शेरशाह सूरी साम्राज्य

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शासनकाल (1540-1555 ई.)
शेरशाह सूरी साम्राज्य की स्थापना शेरशाह सूरी ने सन् 1540 में दिल्ली की सिंहासन गद्दी पर बैठकर की। शेरशाह का वास्तविक नाम फ़रीद ख़ाँ था और उसका पिता 'हसन ख़ाँ' जौनपुर में एक छोटा ज़मींदार था। फ़रीद ने पिता की जागीर की देखभाल करते हुए काफ़ी प्रशासनिक अनुभव प्राप्त किया। इब्राहीम लोदी की मृत्यु और अफ़ग़ान मामलों में हलचल मच जाने पर वह एक शक्तिशाली अफ़ग़ान सरदार के रूप में उभरा। 'शेरख़ाँ' की उपाधि उसे उसके संरक्षक ने एक शेर मारने पर दी थी। जल्दी शेरख़ाँ बिहार के शासक का दाहिना हाथ बन गया। वह वास्तव में बिहार का बेताज बादशाह था। यह सब बाबर की मृत्यु से पहले घटित हुआ था। इस प्रकार शेरख़ाँ ने अचानक ही महत्त्व प्राप्त कर लिया था।

राजस्थान के संघर्ष

शासक के रूप में शेरशाह ने मुहम्मद बिन तुग़लक़ के समय के बाद स्थापित सशक्ततम साम्राज्य पर राज्य किया। उसका राज्य सिंधु नदी से कश्मीर सहित बंगाल तक फैला हुआ था। पश्चिम में उसने मालवा और लगभग सारा राजस्थान जीता। उस समय मालवा कमज़ोर और बिखरा हुआ था। अतः विरोध कर पाने की स्थिति में नहीं था। लेकिन राजस्थान में स्थिति भिन्न थी। मालदेव ने, जो 1532 में गद्दी पर बैठा था, सारे पश्चिम और उत्तर-राजस्थान को अपने अधिकार में कर लिया था। शेरशाह और हुमायूँ के बीच संघर्ष के समय उसने अपनी सीमाओं का और भी विस्तार कर लिया था। जैसलमेर के भट्टियों की मदद से उसने अजमेर को भी जीत लिया। इन विजयों के दौर में मेवाड़ सहित इस क्षेत्र के शासकों से उसका संघर्ष हुआ। उसका अन्तिम कार्य बीकानेर की विजय था। लड़ाई में बीकानेर का शासक वीरतापूर्वक लड़ते हुए मारा गया। उसके लड़के कल्याण दास और भीम शेरशाह की शरण में पहुँचे। इनमें मालदेव के संबंधी मेड़ता के बीरम देव भी थे। जिन्हें उसने जागीर से बेदख़ल कर दिया था।

इस प्रकार वही स्थिति उत्पन्न हो गई, जो बाबर और राणा साँगा के समक्ष थी। मालदेव द्वारा राजस्थान में एक केन्द्रीय शासन की स्थापना के प्रयत्न को दिल्ली और आगरा के सुल्तान एक ख़तरा मानते, ऐसा अवश्याम्भावी था। ऐसा विश्वास था कि मालदेव के पास 50,000 सिपाही थे, लेकिन इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि मालदेव की नज़र दिल्ली या आगरा पर थी। पूर्व संघर्षों की भाँति इस बार भी दोनों पक्षों के बीच संघर्ष का कारण सैनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण क्षेत्र राजस्थान पर आधिपत्य था।

चौंसा एवं बिलग्राम के युद्ध

1539 ई. में चौंसा का एवं 1540 ई. में बिलग्राम या कन्नौज के युद्ध जीतने के बाद शेरशाह 1540 ई. में दिल्ली की गद्दी की पर बैठा। उत्तर भारत में द्वितीय अफ़ग़ान साम्राज्य के संस्थापक शेर ख़ाँ द्वारा बाबर के चदेरी अभियान के दौरान कहे गये ये शब्द अक्षरशः सत्य सिद्ध हुए, “ कि अगर भाग्य ने मेरी सहायता की और सौभाग्य मेरा मित्र रहा, तो मै मुग़लों को सरलता से भारत से बाहर निकाला दूँगा।” चौंसा युद्ध के पश्चात् शेर ख़ाँ ने ‘शेरशाह’ की उपाधि धारण कर अपना राज्याभिषेक करवाया। कालान्तर में इसी नाम से खुतबे (उपदेश या प्रशंसात्मक रचना) पढ़वाये एवं सिक्के ढलवाये। जिस समय शेरशाह दिल्ली के सिंहासन पर बैठा, उसके साम्राज्य की सीमायें पश्चिम में कन्नौज से लेकर पूरब में असम की पहाड़ियों एवं चटगाँव तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में झारखण्ड की पहाड़ियों एवं बंगाल की खाड़ी तक फैली हुई थी।

सेमल की लड़ाई

1544 में अजमेर और जोधपुर के बीच सेमल नामक स्थान पर राजपूत और अफ़ग़ान फ़ौजों के बीच संघर्ष हुआ। राजस्थान में आगे बढ़ते हुए शेरशाह ने बहुत ही सावधानी से काम लिया। वह प्रत्येक पड़ाव पर आकस्मिक आक्रमणों से बचने के लिए खाई खोद लेता था। यह स्पष्ट है कि राणा साँगा और बाबर के मध्य हुई भयंकर परिणामों वाली लड़ाई के बाद राजपूतों ने भी बहुत सी सैनिक पद्धतियों को सीख लिया था। उन्होंने दृढ़ता से सुरक्षित शेरशाह के पड़ावों पर आक्रमण करना मंज़ूर नहीं किया। एक महीना इंतज़ार करने के बाद मालदेव अचानक ही जोधपुर की ओर लौट गया।

शेरशाह की मृत्यु

सेमल की लड़ाई ने राजस्थान के भाग्य की कुंजी घुमा दी। इसके बाद शेरशाह ने अजमेर और जोधपुर पर घेरा डाल दिया और उन्हें जीत कर मालदेव को राजस्थान की ओर खदेड़ दिया। फिर वह मेवाड़ की ओर घूमा। राणा मुक़ाबला करने की स्थिति में नहीं था। उसने चित्तौड़ के क़िले की चाबियाँ शेरशाह के पास भिजवा दीं। शेरशाह ने माउंट आबू पर चौकी स्थापित कर दी।
इस प्रकार दस वर्ष की छोटी-सी अवधि में ही शेरशाह ने लगभग सारे राजस्थान को जीत लिया। उसका अंतिम अभियान कालिंजर के क़िले के विरुद्ध था। यह क़िला बहुत मज़बूत और बुन्देलखण्ड का द्वार था। घेरे के दौरान एक तोप फट गई, जिससे शेरशाह गंभीर रूप से घायल हो गया। वह क़िले पर फ़तह का समाचार सुनने के बाद मौत की नींद सो गया।

शेरशाह के उत्तराधिकारी

शेरशाह के बाद उसका दूसरा पुत्र इस्लामशाह गद्दी पर बैठा और उसने 1553 तक राज्य किया। इस्लामशाह एक योग्य शासक और सेनापति था। लेकिन उसकी अधिकांश शक्ति अपने भाइयों और उसके साथ कई अफ़ग़ान सरदारों के विद्रोहों को कुचलने में ख़र्च हो गई। इसके और हमेशा से बने हुए मुग़लों के फिर से आक्रमण करने के ख़तरे के कारण इस्लामशाह अपने साम्राज्य का और विस्तार नहीं कर सका। युवावस्था में ही उसकी मृत्यु हो जाने के कारण उसके उत्तराधिकारियों में गृह-युद्ध छिड़ गया। इससे हुमायूँ को भारत के साम्राज्य को फिर से प्राप्त करने का अवसर मिल गया, जिसकी वह प्रतीक्षा कर रहा था। 1555 की दो ज़बरदस्त लड़ाइयों में उसने अफ़ग़ानों को पराजित कर दिया और दिल्ली तथा आगरा को फिर से जीत लिया।

शेरशाह का महत्त्व और योगदान

सूर साम्राज्य को अनेक प्रकार से दिल्ली सल्तनत की निरन्तरता और परिणाम समझा जाना चाहिए। जबकि बाबर और हुमायूँ का आगमल एक अन्तराल है। शेरशाह के मुख्य योगदानों में से एक यह है कि उसने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य में क़ानून और व्यवस्था को फिर से स्थापित किया। वह चौरों, डाकुओं और उन ज़मींदारों से सख्ती से पेश आया जो भू-राजस्व देने से या सरकार के आदेश मानने से इंकार करते थे। शेरशाह का इतिहासकार अब्बासख़ाँ सरवानी कहता है कि ज़मींदार इतना डर गये थे कि कोई उसके ख़िलाफ़ विद्रोह का झंडा उठाना नहीं चाहता था और न किसी की यह हिम्मत पड़ती थी कि अपनी जागीर से गुजरने वाले राहगीरों को परेशान करे।

व्यापार की उन्नति और आवागमन के साधन

शेरशाह ने व्यापार की उन्नति और आवागमन के साधनों के सुधार की ओर बहुत ध्यान दिया। शेरशाह ने पुरानी शाही सड़क, जिसे ग्रांड ट्रक रोड कहा जाता है, (उस समय यह मार्ग उस समय सड़क-ए-आज़म कहलाता था)। जो सिंधू नदी से बंगाल के सोनार गाँव तक है फिर से खोला। उसने आगरा से जोधपुर और चित्तौड़ तक की सड़क का निर्माण करवाया और उसे गुजरात के बंदरगाहों से जुड़ी सड़कों से मिलाया। उसने लाहौर से मुल्तान तक तीसरी सड़क का निर्माण करवाया। मुल्तान उस समय पश्चिम और मध्य एशिया की ओर जाने वाले कारवाओं का प्रारभिंक बिन्दु था। यात्रियों की सुविधा के लिए शेरशाह ने इन सड़कों पर प्रत्येक दो कोस (लगभग आठ) किलोमीटर पर सरायों का निर्माण कराया। सराय में यात्रियों के रहने-खाने तथा सामान सुरक्षित रखने की व्यवस्था होती थी। इन सरायों में हिन्दुओं और मुसलमानों के रहने के लिए अलग-अलग व्यवस्था होती थी। हिन्दू यात्रियों को भोजन और बिस्तर देने के लिए ब्राह्मणों की नियुक्ति होती थी। अब्बासख़ाँ कहता है कि इन सरायों में यह नियम था कि जो भी आता था उसे सरकार की ओर से उसके पद के अनुसार भोजन और उसके जानवरों को दाना-पानी मिलता था। इन सरायों के आसपास गांव बसाने का प्रयत्न किया गया और कुछ जमींन सरायों का खर्च पूरा करने के लिए अलग कर दी गई। प्रत्येक सराय में एक शहना (सुरक्षा अधिकारी) के अधीन कुछ चौकीदार होते थे।

Blockquote-open.gif "किसान निर्दोष है, वे अधिकारियों के आगे झुक जाते हैं, और अगर मैं उन पर ज़ुल्म करूँ तो वे अपने गाँव छोड़कर चले जायेंगे, देश बर्बाद और वीरान हो जायेगा और दोबारा समृद्ध होने के लिए उसे बहुत लंबा वक़्त लगेगा।"-शेरशाह Blockquote-close.gif


डाक व्यवस्था

कहा जाता है कि शेरशाह ने कुल 1700 सरायों का निर्माण करवाया। इनमें से कुछ अब भी खड़ी हैं। जिससे पता चलता है कि वे कितनी मज़बूत बनायी गई थीं उसकी सड़कों और सरायों को 'साम्राज्य की धमनियाँ' कहा जाता है। बहुत सी सरायों के आस-पास क़स्बे बन गये, जहाँ किसान अपनी उपज बेचने के लिए आते थे। सरायों को डाक-चौकियों के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता था। डाक-चौकियों की व्यवस्था के विषय में एक पूर्व अध्याय में चर्चा की जा चुकी है। इनके माध्यम से शेरशाह को विशाल साम्राज्य की घटनाओं की जानकारी मिलती-रहती थी।

यात्रियों और व्यापारियों की सुविधा

शेरशाह ने अपने गवर्नरों और आमिलों को इस बात का आदेश दिया कि वे लोगों को यात्रियों और व्यापारियों से अच्छा व्यवहार करने और उन्हें किसी भी प्रकार की हानि न पहुँचने के लिए विवश करें। अगर किसी व्यापारी की मृत्यु हो जाती थी तो उसके सामान को लावारिस मान कर ज़ब्त नहीं किया जाता था। शेरशाह ने उन्हें शेख़ निज़ामी का सूत्र दिया था कि "यदि तुम्हारे देश में किसी व्यापारी की मृत्यु होती है, तो उसकी सम्पत्ति को हाथ लगाना विश्वासघात होता है।" किसी व्यापारी को यदि मार्ग में कोई नुक़सान होता था तो शेरशाह गांव के मुखिया या ज़मींदार को उत्तरदायी ठहराता था। व्यापारियों का सामान चोरी हो जाने पर मुक़दमा या ज़मींदार को चोरों या लुटेरों के अड्डों का पता बताना पड़ता था। इसमें असफल रहने पर स्वयं वह सज़ा भुगतनी पड़ती थी जो चोरों या लुटेरों को मिल सकती थी। मार्गों पर हत्या की वारदात हो जाने पर भी यही क़ानून लागू होता था। अपराधी के स्थान पर निरपराध को उत्तरदायी ठहराना बर्बर क़ानून अवश्य था, लेकिन लगता है कि इसका काफ़ी प्रभाव पड़ा। अब्बास ख़ाँ सरवानी की चित्रमय भाषा में "एक जर्जर बूढ़ी औरत भी अपने सिर पर जेवरात की टोकरी रख कर यात्रा पर जा सकती थी, और शेरशाह की सज़ा के डर से कोई चोर या लुटेरा उसके नज़दीक नहीं आ सकता था।"

मुद्रा सुधार

शेरशाह के मुद्रा सुधारों से भी व्यापार और शिल्पों की उन्नति में सहायता मिली। उसने खोट मिले मिश्रित धातुओं के सिक्कों के स्थान पर सोने, चाँदी और ताँबे के बढ़िया मानक सिक्के ढलवाये। उसका चाँदी का सिक्का इतना प्रमाणिक था कि वह शताब्दियों बाद तक मानक सिक्के के रूप में प्रचलित रहा। मानक बांटों और मापों को सम्पूर्ण साम्राज्य में लागू करने का उसका प्रयत्न भी व्यापार में बहुत सहायक सिद्ध हुआ।
शेरशाह ने सल्तनतकाल से चली आ रही प्रशासकीय इकाईयों में कोई परिवर्तन नहीं किया। परगना के अंतर्गत कुछ गाँव होते थे। परगना एक शिक़दार के अधीन होता था। शिक़दार का काम क़ानून और व्यवस्था तथा प्रशासन का कार्य देखना था एवं मुंसिफ़ या आमिल भी उसके अधीन होता था, जो भू-राजस्व इकट्ठा करता था। लेखा फ़ारसी तथा स्थानीय भाषाओं दोनों में रखा जाता था। परगना के ऊपर शिक़ अथवा सरकार होता था, जिसकी देखभाल शिक़दार-ए-शिक़दारान और मुंसिफ़-ए-मुंसिफ़ान करते थे। ऐसा लगता है कि अधिकारियों के पद नाम ही नहीं थे। अन्यथा पूर्व कालों में भी परगना और सरकार दोनों प्रशासन की इकाइयाँ थे।

भूमि और राजस्व

कई सरकारों को मिलाकर प्रान्त का निर्माण होता था, परन्तु शेरशाह के समय के प्रान्तीय प्रशासन की पद्धति की कोई विशेष जानकारी नहीं है। ऐसा लगता है कि प्रान्तीय गवर्नर कई क्षेत्रों में बहुत शक्तिशाली थे। बंगाल जैसे क्षेत्रों में वास्तविक अधिकार प्रजातीय-सरदारों (क़बीले के सरदारों) के पास ही होते थे और प्रान्तीय गवर्नरों का उन पर ढीला-ढाला अधिकार ही होता था।
वस्तुतः शेरशाह ने सल्तनतकाल से चली आ रही केन्द्रीय प्रशासन व्यवस्था को ही बनाये रखा। परन्तु इस विषय में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।

शेरशाह वज़ीरों के हाथ में अधिकार देने में विश्वास नहीं रखता था। वह सुबह से देर रात तक राज्य के कार्यों में व्यस्त रहता था और कड़ा परिश्रम करता था। वह प्रजा की हालत जानने के लिए अक्सर देश का भ्रमण करता था। लेकिन कोई भी व्यक्ति चाहे वह कितना ही परिश्रमी क्यों न हो, भारत जैसे बृहद देश के कामों को अकेला नहीं संभाल सकता था। शेरशाह द्वारा प्रशासन की अति केन्द्रीकृत पद्धति अपनाकर अधिकांश अधिकार अपने हाथ में रखने की प्रवृत्ति की कमज़ोरियाँ उसकी मृत्यु के बाद ही उभर कर आईं।

शेरशाह ने भू-राजस्व प्रणाली, सेना और न्याय पर बहुत ध्यान दिया। अपने पिता की ज़ागीर का काम अनेक वर्षों तक संभालने और फिर बिहार के शासन की देखभाल करने के कारण शेरशाह भू-राजस्व प्रणाली के प्रत्येक स्तर के कार्य से भली-भाँति परिचित था। कुछ योग्य प्रशासकों की मदद से उसने सारी प्रणाली को ठीक किया। उपज की मात्रा का अनुमान नहीं लगाया जाता था, न ही उपज को खेतों या खलिहानों में हिस्सों में बांटा जाता था। दरों की एक प्रणाली (जिसे राय कहा जाता था) निकाली गई, जिसके अंतर्गत अलग-अलग किस्मों पर राज्य के भाग की दर अलग-अलग होती थी। उसके बाद अलग-अलग क्षेत्रों में बाज़ार-भावों के अनुसार उस भाग की क़ीमत तय की जाती थी। राज्य का भाग एक-तिहाई होता था। भूमि को भी उत्तम, मध्यम और निम्न कोटियों में बांटा जाता था। उनकी औसत उपज का हिसाब लगा कर उसका एक तिहाई भाग राजस्व के रूप में लिया जाता था। यद्यपि वह राज्यकर का भुगतान नक़दी में चाहता था परन्तु यह किसानों पर निर्भर करता था कि वे कर नक़द दें या अनाज के रूप में।

किसानों के लिए व्यवस्था

इस प्रकार बोआई करने के बाद किसान को यह पता चल जाता था कि उसे कितना कर देना है। बोआई का क्षेत्रफल, फ़सल की क़िस्म और किसान द्वारा देय कर एक पट्टे पर लिख लिया जाता था और किसान को उसकी सूचना दे दी जाती थी। किसी को किसान से उससे अधिक लेने का अधिकार नहीं था। नाप-जोख करने वाले दलों के सदस्यों का पारिश्रमिक भी निर्धारित था। अकाल जैसी प्राकृतिक विपदाओं का मुक़ाबला करने के लिए प्रति बीघा ढाई सेर अनाज अतिरिक्त कर के रूप में लिया जाता था।
शेरशाह किसानों के कल्याण का बहुत ख़याल रखता था। वह कहा करता था :- "किसान निर्दोष है, वे अधिकारियों के आगे झुक जाते हैं, और अगर मैं उन पर ज़ुल्म करूँ तो वे अपने गाँव छोड़कर चले जायेंगे, देश बर्बाद और वीरान हो जायेगा और दोबारा समृद्ध होने के लिए उसे बहुत लंबा वक़्त लगेगा।" उस काल में खेती योग्य बहुत भूमि उपलब्ध थी और ज़ुल्म होने पर किसानों द्वारा गांव छोड़कर चला जाना एक बहुत बड़ा ख़तरा था और इस स्थिति के कारण ही शासकों द्वारा किसानों का शोषण करने पर एक अंकुश रहता था।

सैन्य नेतृत्व

शेरशाह ने अपने विशाल साम्राज्य की सुरक्षा के लिए एक मज़बूत सेना तैयार की। उसने जातीय मुखियाओं के नेतृत्व में राज्य की सेवा में निश्चित मात्रा में सैनिक उपलब्ध कराने की पद्धति को समाप्त कर दिया और चरित्र-पुष्टि के आधार पर सैनिकों की सीधी भर्ती शुरू की। हर सैनिक का खाता (चेहरा) दर्ज होता था, उसके घोड़े पर शाही निशान लगा दिया जाता था ताकि घटिया नस्ल के घोड़े से उसे बदला न जा सके। सम्भवतः घोड़ों को दाग़ने की परम्परा शेरशाह ने अलाउद्दीन ख़िलजी से अपनायी। जिसने सैनिक सुधारों के अंतर्गत इस विधि को शुरू किया था। शेरशाह की अपनी सेना में 1,50,000 पैदल सिपाही, 25,000 घुड़सवार जो धनुषों से लैस होते थे, 5,000 हाथी और एक तोपख़ाना था। उसने साम्राज्य के विभिन्न भागों में छावनियाँ बनवायीं और प्रत्येक में एक मज़बूत टुकड़ी को तैनात किया।

न्याय व्यवस्था

शेरशाह न्याय पर बहुत बल देता था। वह कहा करता था कि "न्याय सबसे बढ़िया धार्मिक कार्य है, और इसे काफ़िरों और मुसलमानों दोनों के राजा समान रूप से स्वीकार करते हैं।" वह ज़ुल्म करने वालों को कभी क्षमा नहीं करता था चाहे वे बड़े सरदार हों या अपनी जाति के लोग या निकट संबंधी ही क्यों न हों। क़ानूनी व्यवस्था के लिए विभिन्न स्थानों पर क़ाज़ियों की नियुक्ति की जाती थी। लेकिन पहले की भाँति, गाँव पंचायतें और ज़मींदार भी स्थानीय स्तर पर दीवानी और फ़ौजदारी मुक़दमों की सुनवाई करते थे।

न्याय प्रदान करने के लिए शेरशाह के पुत्र और उत्तराधिकारी इस्लामशाह ने एक और बड़ा क़दम उठाया। इस्लामशाह ने क़ानून को लिखित रूप देकर इस्लामी क़ानून की व्याख्याओं के लिए कुछ विशेष व्यक्तियों पर निर्भर रहने की आवश्यकता को समाप्त कर दिया। इस्लामशाह ने सरदारों के अधिकारों और विशेषाधिकारों को भी कम करने का प्रयास किया, और उसने सैनिकों को नक़द वेतन देने की परम्परा भी प्रारम्भ की। लेकिन उसकी मृत्यु के साथ ही उसकी अधिकांश व्यवस्थाएँ भी समाप्त हो गईं।

भवन निर्माण

इसमें कोई संदेह नहीं है कि शेरशाह का व्यक्तित्व असाधारण था। उसने पांच साल के शासन की छोटी सी अवधि में प्रशासन की सुदृढ़ प्रणाली स्थापित की। वह महान् भवन-निर्माता भी था। सासाराम स्थित शेरशाह का मक़बरा, जो उसने अपने जीवन-काल में निर्मित करवाया था, स्थापत्य कला का एक शानदार नमूना माना जाता है। इसे पूर्वकालीन स्थापत्य शैली और बाद में विकसित स्थापत्य शैली के प्रारंभिक बिन्दु का मिश्रण माना जाता है।

कुछ अन्य विशेषताएँ

  • शेरशाह ने दिल्ली के निकट यमुना के किनारे पर एक नया शहर भी बसाया। इसमें से अब केवल पुराना क़िला और उसके अन्दर बनी एक सुंदर मस्जिद ही शेष है।
  • शेरशाह विद्वानों को संरक्षण भी देता था। मलिक मुहम्मद जायसी के "पद्मावत" जैसी हिन्दी की कुछ श्रेष्ठ रचनाएँ उसी के शासनकाल में लिखी गईं।
  • शेरशाह में धार्मिक मदान्धता नहीं थी। उसकी सामाजिक और आर्थिक नीतियाँ इसका प्रमाण हैं।
  • शेरशाह और उसका पुत्र इस्लामशाह में से कोई भी उलेमाओं पर निर्भर नहीं रहता था, यद्यपि वह उनका बहुत आदर करते थे। कभी-कभी राजनीतिक कार्यों को न्यायसंगत ठहराने के लिए धार्मिक नारे दिये जाते थे। शपथ पर विश्वास करके मालवा के रायसेन के क़िले से बाहर आने पर पूरनमल और उनके साथियों का वध, इसका एक उदाहरण है। उलेमाओं ने यह स्पष्टीकरण दिया की काफ़िरों के साथ विश्वास बनाये रखना ज़रूरी नहीं है, और कहा कि पूरनमल ने मुसलमान स्त्रियों और पुरुषों पर ज़ुल्म किया था। लेकिन शेरशाह ने कोई नयी उदार नीति शुरू नहीं की।
  • हिन्दुओं से "जज़िया" कर लिया जाता रहा और उसके सरदारों में लगभग सभी अफ़ग़ान थे।

इस प्रकार सूरों के अधीन राज्य रक्त और जाति पर आधारित अफ़ग़ान संस्था ही रहा। अकबर के उदय के बाद ही इसमें मूलभूत परिवर्तन हुए।


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