मुहम्मद ग़ोरी

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
मुहम्मद ग़ोरी
Muhammad-Ghori.jpg
पूरा नाम सुलतान शाहबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी
जन्म 1149 ई.
जन्म भूमि ग़ोर, अफ़ग़ानिस्तान
मृत्यु तिथि 15 मार्च, 1206 ई.
मृत्यु स्थान झेलम क्षेत्र, पाकिस्तान
शा. अवधि अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, भारत
धार्मिक मान्यता सुन्नी, इस्लाम
युद्ध पृथ्वीराज के विरुद्ध जो अभियान किया
राजधानी लाहौर, पाकिस्तान
राजघराना ग़ोरी
संबंधित लेख पृथ्वीराज चौहान, महमूद ग़ज़नवी, क़ुतुबुद्दीन ऐबक, जयचंद्र, ग़ज़नी
अन्य जानकारी जिस स्थल पर जयचंद्र और मुहम्मद ग़ोरी की सेनाओं में निर्णायक युद्ध हुआ था, उसे 'चंद्रवार' कहा गया है। यह एक ऐतिहासिक स्थल है, जो अब फ़िरोज़ाबाद, उत्तर प्रदेश के निकट एक छोटे गाँव के रूप में स्थित है।

शहाबउद्दीन मुहम्मद ग़ोरी 12वीं शताब्दी का अफ़ग़ान योद्धा था, जो ग़ज़नी साम्राज्य के अधीन ग़ोर नामक राज्य का शासक था। मुहम्मद ग़ौरी 1173 ई. में ग़ोर का शासक बना था। जिस समय मथुरा मंडल के उत्तर-पश्चिम में पृथ्वीराज और दक्षिण-पूर्व में जयचंद्र जैसे महान् नरेशों के शक्तिशाली राज्य थे, उस समय भारत के पश्चिम उत्तर के सीमांत पर शहाब-उद-दीन मुहम्मद ग़ोरी (1173-1206 ई.) नामक एक मुसलमान सरदार ने महमूद ग़ज़नवी के वंशजों से राज्याधिकार छीन कर एक नये इस्लामी राज्य की स्थापना की। मुहम्मद ग़ोरी बड़ा महत्त्वाकांक्षी और साहसी था। वह महमूद ग़ज़नवी की भाँति भारत पर आक्रमण करने का इच्छुक था, किंतु उसका उद्देश्य ग़ज़नवी से अलग था। वह लूटमार के साथ ही साथ इस देश में मुस्लिम राज्य भी स्थापित करना चाहता था। उस काल में पश्चिमी पंजाब तक और दूसरी ओर मुल्तान एवं सिंध तक मुसलमानों का अधिकार था, जिसके अधिकांश भाग पर महमूद के वंशज ग़ज़नवी सरदार शासन करते थे। मुहम्मद ग़ोरी को भारत के आंतरिक भाग तक पहुँचने के लिए पहले उन मुसलमान शासकों से और फिर वहाँ के वीर राजपूतों से युद्ध करना था, अतः वह पूरी तैयारी के साथ भारत पर आक्रमण करने का आयोजन करने लगा।

परिचय

मुहम्मद ग़ोरी के जन्म की सही तिथि ज्ञात नहीं है, लेकिन कुछ इतिहासकार उसका जन्म 1149 ई. में मानते हैं। ग़ोरी राजवंश की नीव अलाउद्दीन जहानसोज़ ने रखी और 1161 ई. में उसके देहांत के बाद उसका पुत्र सैफ़उद्दीन ग़ोरी सिंहासन पर बैठा। अपने मरने से पहले अलाउद्दीन जहानसोज़ ने अपने दो भतीजों- शहाबउद्दीन, जो आमतौर पर मुहम्मद ग़ोरी कहलाता है और ग़ियासउद्दीन को क़ैद कर रखा था; लेकिन सैफ़उद्दीन ने उन्हें रिहा कर दिया। उस समय ग़ोरी वंश ग़ज़नवियों और सलजूक़ों की अधीनता से निकलने के प्रयास में था। उन्होंने ग़ज़नवियों को तो 1148-1149 में ही ख़त्म कर दिया था, लेकिन सलजूक़ों का तब भी ज़ोर था और उन्होंने कुछ काल के लिए ग़ोर प्रान्त पर सीधा क़ब्ज़ा कर लिए था; हालांकि उसके बाद उसे ग़ोरियों को वापस कर दिया था।

सलजूक़ों ने जब इस क्षेत्र पर नियंत्रण किया, तब उन्होंने सैफ़उद्दीन की पत्नी के ज़ेवर भी ले लिए थे। गद्दी ग्रहण करने के बाद एक दिन सैफ़उद्दीन ने किसी स्थानीय सरदार को यह ज़ेवर पहने देख लिया और तैश में आकर उसे मार डाला। जब मृतक के भाई को कुछ महीनों बाद मौक़ा मिला तो उसने सैफ़उद्दीन को बदले में भाला मारकर मार डाला। इस तरह सैफ़उद्दीन का शासनकाल केवल एक वर्ष के आसपास ही रहा। ग़ियासउद्दीन नया शासक बना और उसके छोटे भाई शहाबउद्दीन ने उसका राज्य विस्तार करने में उसकी बहुत वफ़ादारी से मदद की। शहाबउद्दीन उर्फ़ मुहम्मद ग़ोरी ने पहले ग़ज़ना पर क़ब्ज़ा किया और फिर 1175 में मुल्तान और ऊच पर और फिर 1186 में लाहौर पर। जब उसका भाई 1202 में मरा तो शहाबउद्दीन मुहम्मद ग़ोरी सुल्तान बन गया।

भारत पर आक्रमण

मुहम्मद ग़ोरी महान विजेता और कुशल सैन्य संचालक था। 1175 ई. में उसने मुल्तान और अगले ही वर्ष उच्च पर विजय प्राप्त कर ली। 1178 ई. में गुजरात के चालुक्य शासक भीमदेव द्वितीय द्वारा वह खदेड़ दिया गया। राजपूत वीरों की प्रबल मार से वह पराजित हो गया। इस प्रकार भारत के हिंदू राजाओं की ओर मुँह उठाते ही उसे आंरभ में ही चोट खानी पड़ी। किंतु वह महत्त्वाकांक्षी मुस्लिम आक्रांता उस पराजय से हतोत्साहित नहीं हुआ। उसने अपने अभियान का मार्ग बदल दिया। वह तब पंजाब होकर भारत विजय का आयोजन करने लगा। उस काल में पेशावर और पंजाब होकर वह भारत विजय का अपना सपना साकार करने में लग गया। उस समय में पेशावर और पंजाब के शासक महमूद के जो वंशज थे, वे शक्तिहीन हो गये थे। अतः उन्हें पराजित करना मुहम्मद ग़ोरी को सरल ज्ञात हुआ। उसने 1186 ई. में ख़ुसरो मलिक को पराजित करके पंजाब पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार उत्तरी भारत के मैदानी भू-भागों में आगे बढ़ने के लिए उसका पथ प्रशस्त हो गया। उसने पंजाब के अधिकांश भाग को ग़ज़नवी के वंशजों से छीन लिया और वहाँ पर अपनी सृदृढ़ क़िलेबंदी कर भारत के हिन्दू राजाओं पर आक्रमण करने की तैयारी करने लगा।

राज्य सीमा

मुहम्मद ग़ोरी के राज्य की सीमा तब दिल्ली के चाहमान वीर पृथ्वीराज चौहान के राज्य से जा लगी थीं; अतः आगे बढ़ने के लिए उसे एक पराक्रमी शत्रु से मोर्चा लेना था। उससे पहले महमूद के वंशज ग़ज़नवी शासकों से हिन्दू राजाओं के भी कई संघर्ष हुए थे; किंतु वे छोटी-मोटी स्थानीय लड़ाइयाँ थीं और उनमें प्रायः हिन्दू राजाओं की ही विजय हुई थी। मुहम्मद ग़ोरी ने पृथ्वीराज के विरुद्ध जो अभियान किया, वह एक प्रबल आक्रमण था। इसलिए महमूद ग़ज़नवी के बाद मुहम्मद ग़ोरी ही भारत पर चढ़ाई करने वाला दूसरा मुस्लिम आक्रांता माना गया है।

पृथ्वीराज चौहान से युद्ध

किंवदंतियों के अनुसार मुहम्मद ग़ोरी ने 18 बार पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण किया था, जिसमें 17 बार उसे पराजित होना पड़ा। किसी भी इतिहासकार को इन किंवदंतियों के आधार पर अपना मत बनाना कठिन होता है। इस विषय में इतना निश्चित है कि मुहम्मद ग़ोरी और पृथ्वीराज चौहान में कम-से-कम दो भीषण युद्ध अवश्य हुए थे, जिनमें से प्रथम युद्ध में पृथ्वीराज विजयी हुआ, जबकि दूसरे युद्ध में उसे पराजय का सामना करना पड़ा। यह दोनों युद्ध थानेश्वर के निकटवर्ती 'तराइन' या 'तरावड़ी' के मैदान में क्रमशः 1191 ई. (संवत 1247) और 1192 ई. (संवत 1248) में हुए थे। इन युद्धों से पहले पृथ्वीराज कई हिन्दू राजाओं से लड़ाइयाँ कर चुका था। चंदेल राजाओं को पराजित करने में उसे अपने कई विख्यात सेनानायकों और वीरों को खोना पड़ा था। जयचंद्र के साथ होने वाले संघर्ष में भी उसके बहुत से वीरों की हानि हुई थी। फिर उन दिनों पृथ्वीराज अपने वृद्ध मन्त्री पर राज्य भार छोड़ कर स्वयं संयोगिता के साथ विलास क्रीड़ा में लगा हुआ था। उन सब कारणों से उसकी सैन्य शक्ति अधिक प्रभावशालिनी नहीं थी, फिर भी उसने गौरी के दाँत खट्टे कर दिये थे।


इन्हें भी देखें: तराइन का प्रथम युद्ध एवं तराइन का द्वितीय युद्ध

ग़ोरी की भारी पराजय

संवत 1247 में जब पृथ्वीराज से मुहम्मद ग़ोरी की विशाल सेना का सामना हुआ, तब राजपूत वीरों की विकट मार से मुसलमान सैनिकों के पैर उखड़ गये। स्वयं ग़ोरी भी पृथ्वीराज के अनुज के प्रहार से बुरी तरह घायल हो गया था। यदि उसका ख़िलजी सेवक उसे घोड़े पर डाल कर युद्ध भूमि से भगाकर न ले जाता, तो वहीं उसके प्राण पखेरू उड़ जाते। उस युद्ध में ग़ोरी की भारी पराजय हुई थी और उसे भीषण हानि उठाकर भारत की भूमि से भागना पड़ा था। भारतीय राजा के विरुद्ध युद्ध अभियान में यह उसकी दूसरी बड़ी पराजय थी, जो अन्हिलवाड़ा के युद्ध के बाद सहनी पड़ी थी।

पृथ्वीराज की पराजय और मृत्यु

मुहम्मद ग़ोरी उस अपमानजनक पराजय का बदला लेने के लिए तैयारी करने लगा। अगले वर्ष वह 1 लाख 20 हज़ार चुने हुए अश्वारोहियों की विशाल सेना लेकर फिर तराइन के मैदान में आ डटा। उधर पृथ्वीराज ने भी उससे मोर्चा लेने के लिए कई राजपूत राजाओं को आमन्त्रित किया था। कुछ राजाओं ने तो अपनी सेनाएँ भेज दी; किंतु उस समय का गाहड़वाल वंशीय कन्नौज नरेश जयचंद्र उससे तटस्थ ही रहा। किवदंती है कि पृथ्वीराज से विद्वेष रखने के कारण जयचंद्र ने ही मुहम्मद ग़ोरी को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमन्त्रित किया था। इस किंवदंती की सत्यता का कोई प्रामाणिक आधार नहीं है; अतः जयचंद्र पर देशद्रोह का दोषारोपण भी अप्रामाणिक ज्ञात होता है। उसमें केवल इतनी ही सत्यता है कि उसने उस अवसर पर पृथ्वीराज की सहायता नहीं की थी। पृथ्वीराज के राजपूत योद्धाओं ने उस बार भी मुसलमानी सेना पर भीषण प्रहार कर अपनी वीरता का परिचय दिया था; किंतु देश के दुर्भाग्य से उन्हें पराजित होना पड़ा। इस प्रकार सं. 1248 के उस युद्ध में मुहम्मद ग़ोरी की विजय और पृथ्वीराज की पराजय हुई थी। युद्ध में पराजित होने के पश्चात् पृथ्वीराज की किस प्रकार मृत्यु हुई, इस विषय में इतिहासकारों के विभिन्न मत मिलते हैं। कुछ के मतानुसार वह पहिले बंदी बना कर दिल्ली में रखा गया था और बाद में ग़ोरी के सैनिकों द्वारा मार दिया गया था। कुछ का मत है कि उसे बंदी बनाकर ग़जनी ले जाया गया था और वहाँ पर उसकी मृत्यु हुई। ऐसी भी किंवदंती है कि पृथ्वीराज का दरबारी कवि और सखा चंदबरदाई अपने स्वामी की दुर्दिनों में सहायता करने के लिए गजनी गया था। उसने अपने बुद्धि कौशल से पृथ्वीराज द्वारा ग़ोरी का संहार कराकर उससे बदला लिया था। फिर ग़ोरी के सैनिकों ने उस दोनों को भी मार डाला था। इस किंवदंती का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं हैं, अतः वह प्रामाणिक ज्ञात नहीं होती है।

युद्ध स्थल चंदवार

जिस स्थल पर जयचंद्र और मुहम्मद ग़ोरी की सेनाओं में निर्णायक युद्ध हुआ था, उसे 'चंद्रवार' कहा गया है। यह एक ऐतिहासिक स्थल है, जो अब फ़िरोज़ाबाद, उत्तर प्रदेश के निकट एक छोटे गाँव के रूप में स्थित है। ऐसा कहा जाता है कि उसे चौहान राजा चंद्रसेन ने 11वीं शती में बसाया था। उसे पहले 'चंदवाड़ा' कहा जाता था; बाद में वह 'चंदवार' कहा जाने लगा। चंद्रसेन के पुत्र चंद्रपाल के शासनकाल में महमूद ग़ज़नवी ने वहाँ आक्रमण किया था; किंतु उसे सफलता प्राप्त नहीं हुई थी। बाद में मुहम्मद ग़ोरी की सेना विजयी हुई थी। चंदवार के राजाओं ने यहाँ पर एक दुर्ग बनवाया था और भवनों एवं मंदिरों का निर्माण कराया था। इस स्थान के चारों ओर कई मीलों तक इसके ध्वंसावशेष दिखलाई देते थे।

सिक्के

भारत में सिक्कों का अपना एक लंबा-चौड़ा इतिहास है। यहां के मुस्ल‍िम शासकों से लेकर अंग्रेजों तक ने अपने अपने सिक्के चलाए हैं, लेकिन साथ ही चलन में अपने अपने ढंग से मुद्राएं (सिक्के) भी चलाईं। इस इतिहास में मुहम्मद ग़ोरी द्वारा चलाए गए लक्ष्मी की तस्वीर वाले सिक्के भी हैं तो अकबर के चलाए सिया राम की तस्वीर वाले सिक्के भी हैं। दिल्ली के इतिहासकार नलिन चौहान अपने कॉलम दिल्ली के अनजाने इतिहास के खोजी में लिखते हैं कि गोरी का एक सिक्का जिसके चित में बैठी हुई लक्ष्मी का अंकन है तो पट में देवनागरी में मुहम्मद बिन साम उत्कीर्ण है। ये सिक्का दिल्ली में भारतीय पुरातत्व विभाग के संग्रहालय में सुरक्षित है, सिक्के का वजन 4.2 ग्राम है। उन्होंने लिखा है कि दिल्ली में ग़ोरी काल के सिक्कों पर पृथ्वीराज के शासन वाले हिंदू देवी-देवताओं के प्रतीक चिह्नों और देवनागरी को यथावत रखा गया।[1]

ग़ोरी ने दिल्ली में पांव जमने तक पृथ्वीराज चौहान के समय में प्रचलित प्रशासकीय मान्यताओं में भी विशेष परिवर्तन नहीं किया। यही कारण है कि हिंदू सिक्कों में प्रचलित चित्र अंकन परंपरा के अनुरूप, इन सिक्कों में लक्ष्मी और वृषभ-घुड़सवार अंकित थे। इसके पीछे की वजह बताते हुए वह लिखते हैं कि ग़ोरी ने हिन्दू जनता को नई मुद्रा के चलन को स्वीकार न करने के रणनीतिक उपाय के रूप में हिन्दू शासकों, चौहान और तोमर वंशों के सिक्कों के प्रचलन को जारी रखा। उस समय भी हिन्दी भाषा जनता की भाषा थी और ग़ोरी अपने शासन की सफलता के लिये भाषा का आश्रय लेना चाहता था। वह हिन्दू जनता को यह भरोसा दिलाना चाहता था कि यह केवल व्यवस्था का स्थानान्तरण मात्र है हालांकि बाद में बहुत कुछ उसके शासन काल में बदलता चला गया।

मृत्यु

माना जाता है कि 15 मार्च, 1206 ई. में आधुनिक पाकिस्तान के झेलम क्षेत्र में नदी के किनारे मुहम्मद ग़ोरी को खोखर नामक जाट क़बीले के लोगों ने अपने ऊपर हुए हमलों का बदला लेने के लिए मार डाला। मुहम्मद ग़ोरी का कोई पुत्र नहीं था और उसकी मौत के बाद उसके साम्राज्य के भारतीय क्षेत्र पर उसके प्रिय ग़ुलाम क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली सल्तनत स्थापित करके उसका विस्तार करना शुरू कर दिया। उसके अफ़ग़ानिस्तान व अन्य इलाक़ों पर ग़ोरियों का नियंत्रण न बच सका और ख़्वारेज़्मी साम्राज्य ने उन पर क़ब्ज़ा कर लिया। ग़ज़ना और ग़ोर कम महत्वपूर्ण हो गए और दिल्ली अब क्षेत्रीय इस्लामी साम्राज्य का केंद्र बन गया। इतिहासकार सन 1215 के बाद ग़ोरी साम्राज्य को पूरी तरह विस्थापित मानते हैं।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख