"कालिंजर": अवतरणों में अंतर
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[[चित्र:Kalinjar-Fort.jpg|thumb|250px|कालिंजर क़िला, [[बांदा]]]] | [[चित्र:Kalinjar-Fort.jpg|thumb|250px|कालिंजर क़िला, [[बांदा]]]] | ||
'''कालिंजर''' [[उत्तर प्रदेश]] के बुंदेलखण्ड क्षेत्र में [[बांदा ज़िला|बांदा ज़िले]] में स्थित पौराणिक संदर्भ वाला एक ऐतिहासिक दुर्ग है। [[भारतीय इतिहास]] में सामरिक दृष्टि से यह क़िला काफ़ी महत्त्वपूर्ण रहा है। यह विश्व धरोहर स्थल प्राचीन नगरी [[खजुराहो]] के निकट ही स्थित है। कालिंजर दुर्ग [[भारत]] के सबसे विशाल और अपराजेय क़िलों में एक माना जाता है। एक पहाड़ी का चोटी पर स्थित इस क़िले में अनेक स्मारकों और मूर्तियों का खजाना है। इन चीज़ों से इतिहास के विभिन्न पहलुओं का पता चलता है। चंदेलों द्वारा बनवाया गया यह किला [[चंदेल वंश]] के शासनकाल की भव्य [[वास्तुकला]] का उम्दा उदाहरण है। इस किले के अंदर कई भवन और मंदिर हैं। इस विशाल किले में भव्य महल और छतरियाँ है, जिन पर बारीक डिज़ाइन और नक्काशी की गई है। यह किला [[हिन्दू]] [[शिव|भगवान शिव]] का निवास स्थान माना जाता है। किले में नीलकंठ महादेव का एक अनोखा मंदिर भी है। | |||
==इतिहास== | |||
[[इतिहास]] के उतार-चढ़ावों का प्रत्यक्ष गवाह बांदा जनपद का कालिंजर किला हर [[युग]] में विद्यमान रहा है। इस किले के नाम अवश्य बदलते गये हैं। इसने [[सतयुग]] में कीर्तिनगर, [[त्रेतायुग]] में मध्यगढ़, [[द्वापर युग]] में सिंहलगढ़ और [[कलियुग]] में कालिंजर के नाम से ख्याति पायी है। कालिंजर का अपराजेय किला प्राचीन काल में जेजाकभुक्ति साम्राज्य के अधीन था। जब चंदेल शासक आये तो इस पर [[महमूद ग़ज़नवी]], [[कुतुबुद्दीन ऐबक]] और [[हुमायूं]] ने आक्रमण कर इसे जीतना चाहा, पर कामयाब नहीं हो पाये। अंत में [[अकबर]] ने 1569 ई. में यह किला जीतकर [[बीरबल]] को उपहार स्वरूप दे दिया। बीरबल के बाद यह किला बुंदेल राजा [[छत्रसाल]] के अधीन हो गया। इनके बाद किले पर पन्ना के हरदेव शाह का कब्जा हो गया। 1812 ई. में यह किला अंग्रेजों के अधीन हो गया।<ref>{{cite web |url=https://bundelkhand.in/Heritage/aaj-ka-kalinjar |title=सतयुग का कीर्तिनगर आज का कालिंजर |accessmonthday=10 अगस्त|accessyear= 2018|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=bundelkhand |language= हिन्दी}}</ref> | |||
कालिंजर के मुख्य आकर्षणों में नीलकंठ मंदिर है। इसे चंदेल शासक परमादित्य देव ने बनवाया था। मंदिर में 18 भुजा वाली विशालकाय प्रतिमा के अलावा रखा [[शिवलिंग]] नीले पत्थर का है। मंदिर के रास्ते पर भगवान शिव, काल भैरव, [[गणेश]] और [[हनुमान]] की प्रतिमाएं पत्थरों पर उकेरी गयीं हैं। इतिहासवेत्ता राधाकृष्ण बुंदेली व बीडी गुप्त बताते हैं कि यहां शिव ने [[समुद्र मंथन]] के बाद निकले विष का पान किया था। शिवलिंग की खासियत यह है कि उससे पानी रिसता रहता है। इसके अलावा सीता सेज, पाताल गंगा, पांडव कुंड, बुढ्डा-बुढ्डी ताल, भगवान सेज, भैरव कुंड, मृगधार, कोटितीर्थ व बलखंडेश्वर, चौबे महल, जुझौतिया बस्ती, शाही मस्जिद, मूर्ति संग्रहालय, वाऊचोप मकबरा, रामकटोरा ताल, भरचाचर, मजार ताल, राठौर महल, रनिवास, ठा. मतोला सिंह संग्रहालय, बेलाताल, सगरा बांध, [[शेरशाह सूरी]] का मक़बरा व हुमायूं की छावनी आदि हैं। | |||
इस दुर्ग के निर्माणकर्ता के नाम का ठीक-ठीक साक्ष्य कहीं नहीं मिलता, पर जनश्रुति के अनुसार चंदेल वंश के संस्थापक चंद्रवर्मा द्वारा इसका निर्माण कराया गया था। चन्देल शासकों द्वारा 'कालिन्जराधिपति' (कालिंजर के अधिपति) की उपाधि का प्रयोग उनके द्वारा इस दुर्ग को दिये गए महत्त्व को दर्शाता है। कतिपय इतिहासकारों के मुताबिक इस [[दुर्ग]] का निर्माण केदारवर्मन द्वारा ईसा की दूसरी से सातवीं शताब्दी के मध्य कराया गया था। कुछ इतिहासकारों का मत है कि इसके द्वारों का निर्माण [[मुग़ल]] शासक [[औरंगज़ेब]] ने करवाया था। कालिंजर दुर्ग में प्रवेश के लिए सात द्वार थे। इनमें आलमगीर दरवाजा, गणेश द्वार, चौबुरजी दरवाजा, बुद्धभद्र दरवाजा, हनुमान द्वार, लाल दरवाजा और बारा दरवाजा थे। अब हालत यह है कि समय के साथ सब कुछ बदलता गया। दुर्ग में प्रवेश के लिए तीन द्वार कामता द्वार, रीवां द्वार व पन्नाद्वार हैं। पन्नाद्वार इस समय बंद है। | |||
==व्यवसायिक महत्त्व== | |||
कालिंजर दुर्ग व्यवसायिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। यहां पहाड़ी खेरा और बृहस्पतिकुंड में उत्तम कोटि की [[हीरा]] खदानें हैं। दुर्ग के समीप कुठला जवारी के जंगल में [[लाल रंग]] के चमकदार पत्थर से प्राचीन काल में [[सोना]] बनाया जाता था। इस क्षेत्र में पर्तदार चट्टानें व [[ग्रेनाइट]] पत्थर काफी है, जो भवन निर्माण में काम आता है। साखू, शीशम, सागौन के पेड़ बहुतायत में है। इनसे काष्ठ निर्मित वस्तुएं तैयार होती हैं। | |||
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दुर्ग में नाना प्रकार की औषधियां मिलती हैं। यहां मिलने वाले सीताफल की पत्तियां व बीज औषधि के काम आते हैं। गुमाय के बीज भी उपचार के काम आते हैं। हरर का उपयोग बुखार के लिए किया जाता है। मदनमस्त की पत्तियां एवं जड़ उबालकर पी जाती है। कंधी की पत्तियां भी उबाल कर पी जाती है। गोरख इमली का प्रयोग अस्थमा के लिए किया जाता है। मारोफली का प्रयोग उदर रोग के लिए किया जाता है। कुरियाबेल का इस्तेमाल आंव रोग के लिए किया जाता है। घुंचू की पत्तियां प्रदर रोग के लिए उपयोगी है। इसके अलावा फल्दू, कूटा, सिंदूरी, नरगुंडी, रूसो, सहसमूसली, लाल पथरचटा, गूमा, लटजीरा, दुधई व शिखा आदि औषधियां भी यहां उपलब्ध है। | |||
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* | ==बाहरी कड़ियाँ== | ||
*[https://www.gyanipandit.com/kalinjar-fort-bundelkhand/ कलिंजर किले का इतिहास] | |||
*[https://hindi.nativeplanet.com/khajuraho/attractions/kalinjar-fort/#overview कालिंजर का किला, खजुराहो] | |||
*[https://www.amarujala.com/uttar-pradesh/banda/historical-kalinjar-fort-hindi-news ऐतिहासिक कालिंजर दुर्ग में पर्यटकों को रिझाने की कवायद शुरू] | |||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
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07:05, 10 अगस्त 2018 का अवतरण

कालिंजर उत्तर प्रदेश के बुंदेलखण्ड क्षेत्र में बांदा ज़िले में स्थित पौराणिक संदर्भ वाला एक ऐतिहासिक दुर्ग है। भारतीय इतिहास में सामरिक दृष्टि से यह क़िला काफ़ी महत्त्वपूर्ण रहा है। यह विश्व धरोहर स्थल प्राचीन नगरी खजुराहो के निकट ही स्थित है। कालिंजर दुर्ग भारत के सबसे विशाल और अपराजेय क़िलों में एक माना जाता है। एक पहाड़ी का चोटी पर स्थित इस क़िले में अनेक स्मारकों और मूर्तियों का खजाना है। इन चीज़ों से इतिहास के विभिन्न पहलुओं का पता चलता है। चंदेलों द्वारा बनवाया गया यह किला चंदेल वंश के शासनकाल की भव्य वास्तुकला का उम्दा उदाहरण है। इस किले के अंदर कई भवन और मंदिर हैं। इस विशाल किले में भव्य महल और छतरियाँ है, जिन पर बारीक डिज़ाइन और नक्काशी की गई है। यह किला हिन्दू भगवान शिव का निवास स्थान माना जाता है। किले में नीलकंठ महादेव का एक अनोखा मंदिर भी है।
इतिहास
इतिहास के उतार-चढ़ावों का प्रत्यक्ष गवाह बांदा जनपद का कालिंजर किला हर युग में विद्यमान रहा है। इस किले के नाम अवश्य बदलते गये हैं। इसने सतयुग में कीर्तिनगर, त्रेतायुग में मध्यगढ़, द्वापर युग में सिंहलगढ़ और कलियुग में कालिंजर के नाम से ख्याति पायी है। कालिंजर का अपराजेय किला प्राचीन काल में जेजाकभुक्ति साम्राज्य के अधीन था। जब चंदेल शासक आये तो इस पर महमूद ग़ज़नवी, कुतुबुद्दीन ऐबक और हुमायूं ने आक्रमण कर इसे जीतना चाहा, पर कामयाब नहीं हो पाये। अंत में अकबर ने 1569 ई. में यह किला जीतकर बीरबल को उपहार स्वरूप दे दिया। बीरबल के बाद यह किला बुंदेल राजा छत्रसाल के अधीन हो गया। इनके बाद किले पर पन्ना के हरदेव शाह का कब्जा हो गया। 1812 ई. में यह किला अंग्रेजों के अधीन हो गया।[1]
कालिंजर के मुख्य आकर्षणों में नीलकंठ मंदिर है। इसे चंदेल शासक परमादित्य देव ने बनवाया था। मंदिर में 18 भुजा वाली विशालकाय प्रतिमा के अलावा रखा शिवलिंग नीले पत्थर का है। मंदिर के रास्ते पर भगवान शिव, काल भैरव, गणेश और हनुमान की प्रतिमाएं पत्थरों पर उकेरी गयीं हैं। इतिहासवेत्ता राधाकृष्ण बुंदेली व बीडी गुप्त बताते हैं कि यहां शिव ने समुद्र मंथन के बाद निकले विष का पान किया था। शिवलिंग की खासियत यह है कि उससे पानी रिसता रहता है। इसके अलावा सीता सेज, पाताल गंगा, पांडव कुंड, बुढ्डा-बुढ्डी ताल, भगवान सेज, भैरव कुंड, मृगधार, कोटितीर्थ व बलखंडेश्वर, चौबे महल, जुझौतिया बस्ती, शाही मस्जिद, मूर्ति संग्रहालय, वाऊचोप मकबरा, रामकटोरा ताल, भरचाचर, मजार ताल, राठौर महल, रनिवास, ठा. मतोला सिंह संग्रहालय, बेलाताल, सगरा बांध, शेरशाह सूरी का मक़बरा व हुमायूं की छावनी आदि हैं।
इस दुर्ग के निर्माणकर्ता के नाम का ठीक-ठीक साक्ष्य कहीं नहीं मिलता, पर जनश्रुति के अनुसार चंदेल वंश के संस्थापक चंद्रवर्मा द्वारा इसका निर्माण कराया गया था। चन्देल शासकों द्वारा 'कालिन्जराधिपति' (कालिंजर के अधिपति) की उपाधि का प्रयोग उनके द्वारा इस दुर्ग को दिये गए महत्त्व को दर्शाता है। कतिपय इतिहासकारों के मुताबिक इस दुर्ग का निर्माण केदारवर्मन द्वारा ईसा की दूसरी से सातवीं शताब्दी के मध्य कराया गया था। कुछ इतिहासकारों का मत है कि इसके द्वारों का निर्माण मुग़ल शासक औरंगज़ेब ने करवाया था। कालिंजर दुर्ग में प्रवेश के लिए सात द्वार थे। इनमें आलमगीर दरवाजा, गणेश द्वार, चौबुरजी दरवाजा, बुद्धभद्र दरवाजा, हनुमान द्वार, लाल दरवाजा और बारा दरवाजा थे। अब हालत यह है कि समय के साथ सब कुछ बदलता गया। दुर्ग में प्रवेश के लिए तीन द्वार कामता द्वार, रीवां द्वार व पन्नाद्वार हैं। पन्नाद्वार इस समय बंद है।
व्यवसायिक महत्त्व
कालिंजर दुर्ग व्यवसायिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। यहां पहाड़ी खेरा और बृहस्पतिकुंड में उत्तम कोटि की हीरा खदानें हैं। दुर्ग के समीप कुठला जवारी के जंगल में लाल रंग के चमकदार पत्थर से प्राचीन काल में सोना बनाया जाता था। इस क्षेत्र में पर्तदार चट्टानें व ग्रेनाइट पत्थर काफी है, जो भवन निर्माण में काम आता है। साखू, शीशम, सागौन के पेड़ बहुतायत में है। इनसे काष्ठ निर्मित वस्तुएं तैयार होती हैं।
वनौषधियों का भंडार
दुर्ग में नाना प्रकार की औषधियां मिलती हैं। यहां मिलने वाले सीताफल की पत्तियां व बीज औषधि के काम आते हैं। गुमाय के बीज भी उपचार के काम आते हैं। हरर का उपयोग बुखार के लिए किया जाता है। मदनमस्त की पत्तियां एवं जड़ उबालकर पी जाती है। कंधी की पत्तियां भी उबाल कर पी जाती है। गोरख इमली का प्रयोग अस्थमा के लिए किया जाता है। मारोफली का प्रयोग उदर रोग के लिए किया जाता है। कुरियाबेल का इस्तेमाल आंव रोग के लिए किया जाता है। घुंचू की पत्तियां प्रदर रोग के लिए उपयोगी है। इसके अलावा फल्दू, कूटा, सिंदूरी, नरगुंडी, रूसो, सहसमूसली, लाल पथरचटा, गूमा, लटजीरा, दुधई व शिखा आदि औषधियां भी यहां उपलब्ध है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सतयुग का कीर्तिनगर आज का कालिंजर (हिन्दी) bundelkhand। अभिगमन तिथि: 10 अगस्त, 2018।
बाहरी कड़ियाँ
- कलिंजर किले का इतिहास
- कालिंजर का किला, खजुराहो
- ऐतिहासिक कालिंजर दुर्ग में पर्यटकों को रिझाने की कवायद शुरू