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*ये तपस्या और पवित्रता की प्रतिमूर्ति थे। अटूट शिवभक्ति और वैराग्य में इनकी जन्म से ही निष्ठा थी।  
 
*ये तपस्या और पवित्रता की प्रतिमूर्ति थे। अटूट शिवभक्ति और वैराग्य में इनकी जन्म से ही निष्ठा थी।  
 
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*एक बार महर्षि दधीचि बड़ी ही कठोर तपस्या कर रहे थे। इनकी अपूर्व तपस्या के तेज से तीनों लोक आलोकित हो गये और [[इन्द्र]] का सिंहासन हिलने लगा। इन्द्र को लगा कि ये अपनी कठोर तपस्या के द्वारा इन्द्र पद छीनना चाहते हैं। इसलिये उन्होंने महर्षि की तपस्या को खण्डित करने के उद्देश्य से परम रूपवती अलम्बुषा अप्सरा के साथ कामदेव को भेजा। अलम्बुषा और कामदेव के अथक प्रयत्न के बाद भी महर्षि अविचल रहे और अन्त में विफल मनोरथ होकर दोनों इन्द्र के पास लौट गये। [[कामदेव]] और अप्सरा के निराश होकर लौटने के बाद इन्द्र ने महर्षि की हत्या करने का निश्चय किया और देवसेना को लेकर महर्षि दधीचि के आश्रम पर पहुँचे। वहाँ पहुँचकर देवताओं ने शान्त और समाधिस्थ महर्षि पर अपने कठोर-अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करना शुरू कर दिया। देवताओं के द्वारा चलाये गये अस्त्र-शस्त्र महर्षि की तपस्या के अभेद्य दुर्ग को न भेद सके और महर्षि अविचल समाधिस्थ बैठे रहे। इन्द्र के अस्त्र-शस्त्र भी उनके सामने व्यर्थ हो गये। हारकर देवराज स्वर्ग लौट आये।  
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*एक बार महर्षि दधीचि बड़ी ही कठोर तपस्या कर रहे थे। इनकी अपूर्व तपस्या के तेज़ से तीनों लोक आलोकित हो गये और [[इन्द्र]] का सिंहासन हिलने लगा। इन्द्र को लगा कि ये अपनी कठोर तपस्या के द्वारा इन्द्र पद छीनना चाहते हैं। इसलिये उन्होंने महर्षि की तपस्या को खण्डित करने के उद्देश्य से परम रूपवती अलम्बुषा अप्सरा के साथ कामदेव को भेजा। अलम्बुषा और कामदेव के अथक प्रयत्न के बाद भी महर्षि अविचल रहे और अन्त में विफल मनोरथ होकर दोनों इन्द्र के पास लौट गये। [[कामदेव]] और अप्सरा के निराश होकर लौटने के बाद इन्द्र ने महर्षि की हत्या करने का निश्चय किया और देवसेना को लेकर महर्षि दधीचि के आश्रम पर पहुँचे। वहाँ पहुँचकर देवताओं ने शान्त और समाधिस्थ महर्षि पर अपने कठोर-अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करना शुरू कर दिया। देवताओं के द्वारा चलाये गये अस्त्र-शस्त्र महर्षि की तपस्या के अभेद्य दुर्ग को न भेद सके और महर्षि अविचल समाधिस्थ बैठे रहे। इन्द्र के अस्त्र-शस्त्र भी उनके सामने व्यर्थ हो गये। हारकर देवराज स्वर्ग लौट आये।  
 
*एक बार देवराज इन्द्र अपनी सभा में बैठे थे, उसी समय देवगुरु [[बृहस्पति ऋषि|बृहस्पति]] आये। अहंकारवश इन्द्र गुरु बृहस्पति के सम्मान में उठकर खड़े नहीं हुए। बृहस्पति ने इसे अपना अपमान समझा और देवताओं को छोड़कर अन्यत्र चले गये। देवताओं को विश्वरूप को अपना पुरोहित बनाकर काम चलाना पड़ा, किन्तु विश्वरूप कभी-कभी देवताओं से छिपाकर असुरों को भी यज्ञ-भाग दे दिया करता था। इन्द्र ने उस पर कुपित होकर उसका सिर काट लिया। विश्वरूप त्वष्टा ऋषि का पुत्र था उन्होंने क्रोधित होकर इन्द्र को मारने के उद्देश्य से महाबली वृत्रासुर को उत्पन्न किया। वृत्रासुर के भय से इन्द्र अपना सिंहासन छोड़कर देवताओं के साथ मारे-मारे फिरने लगे।  
 
*एक बार देवराज इन्द्र अपनी सभा में बैठे थे, उसी समय देवगुरु [[बृहस्पति ऋषि|बृहस्पति]] आये। अहंकारवश इन्द्र गुरु बृहस्पति के सम्मान में उठकर खड़े नहीं हुए। बृहस्पति ने इसे अपना अपमान समझा और देवताओं को छोड़कर अन्यत्र चले गये। देवताओं को विश्वरूप को अपना पुरोहित बनाकर काम चलाना पड़ा, किन्तु विश्वरूप कभी-कभी देवताओं से छिपाकर असुरों को भी यज्ञ-भाग दे दिया करता था। इन्द्र ने उस पर कुपित होकर उसका सिर काट लिया। विश्वरूप त्वष्टा ऋषि का पुत्र था उन्होंने क्रोधित होकर इन्द्र को मारने के उद्देश्य से महाबली वृत्रासुर को उत्पन्न किया। वृत्रासुर के भय से इन्द्र अपना सिंहासन छोड़कर देवताओं के साथ मारे-मारे फिरने लगे।  
 
*[[ब्रह्मा]] जी की सलाह से देवराज इन्द्र महर्षि दधीचि के पास उनकी हड्डियाँ माँगने के लिये गये। उन्होंने महर्षि से प्रार्थना करते हुए कहा- 'प्रभो! त्रैलोक्य की मंगल-कामना हेतु आप अपनी हड्डियाँ हमें दान दे दीजिये।' महर्षि दधीचि ने कहा- 'देवराज! यद्यपि अपना शरीर सबको प्रिय होता है, किन्तु लोकहित के लिये मैं तुम्हें अपना शरीर प्रदान करता हूँ।' महर्षि दधीचि की हड्डियों से वज्र का निर्माण हुआ और वृत्रासुर मारा गया। इस प्रकार एक महान परोपकारी ऋषि के अपूर्व त्याग से देवराज इन्द्र बच गये और तीनों लोक सुखी हो गये। अपने अपकारी शत्रु के भी हित के लिये सर्वस्व त्याग करने वाले महर्षि दधीचि-जैसा उदाहरण संसार में अन्यत्र मिलना कठिन है।
 
*[[ब्रह्मा]] जी की सलाह से देवराज इन्द्र महर्षि दधीचि के पास उनकी हड्डियाँ माँगने के लिये गये। उन्होंने महर्षि से प्रार्थना करते हुए कहा- 'प्रभो! त्रैलोक्य की मंगल-कामना हेतु आप अपनी हड्डियाँ हमें दान दे दीजिये।' महर्षि दधीचि ने कहा- 'देवराज! यद्यपि अपना शरीर सबको प्रिय होता है, किन्तु लोकहित के लिये मैं तुम्हें अपना शरीर प्रदान करता हूँ।' महर्षि दधीचि की हड्डियों से वज्र का निर्माण हुआ और वृत्रासुर मारा गया। इस प्रकार एक महान परोपकारी ऋषि के अपूर्व त्याग से देवराज इन्द्र बच गये और तीनों लोक सुखी हो गये। अपने अपकारी शत्रु के भी हित के लिये सर्वस्व त्याग करने वाले महर्षि दधीचि-जैसा उदाहरण संसार में अन्यत्र मिलना कठिन है।

11:38, 20 फ़रवरी 2011 का अवतरण

महर्षि दधीचि

  • लोक कल्याण के लिये आत्मत्याग करने वालों में महर्षि दधीचि का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है।
  • इनकी माता का नाम शान्ति तथा पिता का नाम अथर्वा ऋषि था।
  • ये तपस्या और पवित्रता की प्रतिमूर्ति थे। अटूट शिवभक्ति और वैराग्य में इनकी जन्म से ही निष्ठा थी।

  • एक बार महर्षि दधीचि बड़ी ही कठोर तपस्या कर रहे थे। इनकी अपूर्व तपस्या के तेज़ से तीनों लोक आलोकित हो गये और इन्द्र का सिंहासन हिलने लगा। इन्द्र को लगा कि ये अपनी कठोर तपस्या के द्वारा इन्द्र पद छीनना चाहते हैं। इसलिये उन्होंने महर्षि की तपस्या को खण्डित करने के उद्देश्य से परम रूपवती अलम्बुषा अप्सरा के साथ कामदेव को भेजा। अलम्बुषा और कामदेव के अथक प्रयत्न के बाद भी महर्षि अविचल रहे और अन्त में विफल मनोरथ होकर दोनों इन्द्र के पास लौट गये। कामदेव और अप्सरा के निराश होकर लौटने के बाद इन्द्र ने महर्षि की हत्या करने का निश्चय किया और देवसेना को लेकर महर्षि दधीचि के आश्रम पर पहुँचे। वहाँ पहुँचकर देवताओं ने शान्त और समाधिस्थ महर्षि पर अपने कठोर-अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करना शुरू कर दिया। देवताओं के द्वारा चलाये गये अस्त्र-शस्त्र महर्षि की तपस्या के अभेद्य दुर्ग को न भेद सके और महर्षि अविचल समाधिस्थ बैठे रहे। इन्द्र के अस्त्र-शस्त्र भी उनके सामने व्यर्थ हो गये। हारकर देवराज स्वर्ग लौट आये।
  • एक बार देवराज इन्द्र अपनी सभा में बैठे थे, उसी समय देवगुरु बृहस्पति आये। अहंकारवश इन्द्र गुरु बृहस्पति के सम्मान में उठकर खड़े नहीं हुए। बृहस्पति ने इसे अपना अपमान समझा और देवताओं को छोड़कर अन्यत्र चले गये। देवताओं को विश्वरूप को अपना पुरोहित बनाकर काम चलाना पड़ा, किन्तु विश्वरूप कभी-कभी देवताओं से छिपाकर असुरों को भी यज्ञ-भाग दे दिया करता था। इन्द्र ने उस पर कुपित होकर उसका सिर काट लिया। विश्वरूप त्वष्टा ऋषि का पुत्र था उन्होंने क्रोधित होकर इन्द्र को मारने के उद्देश्य से महाबली वृत्रासुर को उत्पन्न किया। वृत्रासुर के भय से इन्द्र अपना सिंहासन छोड़कर देवताओं के साथ मारे-मारे फिरने लगे।
  • ब्रह्मा जी की सलाह से देवराज इन्द्र महर्षि दधीचि के पास उनकी हड्डियाँ माँगने के लिये गये। उन्होंने महर्षि से प्रार्थना करते हुए कहा- 'प्रभो! त्रैलोक्य की मंगल-कामना हेतु आप अपनी हड्डियाँ हमें दान दे दीजिये।' महर्षि दधीचि ने कहा- 'देवराज! यद्यपि अपना शरीर सबको प्रिय होता है, किन्तु लोकहित के लिये मैं तुम्हें अपना शरीर प्रदान करता हूँ।' महर्षि दधीचि की हड्डियों से वज्र का निर्माण हुआ और वृत्रासुर मारा गया। इस प्रकार एक महान परोपकारी ऋषि के अपूर्व त्याग से देवराज इन्द्र बच गये और तीनों लोक सुखी हो गये। अपने अपकारी शत्रु के भी हित के लिये सर्वस्व त्याग करने वाले महर्षि दधीचि-जैसा उदाहरण संसार में अन्यत्र मिलना कठिन है।

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