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*चंद्रकीर्ति के मतानुसार स्वलक्षणसत्ता व्यवहार में भी नहीं है। यही [[नागार्जुन बौद्धाचार्य|नागार्जुन]] का भी अभिप्राय है। उनका कहना है कि परमार्थत: शुन्यता मानते हुए व्यवहार में स्वलक्षणसत्ता मानकर भावविवेक ने नागार्जुन के अभिप्राय के विपरीत आचरण किया है। चंद्रकीर्ति के अनुसार भावविवेक नागार्जुन के सही मन्तव्य को नहीं समझ सके।
 
*चंद्रकीर्ति के मतानुसार स्वलक्षणसत्ता व्यवहार में भी नहीं है। यही [[नागार्जुन बौद्धाचार्य|नागार्जुन]] का भी अभिप्राय है। उनका कहना है कि परमार्थत: शुन्यता मानते हुए व्यवहार में स्वलक्षणसत्ता मानकर भावविवेक ने नागार्जुन के अभिप्राय के विपरीत आचरण किया है। चंद्रकीर्ति के अनुसार भावविवेक नागार्जुन के सही मन्तव्य को नहीं समझ सके।
 
*चंद्रकीर्ति प्रसंग वाक्यों का प्रयोजन परवादी को अनुमान विरोध दिखलाना मात्र मानते हैं। प्रतिवादी जब अपने मत में विरोध देखता है तो स्वयं उससे हट जाता है। यदि विरोध दिखलाने पर भी वह नहीं हटता है तो स्वतन्त्र हेतु के प्रयोग से भी उसे नहीं हटाया जा सकता, अत: स्वतन्त्र अनुमान का प्रयोग व्यर्थ है। स्वतन्त्र अनुमान नहीं मानने पर भी चंद्रकीर्ति प्रसिद्ध अनुमान मानते हैं, जिसके धर्मी, पक्षधर्मता आदि प्रतिपक्ष को मान्य होते हैं।  
 
*चंद्रकीर्ति प्रसंग वाक्यों का प्रयोजन परवादी को अनुमान विरोध दिखलाना मात्र मानते हैं। प्रतिवादी जब अपने मत में विरोध देखता है तो स्वयं उससे हट जाता है। यदि विरोध दिखलाने पर भी वह नहीं हटता है तो स्वतन्त्र हेतु के प्रयोग से भी उसे नहीं हटाया जा सकता, अत: स्वतन्त्र अनुमान का प्रयोग व्यर्थ है। स्वतन्त्र अनुमान नहीं मानने पर भी चंद्रकीर्ति प्रसिद्ध अनुमान मानते हैं, जिसके धर्मी, पक्षधर्मता आदि प्रतिपक्ष को मान्य होते हैं।  
*न्याय परम्परा के अनुसार पक्ष-प्रतिपक्ष दोनों द्वारा मान्य उभय प्रसिद्ध  अनुमान का प्रयोग उचित माना जाता है। अर्थात दृष्टान्त आदि वादी एवं प्रतिवादी दोनों  को मान्य होना चाहिए। किन्तु चंद्रकीर्ति यह आवश्यक नहीं मानते। उनका कहना है कि यह उभय प्रसिद्धि स्वतन्त्र हेतु मानने पर निर्भर है। स्वतन्त्र हेतु स्वलक्षणसत्ता मानने पर निर्भर है। स्वलक्षणसत्ता मानना ही सारी गड़बड़ी का मूल है। अत: चंद्रकीर्ति के अनुसार भवविवेक ने स्वलक्षणसत्ता मानकर नागार्जुन के दर्शन को विकृत कर दिया है। केवल प्रसंग का प्रयोग ही पर्याप्त है और उसी से परप्रतिज्ञा का निषेध हो जाता है।  
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*न्याय परम्परा के अनुसार पक्ष-प्रतिपक्ष दोनों द्वारा मान्य उभय प्रसिद्ध  अनुमान का प्रयोग उचित माना जाता है। अर्थात् दृष्टान्त आदि वादी एवं प्रतिवादी दोनों  को मान्य होना चाहिए। किन्तु चंद्रकीर्ति यह आवश्यक नहीं मानते। उनका कहना है कि यह उभय प्रसिद्धि स्वतन्त्र हेतु मानने पर निर्भर है। स्वतन्त्र हेतु स्वलक्षणसत्ता मानने पर निर्भर है। स्वलक्षणसत्ता मानना ही सारी गड़बड़ी का मूल है। अत: चंद्रकीर्ति के अनुसार भवविवेक ने स्वलक्षणसत्ता मानकर नागार्जुन के दर्शन को विकृत कर दिया है। केवल प्रसंग का प्रयोग ही पर्याप्त है और उसी से परप्रतिज्ञा का निषेध हो जाता है।  
 
*विद्वानों की राय में चंद्रकीर्ति ने आचार्य नागार्जुन के अभिप्राय को यथार्थरूप में प्रस्तुत किया।  
 
*विद्वानों की राय में चंद्रकीर्ति ने आचार्य नागार्जुन के अभिप्राय को यथार्थरूप में प्रस्तुत किया।  
 
*आचार्य चंद्रकीर्ति की अनेक रचनाएँ हैं, जिनमें नागार्जुन प्रणीत 'मुलमाध्यमिककारिका' की [[टीका]] 'प्रसन्नपदा', [[आर्यदेव बौद्धाचार्य|आर्यदेव]] के 'चतु:शतक' की टीका 'मध्यमकावतार' और उसकी स्ववृत्ति प्रमुख है। इन रचनाओं के द्वारा चंद्रकीर्ति ने नागार्जुन के माध्यमिक दर्शन की सही समझ पैदा की है।
 
*आचार्य चंद्रकीर्ति की अनेक रचनाएँ हैं, जिनमें नागार्जुन प्रणीत 'मुलमाध्यमिककारिका' की [[टीका]] 'प्रसन्नपदा', [[आर्यदेव बौद्धाचार्य|आर्यदेव]] के 'चतु:शतक' की टीका 'मध्यमकावतार' और उसकी स्ववृत्ति प्रमुख है। इन रचनाओं के द्वारा चंद्रकीर्ति ने नागार्जुन के माध्यमिक दर्शन की सही समझ पैदा की है।

07:55, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण

चंद्रकीर्ति (उत्कर्ष 600 से 650 ई.) बौद्ध तर्कशास्त्र के प्रासंगिक मत के मुख्य प्रतिनिधि थे। इन्होंने बौद्ध साधु नागार्जुन के विचारों पर 'प्रसन्नपद' नामक प्रसिद्ध टीका लिखी थी। हालांकि नागार्जुन की व्याख्या में पहले से कई टीकाएं थीं, लेकिन चंद्रकीर्ति की टीका इनमें सबसे प्रामाणिक बन गई। मूल रूप से संस्कृत में संरक्षित यह एकमात्र टीका है।[1]

जन्म तथा शिक्षा

तिब्बती इतिहास लेखक तारानाथ के कथनानुसार चंद्रकीर्ति का जन्म दक्षिण भारत के किसी 'समंत' नामक स्थान में हुआ था। चंद्रकीर्ति बाल्यकाल से ही ये बड़े प्रतिभाशाली थे। बौद्ध धर्म में दीक्षित होकर इन्होंने त्रिपिटकों का गंभीर अध्ययन किया। थेरवादी सिद्धांत से असंतुष्ट होकर ये महायान दर्शन के प्रति आकृष्ट हुए थे। उसका अध्ययन इन्होंने आचार्य कमलबुद्धि तथा आचार्य धर्मपाल की देखरेख में पूर्ण किया था। कमलबुद्धि 'शून्यवाद' के प्रमुख आचार्य बुद्धपालत तथा आचार्य भावविवेक (भावविवेक या भव्य) के पट्ट शिष्य थे।[2]

'शून्यवाद' के प्रतिनिधि

आचार्य धर्मपाल नालंदा महाविहार के कुलपति थे, जिनके शिष्य शीलभद्र ने चीनी यात्री ह्वेनसांग को महायान के प्रमुख ग्रंथों का अध्यापन कराया था। चंद्रकीर्ति ने नालंदा महाविहार में ही अध्यापक के गौरवमय पद पर आरुढ़ होकर अपने दार्शनिक ग्रंथों का प्रणयन किया। चंद्रकीर्ति का समय ईस्वी षष्ठ शतक का उत्तरार्ध है। योगाचार मत के आचार्य चंद्रगोमी से इनकी स्पर्धा की कहानी बहुत प्रसिद्ध है। ये 'शून्यवाद' के प्रासंगिक मत के प्रधान प्रतिनिधि माने जाते हैं।

रचनाएँ

चंद्रकीर्ति की तीन रचनाएँ अब तक ज्ञात हैं-

  1. माध्यमिकावतार - इस रचना का केवल तिब्बती अनुवाद ही उपलब्ध है, मूल संस्कृत का पता नहीं चलता। यह 'शून्यवाद' की व्याख्या करने वाला मौलिक ग्रंथ है।
  2. चतु: शतक टीका - इसका भी केवल आरंभिक अंश ही मूल संस्कृत में उपलब्ध है। समग्र ग्रंथ तिब्बती अनुवाद में मिलता है, जिसके उत्तरार्ध[3] का विधुशेखर शास्त्री ने संस्कृत में पुन: अनुवाद कर 'विश्वभारती सीरीज'[4] में प्रकाशित किया।
  3. प्रसन्नपदा - यह संस्कृत में पूर्णत: उपलब्ध अत्यंत प्रख्यात ग्रंथ है, जो नागार्जुन की 'माध्यमिककारिका' की नितांत प्रौढ़, विशद तथा विद्वत्तापूर्ण व्याख्या है।[2]

'माध्यमिककारिका' की रहस्यमयी कारिकाओं का गूढ़ार्थ 'प्रसन्नपदा' के अनुशीलन से बड़ी सुगमता से अभिव्यक्त होता है। नागार्जुन का यह ग्रंथ कारिकाबद्ध होने पर भी ययार्थत: सूत्रग्रंथ के समान संक्षिप्त, गंभीर तथा गूढ़ है, जिसे सुबोध शैली में समझाकर यह व्याख्या नामत: ही नहीं, प्रत्युत वस्तुत: भी 'प्रसन्नपदा' है। चंद्रकीर्ति ने नए तर्कों की उद्वभावना कर 'शून्यवाद' के प्रतिपक्षी तर्को का खंडन बड़ी गंभीरता तथा प्रौढ़ि के साथ किया है। बादरायण के ब्रह्मसूत्रों के रहस्य समझने के लिये जिस प्रकार आचार्य शंकर के भाष्य का अनुशीलन आवश्यक है, उसी प्रकार 'माध्यमिककारिका' के गूढ़ तत्व समझने के लिये आचार्य चंद्रकीर्ति की 'प्रसन्नपदा' का अनुसंधान नि:संदेह आवश्यक है।

दार्शनिक विचार

  • आचार्य चंद्रकीर्ति प्रासंगिक माध्यमिक मत के प्रबल समर्थक रहे थे। भावविवेक ने बुद्धपालित द्वारा केवल प्रसंग वाक्यों का ही प्रयोग किये जाने पर अनेक आक्षेप किये। उनका (भावविवेक) कहना था कि केवल प्रसंग वाक्यों के द्वारा परवादी को शून्यता का ज्ञान नहीं कराया जा सकता, अत: स्वतन्त्र अनुमान का प्रयोग नितान्त आवश्यक है। इस पर चंद्रकीर्ति का कहना है कि असली माध्यमिक को स्वतन्त्र अनुमान का प्रयोग नहीं ही करना चाहिए। स्वतन्त्र अनुमान का प्रयोग तभी सम्भव है, जबकि व्यवहार में वस्तु की स्वलक्षणसत्ता स्वीकार की जाए।
  • चंद्रकीर्ति के मतानुसार स्वलक्षणसत्ता व्यवहार में भी नहीं है। यही नागार्जुन का भी अभिप्राय है। उनका कहना है कि परमार्थत: शुन्यता मानते हुए व्यवहार में स्वलक्षणसत्ता मानकर भावविवेक ने नागार्जुन के अभिप्राय के विपरीत आचरण किया है। चंद्रकीर्ति के अनुसार भावविवेक नागार्जुन के सही मन्तव्य को नहीं समझ सके।
  • चंद्रकीर्ति प्रसंग वाक्यों का प्रयोजन परवादी को अनुमान विरोध दिखलाना मात्र मानते हैं। प्रतिवादी जब अपने मत में विरोध देखता है तो स्वयं उससे हट जाता है। यदि विरोध दिखलाने पर भी वह नहीं हटता है तो स्वतन्त्र हेतु के प्रयोग से भी उसे नहीं हटाया जा सकता, अत: स्वतन्त्र अनुमान का प्रयोग व्यर्थ है। स्वतन्त्र अनुमान नहीं मानने पर भी चंद्रकीर्ति प्रसिद्ध अनुमान मानते हैं, जिसके धर्मी, पक्षधर्मता आदि प्रतिपक्ष को मान्य होते हैं।
  • न्याय परम्परा के अनुसार पक्ष-प्रतिपक्ष दोनों द्वारा मान्य उभय प्रसिद्ध अनुमान का प्रयोग उचित माना जाता है। अर्थात् दृष्टान्त आदि वादी एवं प्रतिवादी दोनों को मान्य होना चाहिए। किन्तु चंद्रकीर्ति यह आवश्यक नहीं मानते। उनका कहना है कि यह उभय प्रसिद्धि स्वतन्त्र हेतु मानने पर निर्भर है। स्वतन्त्र हेतु स्वलक्षणसत्ता मानने पर निर्भर है। स्वलक्षणसत्ता मानना ही सारी गड़बड़ी का मूल है। अत: चंद्रकीर्ति के अनुसार भवविवेक ने स्वलक्षणसत्ता मानकर नागार्जुन के दर्शन को विकृत कर दिया है। केवल प्रसंग का प्रयोग ही पर्याप्त है और उसी से परप्रतिज्ञा का निषेध हो जाता है।
  • विद्वानों की राय में चंद्रकीर्ति ने आचार्य नागार्जुन के अभिप्राय को यथार्थरूप में प्रस्तुत किया।
  • आचार्य चंद्रकीर्ति की अनेक रचनाएँ हैं, जिनमें नागार्जुन प्रणीत 'मुलमाध्यमिककारिका' की टीका 'प्रसन्नपदा', आर्यदेव के 'चतु:शतक' की टीका 'मध्यमकावतार' और उसकी स्ववृत्ति प्रमुख है। इन रचनाओं के द्वारा चंद्रकीर्ति ने नागार्जुन के माध्यमिक दर्शन की सही समझ पैदा की है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्य टीकाएं सिर्फ़ तिब्बती अनुवादों में उपलब्ध हैं
  2. 2.0 2.1 चंद्रकीर्ति (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 19 अप्रैल, 2014।
  3. 8वें परिच्छेद से लेकर 16वें परिच्छेद तक
  4. संख्या 2, कलकत्ता, 1951

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