भर्तुहरि
भर्तुहरि संस्कृत के व्याकरणशास्त्र के एक महान गंभीर मनीषी के रूप में प्रसिद्ध हैं। उनका विद्वत्संमत काल है ईसवी पांचवीं सदी। व्याकरणशास्त्र का उद्देश्य केवल शब्द है और चतुर्थ अर्थात् अंतिम पुरुषार्थ मोक्ष तो दूर रहा, धर्म, अर्थ और काम नामक तीन लौकिक पुरुषार्थों से भी उनका कोई संबंध नहीं हो सकता, ऐसी भ्रांत कल्पना भर्तुहरि के काल में विद्वानों में भी ज़ोर पकड़ने लगी थी। इससे भर्तुहरि को बहुत दु:ख हुआ, जिसे उन्होंने 'वाक्यपदीय' के द्वितीय कांड के अंत में कतिपय श्लोकों में व्यक्त किया है। उस भ्रांत कल्पना को हटाकर भर्तुहरि ने व्याकरणशास्त्र की परम्परा और प्रतिष्ठा को बढ़ाया। इनको वाक्यपदीयकार से अभिन्न मानने में कोई अनुपपत्ति नहीं प्रतीत होती, परन्तु इनका कोई अन्य ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है। वाक्यपदीय व्याकरण विषयक ग्रन्थ होने पर भी प्रसिद्ध दार्शनिक ग्रन्थ है। अद्वैत सिद्धान्त ही इसका उपजीव्य है, इसमें संदेह नहीं है। किसी-किसी आचार्य का मत है कि भर्तुहरि के 'शब्दब्रह्मवाद' का ही अवलम्बन करके आचार्य मण्डनमिश्र ने ब्रह्मासिद्धि नामक ग्रन्थ का निर्माण किया था। इस पर वाचस्पतिमिश्र की 'ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा' नामक टीका है।
परिचय
अंतरंग और बहिरंग प्रमाणों से आधुनिक विद्वान इतना ही निर्णय कर सके हैं कि भर्तुहरि ईसवी पांचवीं सदी में हुए। उनका जन्म, माता, पिता, गुरु, अध्ययन, निवास आदि विषय में कुछ भी प्रमाण अभी तक नहीं मिला है। एक दन्त कथा के अनुसार भर्तुहरि को अपनी विद्वता के बारे में बड़ा घमंड था। एक समय विद्वानों की सभा में किसी पंडित ने पतंजलि के महाभाष्य जैसा दूसरा श्रेष्ठ ग्रंथ है ही नहीं, ऐसा कहा। यह सुनकर भर्तुहरि क्रुद्ध होते हुए बोले- 'भामदृष्टवा गत: स्वर्गमकृतार्थ: पतंजलि' (मुझ जैसे व्याकरण के विद्वान को न देखने से पतंजलि अपना निष्फल जीवन छोड़कर ही स्वर्ग पधारा)।
ग्रंथ तथा किंवदंतियाँ
भर्तुहरि ने अनेक बार बौद्ध धर्म को स्वीकार किया और बार-बार फिर से वह ब्राह्मण हो गये, इस प्रकार की आख्यायिका भी परम्परा में प्रसिद्ध है। इसी कारण भर्तुहरि के लिए कभी-कभी 'प्रच्छन्न बौद्ध' अथवा 'बाह्य' विशेषण लगाया जाता है। लेकिन इस विषय में निर्णायक प्रमाण अभी तक उपलब्ध नहीं है। वाक्यपदीय ग्रंथ के तीन कांड और महाभाष्य टीका 'दीपिका' में दो ग्रंथ भर्तुहरि के नाम से प्रसिद्ध है। उसके वाक्यपदीय पर उपलब्ध विस्तृत विवरण रूप स्वोपज्ञ टीका भी उसी की मानी जाती है। स्वोपज्ञ टीका का कुछ अंश ही आज उपलब्ध है। पाणिनी सूत्र विवरण रूप भागवृत्ति, पाणिनीय व्याकरण सूत्रों में उदाहरण प्रस्तुत करने वाला रामचरित काव्य (अर्थात् भट्टिकाव्य) तथा शतकत्रय (नीतिशतक, श्रृंगारशतक और वैराग्य शतक)- इन ग्रंथों के कर्ता भी यही भर्तुहरि हैं, ऐसा परम्परा में माना जाता है। लेकिन आधुनिक विद्वानों की मान्यता यह नहीं है।
महोपाध्याय उपाधि
प्राचीन वाङमय में 'महोपाध्याय' इस अत्यादरदर्शक उपाधि के साथ उनका उल्लेख बहुत स्थानों पर मिलता है। संभवत: यह उपाधि उनको किसी राजा ने या पंडित समाज ने दी होगी। बारहवीं सदी के जैन व्याकरण पंडित वर्धमान ने गणराजमहोदधि में भर्तुहरि को वाक्यपदीय और प्रकीर्णक इन दो ग्रंथों का कर्ता तथा महाभाष्यत्रिपादी का व्याख्याता बताया है। इस उल्लेख से भर्तुहरि ने महाभाष्य के तीन पादों पर टीका लिखी होगी। 'प्रकीर्णक' नामक स्वतंत्र ग्रंथ लिखा होगा, ऐसा समझा जा सकता है। संभवत: आज उपलब्ध दीपिका टीका ही वह महाभाष्य टीका होगी और वाक्यपदीय का तृतीय कांड ही 'प्रकीर्णक' नाम से निर्दिष्ट होगा, क्योंकि इस तीसरे कांड में जाति, द्रव्य, संख्या इत्यादि अनेकानेक विषयों का अनेक प्रकरणों में विवेचन किया गया है। संभवत: वर्धमान ने पहले दोनों कांडों को ही वाक्यपदीय नाम से निर्दिष्ट किया होगा। इस प्रकार वाक्यपदीय के तीन कांड और महाभाष्य टीका 'दीपिका', उसका अंशमात्र- सात आह्निक ही वर्तमान में उपलब्ध और प्रकाशित हैं, इन दोनों ग्रंथों के लेखक वैयाकरण भर्तुहरि हैं तथा वाक्यपदीय की स्वोपज्ञ टीका का कर्ता भी वही भर्तुहरि है, ऐसी विद्वानों की मान्यता है।
मत-मतान्तर
सम्पूर्ण महाभाष्य की प्रदीप नामक टीका का लेखक कैयट, ग्यारहवीं सदी में हुआ। उसने टीका के प्रारम्भ में 'भर्तुहरि के द्वारा बांधे हुए सेतु से मेरे जैसा पंगु भी महाभाष्य रूपी प्रचंड सागर में समर्थ हो सका', ऐसा कहते हुए भर्तुहरि के प्रति अत्यन्त आदर प्रकट किया है। यह प्रमाण भी महाभाष्य दीपिका का कर्ता प्रसिद्ध वैयाकरण भर्तुहरि ही हुआ होगा, इस मत का समर्थन करता है। लेकिन महाभाष्य दीपिका और वाक्यपदीय की स्वोपज्ञ टीका का कर्ता प्रसिद्ध वैयाकरण भर्तुहरि ही था, इस मत में संदेह किया जा सकता है। इन दो ग्रंथों में से दीपिका टीका पहले सात आह्निकों पर ही उपलब्ध है। इस दीपिका का बहुत स्थानों पर त्रुटित, अशुद्ध, आदि-अंत रहित एक ही हस्तलिखित रूप आज उपलब्ध है। महाभाष्य का गूढ़ आशय बहुत स्थानों पर उसमें स्पष्ट किया गया है। व्याकरण के शब्दसिद्धि रूप अर्थात् प्रक्रियात्मक और अर्थ विवेचनात्मक विभाग का भी उसमें बहुत विस्तृत विवेचन मिलता है। महाभाष्य की एकमेव प्राचीन तथा विस्तृत टीका होने से दीपिका अवश्य ही महत्त्व रखती है। लेकिन जबकि वाक्यपदीय कारिकाओं की शैली प्रसादगुणयुक्त है, दीपिका टीका अत्यन्त क्लिष्ट और अनेक स्थानों पर अतीव अप्रस्तुत विषय का विस्तृत विवरण देने वाली लगती है।
शैली
दीपिका और स्वोपज्ञ टीका इन दोनों के विषय भिन्न होते हुए भी उनकी विषय विवेचन की शैली एक जैसी है। यद्यपि दीपिका का पाणिनीय तन्त्र और सूत्रों से विशेष सम्बन्ध है और स्वोपज्ञ टीका का विशेष सम्बन्ध अर्थ प्रक्रिया से और तर्क, मीमांसा, वेदान्त इत्यादि अन्य दर्शनों से है, तथापि कई स्थानों पर जब विवेचन की धारा में समान विषय आते हैं, तब दोनों की समानता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। ऐसा भी हो सकता है कि महाभाष्य दीपिका और वाक्यपदीय की स्वोपज्ञ टीका, दोनों टीकाएं भर्तुहरि के किसी शिष्य-प्रशिष्य ने लिखकर उसके नाम पर प्रसिद्ध की हों। प्राचीन काल के कई लेखकों की ऐसी प्रवृत्ति दिखाई देती है कि वे गुरु या अन्य किसी व्यक्ति के प्रति विशेष आदर के कारण या ग्रंथ को प्रतिष्ठा दिलाने के हेतु से ही, स्वयं लिखित ग्रंथ को आदरणीय व विख्यात विद्वानों के नाम पर प्रसिद्ध करते थे। यद्यपि महाभाष्य की दीपिका टीका तथा वाक्यपदीय की सोवोपज्ञ टीका का कर्ता भर्तुहरि ही था या नहीं, इसके बारे में संदेह हो सकता है, तथापि वाक्यपदीय के तीनों कांड भर्तुहरि ने ही रचे हैं, इसके बारे में कोई संदेह नहीं प्रतीत होता।
विचारधारा
वाक्यपदीय में प्रकट हुई भर्तुहरि की विचारधारा संकुचित या विशिष्ट साम्प्रदायिक नहीं लगती। उसने जैसे वैदिक परम्परा का, वैसे ही बौद्ध, जैन आदि सम्प्रदायों का भी गहरा अध्ययन किया था। इन सम्प्रदायों के विशेष विचारों का आदरपूर्वक उल्लेख अपने ग्रंथों में बहुत स्थानों पर किया है। भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के अध्ययन से ही बुद्धि का विवेक-सामर्थ्य बढ़ता है, 'प्रज्ञा विवेक लुभते भिन्नैरागमदर्शनै:' ऐसा विश्वास उसने स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है। उसकी सर्वमत-संग्राहक वृत्ति की। लेकिन कभी-कभी भर्तुहरि द्वारा बौद्ध मत का संग्रह और समर्थन होने के कारण, भर्तुहरि ने बौद्ध धर्म को स्वीकार किया, ऐसा लोकभ्रम फैलाया गया होगा। लेकिन मुख्यत: भर्तृहरि के ग्रंथ में वेदों और स्मृतियों के प्रति दृढ़ निष्ठा व्यक्त की गई है तथा मीमांसादि वैदिक शास्त्रों के सिद्धांतों का आग्रहपूर्वक समर्थन किया गया है। अनेक उल्लेखों और दृष्टान्तों से यह संकेत मिलता है कि भर्तुहरि वैदिक अद्वैत मत का ही पूरस्कर्ता था, बौद्ध मत का अनुयायी बिल्कुल नहीं था। == भर्तुहरि के वाक्यपदीय की कारिकाओं का उल्लेख वैदिक और अवैदिक, बौद्ध, जैन आदि सम्प्रदायों के विद्वानों-ग्रन्थकारों ने अपने-अपने मतों के समर्थन के लिए और कई स्थानों पर उसके मतों के खंडन के लिए भी किया है। वैदिक, बौद्ध, जैन इत्यादि न केवल भिन्न अपितु अत्यन्त विरुद्ध मत वाले विद्वान लेखकों ने, जिसका उल्लेख अनेक बार किया है, ऐसा व्याकरणशास्त्रज्ञ ग्रन्थकार भर्तुहरि से अन्य नहीं होगा। बादरायण का ब्रह्मसूत्र और श्रीमद्भागवदगीता, दोनों का जो संबंध प्रतीत होता है, वहीं संबंध पाणिनीसूत्र और वाक्यपदीय का है। ब्रह्मसूत्र में प्रतिपादित केवल शुद्ध तत्व ज्ञान का सामान्य मनुष्य के दैनन्दिन भाषिक व्यवहार के साथ संबंध जोड़ने का यशस्वी प्रयत्न श्रीमद्भागवदगीता में किया गया है। वैसे ही पाणिनीय सूत्रों के विधानों का व्यावहारिक भाषा के साथ संबंध जोड़ने का काम वाक्यपदीय ग्रंथ ने प्रभावी ढंग से किया है। इसी कारण भाषाशास्त्रियों को, वाक्यपदीय में प्रतिपादित अनेक सिद्धांत, पाणिनीसूत्रों की अपेक्षा सुबोध और दैनन्दिन भाषिक व्यवहार के लिए उपयुक्त मालूम होते हैं। फलत: वाक्यपदीय की कारिकाओं का उल्लेख सब प्रकार के वाङ्मय में मुख्य रूप से किया गया है।
वाक्यपदीय ग्रंथ
वाक्यपदीय व्याकरणशास्त्र का ग्रंथ है, फिर भी उसमें शब्दसिद्धि का प्रक्रियात्मक अत्यल्प रूप से मिलता है। पाणिनीय व्याकरण की तात्विक भूमिका को उजागर करना अनेक सिद्धांतों का व्यावहारिक तथा शास्त्रीय दृष्टांतों से समर्थन करना इस ग्रंथ का मुख्य उद्देश्य है। यह साक्षात् आकरग्रंथ नहीं है। अथवा आकरग्रंथ का टीकाग्रंथ भी नहीं है, फिर भी व्याकरणशास्त्र का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रकरण ग्रंथ है।
वाक्यपदीय के तीन कांड अर्थात् विभाग हैं। पहले कांड में 155 कारिकाएँ हैं। इस कांड का 'आगमसमुच्चय' नाम स्वोपज्ञ टीका में दिया गया है। परम्परा में यह कांड ब्रह्मकांड नाम से प्रसिद्ध है। यद्यपि ये दोनों नाम इस कांड में प्रतिपादित विषय के अनुरूप मालूम होते हैं, तथापि 'आगमसमुच्चय' नाम अधिक उचित है, क्योंकि उसमें वयाकरणागम् से संबंधित अनेक सिद्धांतों की चर्चा की गई है। प्रारम्भ में अद्वैत वेदांत का सिद्धांत जो ब्रह्म है, उसका वर्णन, वेदों का महत्त्व, उन वेदों के मुख्य अंग, व्याकरण की महिमा, व्याकरणशास्त्र की सामान्य रचना पद्धति, अर्थ बोधक शब्द का नित्यत्व, नित्य शब्द और ध्वनिरूप शब्द का व्यंग्य व्यंजक भाव-ये विषय अनेक लौकिक दृष्टांतों की सहायता से सिद्ध किये गए हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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