"वनमाला (महीधर पुत्री)": अवतरणों में अंतर

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वनमाला बोली की लक्ष्मण को न पाकर मेरा जीवन व्यर्थ है, अत: वह आत्महत्या करने के लिए तत्पर हो गई। संयोग से उसी समय लक्ष्मण ने वहाँ पर पहुँचकर उसे बचाया तथा उसे ग्रहण किया। उसने लक्ष्मण के साथ जाकर राम और सीता को प्रणाम किया। राजा महीधर ने उन सबका सत्कार किया। तभी एक दूत ने समाचार दिया कि राजा को अतिवीर्य ने युद्ध में सहायता के लिए आमंत्रित किया है। यह युद्ध [[भरत]] के विरुद्ध है, क्योंकि भरत अधीनता स्वीकार नहीं करता। उन लोगों ने विचार-विमर्श किया कि किस प्रकार से भरत को विजयी किया जा सकता है। राजा महीधर को आश्वस्त करके वह लोग उसके पुत्रों तथा सेना को लेकर चले। पड़ाव पर उन्होंने जिनेश्वर के दर्शन किये। मन्दिर में भवनपाली का दिव्य रूप था तथा हाथ में तलवार थी। वंदना के उपरान्त राम-लक्ष्मण ने विचार-विमर्श किया, फिर लक्ष्मण सहित पुरुषों का नारी रूप में शृंगार करके वे लोग राजा अतिवीर्य के दरबार में पहुँचे। वहाँ पर नृत्य आदि का आनन्द लेते हुए अचानक छद्मवेशी लक्ष्मण ने राजा को बालों से पकड़कर घसीट लिया तथा उसको भरत से संधि करने का आदेश दिया। [[हाथी]] पर विराजमान राम ने वहाँ पहुँचकर उसे छुड़वाया। जिनेश्वर के मन्दिर में उस सहित वंदना की। उसने भरत से मैत्री स्थापित कर तथा नि:संग हो प्रव्रज्या ग्रहण की।<ref>पउम चरितम्, 36, 37|</ref>
वनमाला बोली की लक्ष्मण को न पाकर मेरा जीवन व्यर्थ है, अत: वह आत्महत्या करने के लिए तत्पर हो गई। संयोग से उसी समय लक्ष्मण ने वहाँ पर पहुँचकर उसे बचाया तथा उसे ग्रहण किया। उसने लक्ष्मण के साथ जाकर राम और सीता को प्रणाम किया। राजा महीधर ने उन सबका सत्कार किया। तभी एक दूत ने समाचार दिया कि राजा को अतिवीर्य ने युद्ध में सहायता के लिए आमंत्रित किया है। यह युद्ध [[भरत]] के विरुद्ध है, क्योंकि भरत अधीनता स्वीकार नहीं करता। उन लोगों ने विचार-विमर्श किया कि किस प्रकार से भरत को विजयी किया जा सकता है। राजा महीधर को आश्वस्त करके वह लोग उसके पुत्रों तथा सेना को लेकर चले। पड़ाव पर उन्होंने जिनेश्वर के दर्शन किये। मन्दिर में भवनपाली का दिव्य रूप था तथा हाथ में तलवार थी। वंदना के उपरान्त राम-लक्ष्मण ने विचार-विमर्श किया, फिर लक्ष्मण सहित पुरुषों का नारी रूप में शृंगार करके वे लोग राजा अतिवीर्य के दरबार में पहुँचे। वहाँ पर नृत्य आदि का आनन्द लेते हुए अचानक छद्मवेशी लक्ष्मण ने राजा को बालों से पकड़कर घसीट लिया तथा उसको भरत से संधि करने का आदेश दिया। [[हाथी]] पर विराजमान राम ने वहाँ पहुँचकर उसे छुड़वाया। जिनेश्वर के मन्दिर में उस सहित वंदना की। उसने भरत से मैत्री स्थापित कर तथा नि:संग हो प्रव्रज्या ग्रहण की।<ref>पउम चरितम्, 36, 37|</ref>


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12:12, 3 मार्च 2016 का अवतरण

वनमाला एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- वनमाला (बहुविकल्पी)

वनमाला पौराणिक महाकाव्य महाभारत के अनुसार महीधर नामक राजा की कन्या थी। उन्होंने बाल्यकाल से ही लक्ष्मण से विवाह करने का संकल्प कर रखा था। लक्ष्मण के राज्य से चले जाने के बाद महीधर ने उसका विवाह अन्यत्र करना चाहा, किन्तु वह तैयार नहीं हुई। वह सखियों के साथ वनदेवता की पूजा करने के लिए गई। बरगद के वृक्ष (जिसके नीचे पहले राम, सीता और लक्ष्मण रह चुके थे) के नीचे खड़े होकर उसने गले में फंदा डाल लिया।

वनमाला बोली की लक्ष्मण को न पाकर मेरा जीवन व्यर्थ है, अत: वह आत्महत्या करने के लिए तत्पर हो गई। संयोग से उसी समय लक्ष्मण ने वहाँ पर पहुँचकर उसे बचाया तथा उसे ग्रहण किया। उसने लक्ष्मण के साथ जाकर राम और सीता को प्रणाम किया। राजा महीधर ने उन सबका सत्कार किया। तभी एक दूत ने समाचार दिया कि राजा को अतिवीर्य ने युद्ध में सहायता के लिए आमंत्रित किया है। यह युद्ध भरत के विरुद्ध है, क्योंकि भरत अधीनता स्वीकार नहीं करता। उन लोगों ने विचार-विमर्श किया कि किस प्रकार से भरत को विजयी किया जा सकता है। राजा महीधर को आश्वस्त करके वह लोग उसके पुत्रों तथा सेना को लेकर चले। पड़ाव पर उन्होंने जिनेश्वर के दर्शन किये। मन्दिर में भवनपाली का दिव्य रूप था तथा हाथ में तलवार थी। वंदना के उपरान्त राम-लक्ष्मण ने विचार-विमर्श किया, फिर लक्ष्मण सहित पुरुषों का नारी रूप में शृंगार करके वे लोग राजा अतिवीर्य के दरबार में पहुँचे। वहाँ पर नृत्य आदि का आनन्द लेते हुए अचानक छद्मवेशी लक्ष्मण ने राजा को बालों से पकड़कर घसीट लिया तथा उसको भरत से संधि करने का आदेश दिया। हाथी पर विराजमान राम ने वहाँ पहुँचकर उसे छुड़वाया। जिनेश्वर के मन्दिर में उस सहित वंदना की। उसने भरत से मैत्री स्थापित कर तथा नि:संग हो प्रव्रज्या ग्रहण की।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पउम चरितम्, 36, 37|

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