मुहम्मद बिन क़ासिम
मुहम्मद बिन क़ासिम एक नवयुवक अरब सेनापति था। उसे ईराक के प्रान्तपति अल हज्जाज ने, जो मुहम्मद बिन क़ासिम का चाचा और श्वसुर भी था, सिन्ध के शासक दाहिर को दण्ड देने के लिए भेजा था। क़ासिम को सिन्ध भेजने का कारण यह था कि समुद्री लुटेरे अल हज्जाज के जहाज़ों को जिस क्षेत्र में लूट रहे थे, वह क्षेत्र दाहिर के राज्य में आता था। दाहिर ने इस बात से साफ़ इंकार किया कि लुटेरों से उसके राज्य का कोई सम्बन्ध नहीं है।
क़ासिम का भारत आगमन
अल हज्जाज ने दाहिर से अपने लूटे गये जहाजों के बदले जुर्माने की माँग की थी। किन्तु दाहिर ने असमर्थता जताते हुए कहा कि उसका उन लुटेरों पर कोई नियंत्रण नहीं है। दाहिर के इस जवाब से क्रुद्ध होकर ख़लीफ़ा अल हज्जाज ने सिन्ध पर आक्रमण करने का निश्चय किया। लगभग 712 में अल हज्जाज के भतीजे एवं दामाद मुहम्मद बिन क़ासिम ने 17 वर्ष की आयु में सिन्ध के अभियान का सफल नेतृत्व किया।
मुहम्मद बिन क़ासिम के आक्रमण (711-715 ई.)
मुहम्मद बिन क़ासिम ने लगातार कई आक्रमण किए, और अपने इन आक्रमणों में उसे विजय प्राप्त होती चली गईं। उसने अपने नेतृत्व में जितने भी अभियान चलाये, उन सभी में लगभग उसे विजय प्राप्त हुई। क़ासिम के द्वारा किये गए आक्रमणों में उसकी निम्न विजय उल्लेखनीय हैं-
देवल विजय
एक बड़ी सेना लेकर मुहम्मद बिन क़ासिम ने 711 ई. में देवल पर आक्रमण कर दिया। दाहिर ने अपनी अदूरदर्शिता का परिचय देते हुए देवल की रक्षा नहीं की और पश्चिमी किनारों को छोड़कर पूर्वी किनारों से बचाव की लड़ाई प्रारम्भ कर दी। दाहिर के भतीजे ने राजपूतों से मिलकर क़िले की रक्षा करने का प्रयास किया, किन्तु असफल रहा।
नेऊन विजय
नेऊन पाकिस्तान में वर्तमान हैदराबाद के दक्षिण में स्थित चराक के समीप था। देवल के बाद मुहम्मद क़ासिम नेऊन की ओर बढ़ा। दाहिर ने नेऊन की रक्षा का दायित्व एक पुरोहित को सौंप कर अपने बेटे जयसिंह को ब्राह्मणाबाद बुला लिया। नेऊन में बौद्धों की संख्या अधिक थी। उन्होंने मुहम्मद बिन क़ासिम का स्वागत किया। इस प्रकार बिना युद्ध किए ही मीर क़ासिम का नेऊन दुर्ग पर अधिकार हो गया।
सेहवान विजय
नेऊन के बाद मुहम्मद बिना क़ासिम सेहवान (सिविस्तान) की ओर बढ़ा। इस समय वहाँ का शासक 'माझरा' था। इसने बिना युद्ध किए ही नगर छोड़ दिया और बिना किसी कठिनाई के सेहवान पर मुहम्मद बिन क़ासिम का अधिकार हो गया।
सीसम के जाटों पर विजय
सेहवान के बाद मुहम्मद बिन क़ासिम ने सीसम के जाटों पर अपना अगला आक्रमण किया। 'बाझरा' यहीं पर मार डाला गया। जाटों ने मुहम्मद बिन क़ासिम की अधीनता स्वीकार कर ली।
राओर विजय
सीसम विजय के बाद क़ासिम राओर की ओर बढ़ा। दाहिर और मुहम्मद बिन क़ासिम की सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ। इसी युद्ध में दाहिर मारा गया। दाहिर के बेटे जयसिंह ने राओर दुर्ग की रक्षा का दायित्व अपनी विधवा माँ पर छोड़कर ब्राह्मणावाद चला गया। दुर्ग की रक्षा करने में अपने आप को असफल पाकर दाहिर की विधवा पत्नी ने आत्मदाह कर लिया। इसके बाद क़ासिम का राओर पर नियंत्रण स्थापित हो गया।
ब्राह्मणावाद पर अधिकार
ब्राह्मणावाद की सुरक्षा का दायित्व दाहिर के पुत्र जयसिंह के ऊपर था। उसने क़ासिम के आक्रमण का बहादुरी के साथ सामना किया, किन्तु नगर के लोगों के विश्वासघात के कारण वह पराजित हो गया। ब्राह्मणावाद पर क़ासिम का अधिकार हो गया। क़ासिम ने यहाँ का कोष तथा दाहिर की दूसरी विधवा रानी 'लाडी' के साथ उसकी दो पुत्रियों 'सूर्यदेवी' तथा 'परमल देवी' को अपनी क़ब्ज़े में कर लिया।
आलोर विजय
ब्राह्मणावाद पर अधिकार के बाद क़ासिम आलोर पहुँचा। प्रारम्भ में आलोर के निवासियों ने क़ासिम का सामना किया, किन्तु अन्त में विवश होकर आत्मसमर्पण कर दिया।
मुल्तान विजय
आलोर पर विजय प्राप्त करने के बाद क़ासिम मुल्तान पहुँचा। यहाँ पर आन्तरिक कलह के कारण विश्वासघातियों ने क़ासिम की सहायता की। उन्होंने नगर के जलस्रोत की जानकारी अरबों को दे दी, जहाँ से दुर्ग निवासियों को जल की आपूर्ति की जाती थी। इससे दुर्ग के सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया। क़ासिम का नगर पर अधिकार हो गया। इस नगर से मीर क़ासिम को इतना धन मिला की, उसने इसे 'स्वर्णनगर' नाम दिया।
क़ासिम की हत्या
मुहम्मद बिन क़ासिम ने सिन्धु घाटी के सम्पूर्ण निचले काँठें में अरब शासन स्थापित कर दिया। शासक के रूप में भी उसने यथेष्ट कुशलता का परिचय दिया और समस्त नव विजित प्रदेशों में एक ऐसी शासन व्यवस्था स्थापित की, जिससे राज्य में शान्ति रहे। किन्तु खलीफ़ा सुलेमान ने असंतुष्ट होकर उसे शासक पद से हटा दिया और विरोधियों के हाथों उसका वध करा दिया।
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