-साथ इस दिन भीष्म पितामह की [[आत्मा]] की शान्ति के लिये तर्पण भी करे। पितामह के आशिर्वाद से उपवासक को पितामह समान सुसंस्कार युक्त संतान की प्राप्ति होती है।

06:09, 4 फ़रवरी 2017 के समय का अवतरण

भीष्म अष्टमी अथवा भीमाष्टमी व्रत माघ मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को किया जाता है। इस दिन महाभारत के पौराणिक पात्र भीष्म पितामह को अपनी इच्छा अनुसार मृ्त्यु प्राप्त हुई थी। भीष्म पितामह को बाल ब्रह्मचारी और कौरवों के पूर्वजों के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन भीष्म के नाम से पूजन और तर्पण करने से वीर और सत्यवादी संतान की प्राप्ति होती है।


भीष्म

महाराज शांतनु तथा देवी गंगा के पुत्र भीष्म पितामह ने आजीवन ब्रह्मचारी रहने की अखंड प्रतिज्ञा ली थी। उनका पूरा जीवन सत्य और न्याय का पक्ष लेते हुए व्यतीत हुआ। यही कारण है कि महाभारत के सभी पात्रों में भीष्म पितामह अपना एक विशिष्ट स्थान रखते है। इनका जन्म का नाम 'देवव्रत' था, परन्तु अपने पिता के लिये इन्होंने आजीवन विवाह न करने का प्रण लिया था, इसी कारण से इनका नाम 'भीष्म' पड़ा।

व्रत महत्त्व

माना जाता है कि भीष्म अष्टमी के दिन भीष्म पितामह की स्मृति के निमित्त जो श्रद्धालु कुश, तिल, जल के साथ श्राद्ध, तर्पण करता है, उसे संतान तथा मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होती है और पाप नष्ट हो जाते हैं। इस व्रत को करने से पितृ्दोष से मुक्ति मिलती है और संतान की कामना भी पूरी होती है। व्रत करने वाले व्यक्ति को चाहिए, कि इस व्रत को करने के साथ-साथ इस दिन भीष्म पितामह की आत्मा की शान्ति के लिये तर्पण भी करे। पितामह के आशिर्वाद से उपवासक को पितामह समान सुसंस्कार युक्त संतान की प्राप्ति होती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

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