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बोधिचर्यावतारणपंजिका एक बौद्ध ग्रन्थ है, जिसका रचनाकार नागार्जुन को माना जाता है। इस ग्रन्थ में बुद्ध के उपदेशों का विवेचन, आत्मवाद का खण्डन तथा आत्मवाद का मण्डन है। राजतरंगिणी और तारानाथ के मतानुसार नागार्जुन कनिष्क के काल में पैदा हुए थे।

शिक्षा

इस ग्रन्थ के अनुसार, जो आत्मा को देखता है, उसका अहं से सदा स्नेह रहता है। स्नेह के कारण सुख प्राप्ति के लिए तृष्णा पैदा होती है, और तृष्णा दोषों का तिरष्कार करती है। गुणदर्शी पुरुष, इस विचार से कि विषय मेरे हैं, विषयों के साधनों का संग्रह करता है। इस प्रकार उसमें आत्माभिनिवेश उत्पन्न होता है। जब तक आत्माभिनिवेश रहता है, तब तक प्रपंच शेष रहता है। आत्मा का अस्तित्व मानने पर ही पर का ज्ञान होता है। आप-पर विभाग से रागद्वेष की उत्पत्ति होती है। स्वानुराग तथा परद्वेष के कारण ही समस्त दोष पैदा होते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय संस्कृति कोश, भाग-2 |प्रकाशक: यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई दिल्ली-110002 |संपादन: प्रोफ़ेसर देवेन्द्र मिश्र |पृष्ठ संख्या: 546 |


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