वसुबन्धु बौद्धाचार्य

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वसुबन्धु की बौद्ध जगत में एक प्रकाण्ड पाण्डित और शास्त्रार्थ-पटुता के कारण बड़ी प्रतिष्ठा है। अपनी अनेक कृतियों द्वारा उन्होंने बुद्ध के मन्तव्य का लोक में प्रसार करके लोक का महान कल्याण सिद्ध किया है। उनके इस परहित कृत्य को देखकर विद्वानों ने उन्हें 'द्वितीय बुद्ध' की उपाधि से विभूषित किया। आचार्य वसुबन्धु शास्त्रार्थ में अत्यन्त निपुण थे। उन्होंने महावैयाकरण वसुरात को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। सुना जाता है कि सांख्याचार्य विन्ध्यवासी ने उनके गुरु बुद्धमित्र को पराजित कर दिया था। इस पराजय का बदला लेने वसुबन्धु विन्ध्यवासी के पास शास्त्रार्थ करने पहुँचे, किन्तु तब तक विन्ध्यवासी का निधन हो गया था। फलत: उन्होंने विन्ध्यवासी के 'सांख्यसप्तति' ग्रन्थ के खण्डन में 'परमार्थसप्तति' नामक ग्रन्थ की रचना की।

जीवन परिचय

वसुबन्धु के जीवन और आविर्भाव तिथि के विषय में मतभेद हैं। परमार्थ (499-569) ने चीनी भाषा में वसुबन्धु की जीवनी लिखी थी। इससे पता चलता है कि आचार्य वसुबन्धु कौशिक गोत्र के ब्राह्मण थे और इनका जन्म 'पुरुषपुर' (पेशावर) में हुआ था। ये तीन भाई थे। इनमें ज्येष्ठ असंग थे। वसुबन्धु उनसे छोटे थे। सबसे छोटे भाई का नाम विरिंचिवत्स था। असंग और वसुबन्धु आरम्भ में सर्वास्तिवाद की महीशासक शाखा के अनुयायी थे, बाद में महायान में दीक्षित हुए। ये अयोध्या के निवासी रहे थे और अस्सी वर्ष की अवस्था में इनका देहान्त हुआ।

समय काल

वसुबन्धु की तिथि के विषय में विद्वानों में काफ़ी विवाद है। वसुबन्धु का सर्वाधिक मान्य समय चौथी शताब्दी ईसवी सन है। बौद्ध न्यायशास्त्र के मुख्य प्रवर्तक आचार्य दिङ्नाग इनके शिष्य थे। वसुबन्धु का समय 360-440 ई. अस्थायी रूप से स्वीकार किया जा सकता है। भोटदेशीय इतिहासकार लामा तारानाथ और बुदोन के अनुसार इन्होंने संघभद्र से विद्याध्ययन किया था। आचार्य परमार्थ के अनुसार इनके गुरु बुद्धमित्र थे। अन्य विद्वानों में ताकाकुसू के अनुसार 420-500 ईस्वीय वर्ष उनका काल है। वोगिहारा महोदय के मतानुसार आचार्य 390 से 470 ईस्वीय वर्षों में विद्यमान थे। सिलवां लेवी उनका समय पाँचवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध मानते हैं। एन. पेरी महोदय उनका समय 350 ईस्वीय वर्ष सिद्ध करते हैं। फ्राउ वाल्नर महोदय इसी मत का समर्थन करते हैं। इन सब विवादों के समाधान के लिए कुछ विद्वान दो वसुबन्धुओं का अस्तित्व मानते हैं। उनमें एक वसुबन्धु तो आचार्य असंग के छोटे भाई थे, जो महायान शास्त्रों के प्रणेता हुए तथा दूसरे वसुबन्धु सौत्रान्तिक थे, जिन्होंने अभिधर्म कोश की रचना की। विन्टरनित्ज, मैकडोनल, डॉ. विद्याभूषण, डॉ. विनयतोष भट्टचार्य आदि विद्वान आचार्य को ईस्वीय चतुर्थ शताब्दी का मानते हैं।

आचार्य कुमारजीव ने वसुबन्धु के अनेक ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद किया है। वे 344 से 413 ईस्वीय वर्ष में विद्यमान थे। सुना जाता है कि कुमारजीव ने अपने गुरु सूर्यसोम से वसुबन्धु के 'सद्धर्मपुण्डरीकोपदेश शास्त्र' का अध्ययन किया था। आर्यदेवविरचित शतशास्त्र की 'वसुबन्धरचित' व्याख्या का चीनी भाषा में अनुवाद 404वें ईस्वीय वर्ष में तथा वसुबन्धुप्रणीत 'बोधिचित्तोत्पाद शास्त्र' का 405वें वर्ष में चीनी भाषा में अनुवाद हुआ था। बोधिरुचि ने वसुबन्धु 'वज्रच्छेदिकाप्रज्ञापारमिताशास्त्र' की वज्रर्षिकृत व्याख्या का अनुवाद 535 ईस्वीय वर्ष में सम्पन्न किया था। इन प्रमाणों के आधार पर महायान-ग्रन्थों के रचयिता वसुबन्धु अभिधर्मकोशकार वसुबन्धु से भिन्न प्रतीत होते हैं। अभिधर्मकोश के व्याख्याकार यशोमित्र अपनी व्याख्या में वसुबन्धु नामक एक अन्य आचार्य की सूचना देते हैं। वे उन्हें 'वृद्धाचार्य वसुबन्धु' कहते हैं। तिब्बती परम्परा आचार्य को बुद्ध के नवम शतक में विद्यमान मानती है। बीसवीं शताब्दी में भोटदेशीय इतिहासकार गे-दुन-छोस-फेल महोदय का कहना है कि भोटदेशीय सम्राट स्रोड्-चन्-गम्पो, भारतीय सम्राट श्रीहर्ष, आचार्य दिङ्नाग, कवि कालिदास, आचार्य दण्डी, इस्लाम धर्मप्रवर्तक मुहम्मद साहब ये सब महापुरुष कुछ काल के अन्तर से प्राय: समान कालिक थे। परमार्थ, ह्वेनसांग, तारानाथ, ताकाकुसू आदि इतिहासवेत्ताओं का कहना है, दो वसुबन्धुओं की कल्पना निरर्थक है, वसुबन्धु एक ही थे और वे 420 से 500 ईस्वीय वर्षों के मध्य विद्यमान थे। आधुनिक इतिहासकार भी इसी मत का समर्थन करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं।

विद्वान विचार

  • ह्नेनसांग के मतानुसार परमार्थ इनके गुरु थे। सम्भव है कि इन्होंने विभिन्न गुरुओं के समीप बैठकर ज्ञानार्जन किया हो। उस काल में अयोध्या प्रधान विद्याकेन्द्र के रूप प्रतिष्ठित थी। यहीं निवास करते हुए उन्होंने गम्भीर दर्शनों का तलस्पर्शी अध्ययन-अध्यापन और अभिधर्मकोश आदि प्रसिद्ध ग्रन्थों का प्रणयन किया था।
  • तारानाथ के मतानुसार नालन्दा में प्रव्रजित होकर वहीं उन्होंने सम्पूर्ण 'श्रावकपिटक' का अध्ययन किया था और उसके बाद विशेष अध्ययन के लिए ये आचार्य संघभद्र के समीप गये थे। इनकी विद्वत्ता की कीर्ति सर्वत्र व्याप्त थी। इनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर अयोध्या के सम्राट चन्द्रगुप्त सांख्य मत को छोड़कर बौद्ध मत के अनुयायी हो गये थे। उन्होंने अपने पुत्र 'बालादित्य' को और अपनी पत्नी महारानी 'ध्रुवा' को अध्ययन के लिए इनके समीप भेजा था।
  • 'तत्त्वसंग्रह' नामक ग्रन्थ की पञ्जिका के रचयिता आचार्य कमलशील ने अपने ग्रन्थ में इनके वैदुष्य की बड़ी प्रशंसा की है। अस्सी वर्ष की आयु में अयोध्या में ही इनका देहावसान हुआ। तारानाथ के मतानुसार नेपाल में और महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के मतानुसार गान्धार में इनका निधन हुआ था।

स्वतन्त्र विचारक तथा प्रतिभा सम्पन्न

जीवन के प्रारम्भिक काल में वसुबन्धु सर्वास्तिवादी थे। आचार्य संघभद्र के प्रभाव से ये 'कश्मीर-वैभाषिक' हो गए और उसी समय इन्होंने 'अभिधर्मकोश' का प्रणयन किया। इस ग्रन्थ का विद्वत्समाज में बड़ा आदर था। महाकवि बाणभट्ट ने अपने हर्षचरित ग्रन्थ में अभिधर्मकोश का उल्लेख किया है। सिंहलद्वीप के महाकवि श्रीराहुल संघराज ने 15वीं विक्रम शताब्दी में प्रणीत अपने ग्रन्थ मोग्गलानपंचिकाप्रदीप में अभिधर्मकोश के वचन का उद्धरण दिया है। आचार्य वसुबन्धु सभी अठारह निकाय के तथा महायान के दार्शनिक सिद्धान्तों के अद्वितीय ज्ञाता थे, यह बात उनकी कृतियों से स्पष्ट होती है। सर्वप्रथम वे सर्वास्तिवादी निकाय में प्रव्रजित हुए। तदनन्तर उन्होंने कश्मीर में वैभाषिक शास्त्रों का अध्ययन किया। उस समय कश्मीर में सौत्रान्तिकों का प्रभाव क्षेत्र विस्तृत एवं धनीभूत हो रहा था। सौत्रान्तिकों का दार्शनिक परिवेश निश्चय ही वैभाषिकों की अपेक्षा सूक्ष्म भी था और युक्तिसंगत भी। फलत: आचार्य ने अपने अभिधर्मकोश और उसके स्वभाष्य में यत्र तत्र वैभाषिकों की विसंगतियां की ओर इंगित भी किया और उनकी आलोचना भी की है। उनकी रचनाओं के अध्ययन से एक बात निश्चय ही स्पष्ट होती है कि वे एक स्वतन्त्र विचारक एवं प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति थे।

सौत्रान्तिक दर्शन के आचार्य

सौत्रान्तिक विचारों की ओर उनकी विशेष अभिरुचि थी। यह बात इस घटना से भी पुष्टि होती है कि वैभाषिक आचार्य संघभद्र ने वसुबन्धु के 'अभिधर्मकोश' के खण्डन में 'न्यायानुसार' नामक ग्रन्थ लिखा। जिन-जिन स्थलों पर वसुबन्धु वैभाषिक विचारों से दूर होते दृष्टिगोचर हुए, उन स्थलों पर संघभद्र उनकी समालोचना करते हैं। भोटदेशीय आचार्यों का कहना है कि वसुबन्धु अपने जीवन के पूर्वार्द्ध में सौत्रान्तिक दर्शन से सम्बद्ध थे। वहाँ के तक्-छङ् लोचावा शेरब-रिन्छेन का तो यहाँ तक कहना है कि वे सौत्रान्तिक दर्शन के प्रथम आचार्य थे। किन्तु उनके इस कथन में आंशिक ही सत्यता है। क्योंकि चतुर्थ-पंचम शताब्दी के आचार्य वसुबन्धु से बहुत पहले ही सौत्रान्तिकों की दार्शनिक विचारधारा पर्याप्त विकसित हो चुकी थी। इसमें सन्देह नहीं कि आचार्य वसुबन्धु असाधारण विद्वान थे, किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि वे प्रथम आचार्य थें। 'सौत्रान्तिकदर्शन' से सम्बद्ध उनका कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है। इतना ही नहीं, 'विंशतिका विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि' में उन्होंने सौत्रान्तिकों का जमकर खण्डन भी किया है। निश्चय ही वसुबन्धु सौत्रान्तिक दर्शन के मर्मज्ञ, सर्वतन्त्रस्वतन्त्र एवं प्रामाणिक विद्वान थे। वे केवल सौत्रान्तिक दर्शन के ही आचार्य नहीं थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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