गौड़पाद

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गौडपाद एक 'सांख्यकारिता व्याख्या' के रचियता एवं अद्वैत सिद्धात के प्रसिद्ध आचार्य थे। गौडपाद सांख्यकारिता के पद्यों एवं सिद्धातों की ठीक-ठीक व्याख्या करने में इनकी टीका महत्त्वपूर्ण है।

  • गौडपादाचार्य के जीवन के बारे में कोई विशेष बात नहीं मिलती। आचार्य शंकर के शिष्य सुरेश्वराचार्य के 'नैष्कर्म्यसिद्धि' ग्रंथ से केवल इतना पता लगता है कि वे गौड देश के रहने वाले थे। इससे प्रतीत होता है कि उनका जन्म बडाग्ल प्रांत किसी स्थान में हुआ था। शंकर के जीवन चरित्र से इतना ज्ञात होता है कि गौडपादाचार्य के साथ उनकी भेंट हुई थी। परंतु इसके अन्य प्रमाण नहीं मिलते।
  • गौडपादाचार्य का सबसे प्रधान ग्रंथ है।'माण्डूक्यों-पनिषत्कारिका'। इसका शंगराचार्य ने भाष्य लिखा है। इस कारिका की मिताक्षरा नामक टीका भी मिलती है। उनकी अन्य टीका है 'उत्तर गीता-भाष्य'। उत्तर गीता (महाभारत) का अंश है। परंतु यह अंश महाभारत की सभी प्रतियों में नहीं मिलता।
  • गौडपाद अद्वैतसिद्धांत के प्रधान उद्घघोषक थे। इन्होंने अपनी कारिका में जिस सिद्धांत को वीजरुप में प्रकट किया। उसी को शंगराचार्य ने अपने ग्रंथों में विस्तृत रुप से समझाकर संसार के सामने रखा। कारिकाओं में उन्होंने जिस मत का प्रतिपादन किया है उसे 'अजातवाद' कहते हैं। सृष्टि के विषय में भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के भिन्न-भिन्न मत हैं। कोई काल से सृष्टि मानते हैं। और कोई भगवान के संकल्प से इसकी रचना मानते हैं। इस प्रकार कोई परिणामवादी हैं और कोई आरम्भवादी। किंतु गौडपाद के सिद्धांतानुसार जगत की उत्पत्ति ही नहीं हुई, केवल एक अखण्ड चिदघन सत्ता ही मोहवंश प्रपच्चवत भास रही है। यही बात आचार्य इन शब्दों में कहते हैं:

मनोदृश्यमिदं द्वैतमद्वैतं परमार्थ:।
मनसो ह्ममनीभावे द्वैतं नैवोपलभ्यते॥

  • यह जितना द्वैत है सब मन का ही दृश्य है। पर मार्थत: तो अद्वैत ही है, क्योंकि मन के मननशून्य हो जाने पर द्वैत की उपलब्धि नहीं होती।]

आचार्य ने अपनी कारिकाओं में अनेक प्रकार की युक्तियों से यही सिद्ध किया है कि सत्, असत् अथवा सदसत् किसी भी प्रकार से प्रपच्च की उत्पत्ति सिद्ध नहीं हो सकती। अत: परमार्थत: न उत्पत्ति है, न प्रलय है, न बद्ध है, न साधक है, न मुमुक्षु है और न मुक्त ही है:

न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधक:।
न मुमुक्षर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता॥

  • बस जो समस्त विरुद्ध कल्पनाओं का अधिष्ठान, सर्वगत, असंग अप्रमेय और अविकारी आत्मतत्त्व है, एक मात्र वही सदृस्तु हैं। माया की महिमा से रज्जू में सर्प, शुक्ति में रजत और सुवर्ण में आभूषणादि के समान उस सर्वसंगशून्य निर्विशेष चित्तत्त्व में ही समस्त पदार्थों की प्रतीति हो रही है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ


बाहरी कड़ियाँ

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