वैभाषिक दर्शन

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(सर्वास्तिवाद)

  • इनका बहुत कुछ साहित्य नष्ट हो गया है। इनका त्रिपिटक संस्कृत में था। इनके अभिधर्म में प्रमुख रूप में सात ग्रन्थ हैं, जो प्राय: मूल रूप में अनुपलब्ध हैं या आंशिक रूप में उपलब्ध हैं।
  • चीनी भाषा में इनका और इनकी विभाषा टीका का अनुवाद उपलब्ध है।
  • वे सात ग्रन्थ इस प्रकार हैं-
  1. ज्ञानप्रस्थान,
  2. प्रकरणपाद,
  3. विज्ञानकाय,
  4. धर्मस्कन्ध,
  5. प्रज्ञप्तिशास्त्र,
  6. धातुकाय एवं
  7. संगीतिपर्याय।
  • वैभाषिक और सर्वास्तिवादी दोनों अभिधर्म को बुद्धवचन मानते हैं।

परिभाषा

  • सर्वास्तिवाद शब्द में 'सर्व' का अर्थ तीनों काल तथा 'अस्ति' का अर्थ द्रव्यसत्ता है अर्थात जो निकाय तीनों कालों में धर्मों की द्रव्यसत्ता करते हैं, वे सर्वास्तिवादी हैं[1]
  • परमार्थ के अनुसार जो अतीत, अनागत, प्रत्युत्पन्न, आकाश, प्रतिसंख्यानिरोध और अप्रतिसंख्यानिरोध-इन सबका अस्तित्व स्वीकार करते हैं, वे सर्वास्तिवादी हैं।
  • वसुबन्धु कहते हैं कि जो प्रत्युत्पन्न और अतीत कर्म के उस प्रदेश (हिस्से) को, जिसने अभी फल नहीं दिया है, उसे सत् मानते हैं तथा अनागत और अतीत कर्म के उस प्रदेश (हिस्से) को, जिसने फल प्रदान कर दिया है, उसे असत् मानते हैं, वे विभज्यवादी हैं, न कि सर्वास्तिवादी। उनके मतानुसार जिनका वाद यह है कि अतीत, अनागत, प्रत्युत्पन्न सबका अस्तित्व है, वे सर्वास्तिवादी हैं। सर्वास्तिवादी आगम और युक्ति के आधार पर तीनों कालों की सत्ता सिद्ध करते हैं। उनका कहना है कि सूत्र में भगवान ने अतीत, अनागत और प्रत्युत्पन्न तीनों कालों में होने वाले रूप आदि स्कन्धों की देशना की है (रुपमनित्यमतीतमनागतम् इत्यादि)। युक्ति प्रस्तुत करते हुए वे कहते है कि अतीत, अनागत की सत्ता न होगी तो योगी में अतीत, अनागत विषयक ज्ञान ही उत्पन्न न हो सकेगा, जबकि ऐसा ज्ञान होता है तथा यदि अतीत नहीं है तो अतीत कर्म अनागत में कैसे फल दे सकेगा? अर्थात नहीं दे सकेगा। अत: इन और अन्य अनेक युक्तियों के आधार पर सिद्ध होता है कि अतीत, अनागत की सत्ता है।

हेतु-फलवाद

  • इसे वैभाषिकों का कार्य-कारणभाव भी कह सकते हैं। इनके मत में छह हेतु, चार प्रत्यय और चार फल माने जाते हैं।
  • छह हेतु इस प्रकार हैं-
  1. कारणहेतु,
  2. सहभूहेतु,
  3. सभागहेतु,
  4. सम्प्रयुक्तकहेतु,
  5. सर्वत्रगहेतु एवं
  6. विपाकहेतु।
  • चार प्रत्यय हैं, यथा-
  1. हेतु-प्रत्यय,
  2. समनन्तर-प्रत्यय,
  3. आलम्बन-प्रत्यय एवं
  4. अधिपति-प्रत्यय।
  • चार फल हैं, यथा-
  1. विपाकफल,,
  2. अधिपतिफल,
  3. निष्यन्दफल एवं
  4. पुरुषकारफल।
  • कारणहेतु— सभी धर्म अपने से अन्य सभी धर्मों के कारणहेतु होते हैं। कोई भी धर्म अपना कारणहेतु नहीं होता। अर्थात सभी धर्म उत्पन्न होने वाले समस्त संस्कृत धर्मों के कारणहेतु होते हैं, क्योंकि इनका उनके उत्पाद में अविघ्नभाव से अवस्थान होता है। आशय यह है कि कार्यों के उत्पाद में विघ्न न करना कारणहेतु का लक्षण है।
  • सहभूहेतु— सहभूहेतु वे धर्म हैं, जो परस्पर एक-दूसरे के फल होते हैं। जैसे चारों महाभूत परस्पर एक दूसरे के हेतु और फल होते हैं, यथा-एक तिपाही के तीनों पाँव एक-दूसरे को खड़ा रखते हैं। सभी संस्कृत धर्म यथासम्भव सहभूहेतु हैं, बशर्ते कि वे अन्योऽन्यफल के रूप में सम्बद्ध हों।
  • सभागहेतु— सदृश धर्म सभागहेतु होते हैं। सदृश धर्म सदृश धर्मों के सभागहेतु होते हैं। यथा-कुशल धर्म कुशल के और क्लिष्ट धर्म क्लिष्ट धर्मों के सभागहेतु होते हैं।
  • सम्प्रयुक्तकहेतु— चित्त और चैतसिक सम्प्रयुक्तक हेतु होते हैं। वे ही चित्त-चैतसिक परस्पर सम्प्रयुक्तकहेतु होते हैं, जिनका आश्रय सम या अभिन्न होता है। जैसे चक्षुरिन्द्रिय का एक क्षण एक चक्षुर्विज्ञान और तत्सम्प्रयुक्त वेदना आदि चैतसिकों का आश्रय होता है। इसी तरह मन-इन्द्रिय का एक क्षण, एक मनोविज्ञान एवं तत्सम्प्रयुक्त चैतसिकों का आश्रय होता है। वे हेतु सम्प्रयुक्तक कहलाते हैं, जिनकी सम प्रवृत्ति होती है। चित्त और चैतसिक पाँच समताओं से सम्प्रयुक्त होते हैं, क्योंकि उनके आश्रय, आलम्बन और आकार एक ही होते हैं। क्योंकि वे एक साथ उत्पन्न होते हैं। क्योंकि इनका काल भी एक ही होता है। इन पाँच समताओं में से यदि एक का भी अभाव हो तो उनकी सम-प्रवृत्ति नहीं हो सकती। ऐसा स्थिति में वह सम्प्रयुक्त नहीं हो सकते।
  • सर्वत्रगहेतु— पूर्वोत्पन्न सर्वत्रग स्वभूमिक क्लिष्ट धर्मों के सर्वत्रगहेतु होते हैं। अर्थात् पूर्वोत्पन्न अर्थात् अतीत या प्रत्युत्पन्न स्वभूमिक सर्वत्रग बाद में उत्पन्न होने वाले स्वभूमिक क्लिष्ट धर्मों के सर्वत्रगहेतु होते हैं। सर्वत्रग हेतु क्लिष्ट धर्मों के सामान्य कारण हैं। ये निकायान्तरीय क्लिष्ट धर्मों के भी हेतु होते हैं। अर्थात् इनके प्रभाव से अन्य निकायों (शरीरों) में सपरिवार क्लेश उत्पन्न होते हैं।
  • विपाकहेतु— अकुशल और सास्रव कुशल धर्म विपाकहेतु होते हैं। क्योंकि विपाक देना इनकी प्रकृति हैं अव्याकृत धर्म विपाकहेतु नहीं हो सकते, क्योंकि वे दुर्बल होते हैं।
  • फलव्यवस्था— विपाकफल अन्तिम विपाकहेतु से उत्पन्न होता है। इसके दो अर्थ किये जाते हैं, यथा- एक विपाक का हेतु और दूसरा विपाक ही हेतु। विपाक शब्द के दोनों अर्थ युक्त हैं। प्रथम कारण हेतु का अधिपतिफल होता है। सभाग और सर्वत्रग हेतु का नि:ष्यन्द फल होता है तथा सहभूहेतु और सम्प्रयुक्तकहेतु का पुरुषकार फल होता है।

वैशिष्टय

वैभाषिकों को छोड़कर अन्य सभी बौद्ध कार्य और कारण को एककालिक नहीं मानते। किन्तु वैभाषिकों की यह विशेषता है वे कि हेतु और फल को एककालिक भी मानते हैं, यथा-सहजात (सहभू) हेतु।

सत्यद्वय व्यवस्था

  • वैभाषिक भी अन्य बौद्धों की भाँति दो सत्यों की व्यवस्था करते हैं। सत्य दो हैं, यथा-
  1. संवृतिसत्य एवं
  2. परमार्थसत्य।
  • संवृतिसत्य— अवयवों का भेद अर्थात उन्हें अलग-अलग कर देने पर जिस विषय में तदबुद्धि का नाश हो जाता है, उसे संवृति-सत्य कहते हैं, जैसे घट या अम्बु (जल)। जब घट का मुद्गर आदि से विनाश कर दिया जाता है और जब वह कपाल के रूप में परिणत हो जाता है, तब उस (घट) में जो पहले घटबुद्धि हो रही थी, वह नष्ट हो जाती है। इसी तरह अम्बु का बुद्धि द्वारा विश्लेषण करने पर अम्बुबुद्धि भी समाप्त हो जाती है। इसी प्रकार उपकरणों द्वारा या बुद्धि द्वारा विश्लेषण करने पर जिन विषयों में तदविषयक बुद्धि का विनाश हो जाता है, वे धर्म संवृतिसत्य कहलाते हैं। सांवृतिक दृष्टि से घट या अम्बु कहने वाला व्यक्ति सत्य ही बोलता है, मिथ्या नहीं, अत: इन्हें 'संवृतिसत्य' कहते हैं।
  • परमार्थ सत्य- संवृतिसत्य से विपरीत सत्य परमार्थसत्य है। अर्थात उपकरण या बुद्धि द्वारा भेद कर देने पर भी जिन विषयों में तदविषयक बुद्धि का नाश नहीं होता, वे धर्म 'परमार्थसत्य' यथा- रूप, वेदना, ज्ञान, निर्वाण आदि। रूप का परमाणु में विभाजन कर देने पर भी रूपबुद्धि नष्ट नहीं होती। इसी तरह अन्य विषयों के बारे में भी जानना चाहिए। ये धर्म परमार्थत: सत्य होते हैं, अत: 'परमार्थसत्य' कहलाते हैं। अथवा जो धर्म आर्य योगी के समाहित लोकोत्तर ज्ञान द्वारा जैसे गृहीत होते हैं, उसी रूप में पृष्ठलब्ध ज्ञान द्वारा भी गृहीत होते हैं, वे *'परमार्थसत्य' हैं। यदि वैसे ही गृहीत नहीं होते तो वे संवृति सत्य हैं।

दु:खसत्य, समुदयसत्य, निरोधसत्य एवं मार्गसत्य-इस तरह चार सत्य होते हैं। ऊपर जो दो सत्य कहे गये हैं, उनसे इनका कोई विरोध नहीं है। चार आर्यसत्य दो में या दो सत्य चार में परस्पर संग्रहीत किये जा सकते हैं। जैसे निरोध सत्य परमार्थ सत्य है तथा शेष तीन संवृतिसत्य।

परमाणु विचार

वैभाषिक मत में परमाणु निरवयव माने जाते हैं। संघात होने पर भी उनका परस्पर स्पर्श नहीं होता। परमाणु द्विविध हैं, यथा-

  1. द्रव्यपरमाणु एवं
  2. संघातपरमाणु।
  • अकेला निरवयव परमाणु द्रव्यपरमाणु कहलाता है।
  • संघात परमाणु में कम से कम आठ परमाणु अवश्य रहते हैं, यथा 4 महाभूतों (पृथ्वी, अप्, तेजस् और वायु) के तथा चार उपादाय रूपों (रूप, गन्ध, रस, स्प्रष्टव्य) के परमाणु एक कलाप (संघात) में निश्चित रूप से रहते हैं। यह व्यवस्था कामधातु के संघात के बारे में है। कामधातु का एक परमाणुकलाप, जिसमें शब्द और इन्द्रिय परमाणु नहीं है, वह निश्चय ही अष्टद्रव्यात्मक होता है।
  • सौत्रान्तिक द्रव्यपरमाणु की सत्ता नहीं मानते, वे केवल संघात परमाणु ही मानते हैं।
  • आचार्य वसुबन्धु भी सौत्रान्तिक के इस मत से सहमत हैं।

ज्ञानमीमांसा

वैभाषिक भी दो ही प्रमाण मानते हैं, यथा-

  1. प्रत्यक्ष और
  2. अनुमान।
  • प्रत्यक्ष इनके मत में तीन ही हैं, यथा-
  1. इन्द्रियप्रत्यक्ष,
  2. मानसप्रत्यक्ष एवं
  3. योगिप्रत्यक्ष।
  • ये स्वसंवेदनप्रत्यक्ष नहीं मानते, जैसा कि सौत्रान्तिक आदि न्यायानुसारी बौद्ध मानते हैं। इसका कारण यह है कि ये ज्ञान में ग्राह्यकार नहीं मानते, इसलिए ग्राहकाकार (स्वसंवेदन) भी नहीं मानते। इनके मत में ज्ञान निराकार होता है। स्वसंवेदन नहीं मानने से इनके अनुसार ज्ञान की सत्ता का निश्चय परवर्ती ज्ञान द्वारा हुआ करता है। यह परवर्ती ज्ञान स्मृत्यात्मक या कल्पनात्मक ही होता है। आशय यह है कि इनके अनुसार ज्ञान स्मृत हुआ करता है। वह स्वयंप्रकाश नहीं होता।
  • इन्द्रियप्रत्यक्ष— इन्द्रियों से उत्पन्न ज्ञान इन्द्रियप्रत्यक्ष है। इनके मत में यद्यपि चक्षुष् ही रूप को देखता है, तथापि ये चक्षुर्विज्ञान को ही प्रमाण मानते हैं। इन्द्रियप्रत्यक्ष पाँच हैं, यथा- #चक्षुर्विज्ञान,
  1. श्रोत्रविज्ञान,
  2. घ्राणविज्ञान,
  3. विह्रविज्ञान एवं
  4. कायविज्ञान।
  • मानसप्रत्यक्ष— इन्द्रिय विज्ञानों के अनन्तर उन्हीं के विषय को ग्रहण करता हुआ यह मानसप्रत्यक्ष उत्पन्न होता है। समनन्तर अतीत छह विज्ञान अर्थात मनोधातु इसका अधिपतिप्रत्यय होता है।
  • योगिप्रत्यक्ष— योगी दो प्रकार के होते हें- लौकिक एवं लोकोत्तर। इनमें से लोकोत्तर योगी का प्रत्यक्ष ही योगिप्रत्यक्ष होता है, इसे लोकोत्तर मार्गज्ञान भी कह सकते हैं। चार आर्यसत्य, निर्वाण एवं नैरात्म्य इसके विषय होते हैं। लौकिक योगी की दिव्यश्रोत्र, दिव्यचक्षुष् आदि अभिज्ञाएं मानसप्रत्यक्ष ही हैं, योगिप्रत्यक्ष नहीं।
  • कल्पना— जो ज्ञान वस्तु से उत्पन्न न होकर शब्द को अधिपतिप्रत्यय बनाकर उत्पन्न होता है अथवा जो ज्ञान चक्षुरादि प्रत्यक्ष विज्ञानों के अनन्तर अध्यवसाय करते हुए उत्पन्न होता हा, वह 'कल्पना' या 'विकल्प' है।
  • ज्ञानाकार— इनके मत में ज्ञान में आकार नहीं माना जाता। ये ज्ञान को साकार नहीं, अपितु निराकार मानते हैं। इसी प्रकार ये वस्तु में भी आकार नहीं मानते। निराकार ज्ञान परमाणु-समूह को देखता है। परमाणु वस्त्वाकार नहीं होते। यदि ज्ञान साकार वस्तु का ग्रहण करेगा तो आकारमात्र का दर्शन करेगा, वस्तु का नहीं।
  • मार्ग-फल-व्यवस्था— मार्ग पाँच होते हैं, यथा- प्रयोगमार्ग, दर्शनमार्ग, भावनामार्ग एवं अशैक्षमार्ग। प्रथम दो मार्ग पृथग्जन अवस्था के मार्ग हैं और ये लौकिक मार्ग कहलाते हैं। शेष तीन मार्ग आर्य पुद्गलल के मार्ग हैं और लोकोत्तर हैं आर्य के मार्ग ही वस्तुत: 'मार्गसत्य' हैं। प्रथम दो मार्ग यद्यपि मार्ग हैं, किन्तु मार्गसत्य नहीं।
  • अशैक्षमार्ग— अशैक्षमार्ग के क्षण में कोई हेय क्लेश अवशिष्ट नहीं रहता। केवल शरीर ही अवशिष्ट रहता है। अशैक्ष मार्ग लोकोत्तर प्रज्ञा है, जिसका आलम्बन केवल निर्वाण होता है।
  • त्रियानव्यवस्था— श्रावकयान, प्रत्येकबुद्धयान एवं बोधिसत्त्वयान-ये तीन यान होते हैं। श्रावकगोत्रीय पुद्गल का लक्ष्य प्राय: पुद्गलनैरात्म्य का साक्षात्कार करने वाली प्रज्ञा द्वारा अपने क्लेशों का प्रहाण कर चार्य आर्यसत्यों का साक्षात्कार करके श्रावकीय अर्हत्त्व पद प्राप्त करना है। इसके लिए सर्वप्रथम अकृत्रिम निर्याण चित्त का उत्पाद आवश्यक है। सम्भारमार्ग प्राप्त होने के अनन्तर अत्यन्त तीक्ष्णप्रज्ञ पुद्गल तीन जन्मों में अर्हत्त्व प्राप्त कर लेता है। स्तोत्रापत्ति मार्ग प्राप्त होने के अनन्तर आलसी साधक भी कामधातु में सात से अधिक जन्मग्रहण नहीं करता।

बुद्ध

वैभाषिक मतानुसार बोधिसत्त्व जब बुद्धत्व प्राप्त कर लेता है, तब भी उसका शरीर सास्रव ही होता है तथा वह दु:खसत्य और समुदयसत्य होता है, किन्तु उसकी सन्तान में क्लेश सर्वथा नहीं होते। क्लेशावरण के अलावा ज्ञेयावरण का अस्तित्व ये लोग बिल्कुल नहीं मानते। बुद्ध के 12 चरित्र होते हैं। उनमें से

  1. तुषित क्षेत्र से च्युति,
  2. मातृकृक्षिप्रवेश,
  3. लुम्बिनी उद्यान में अवतरण,
  4. शिल्प विषय में नैपुण्य एवं कौमार्योचित ललित क्रीड़ा तथा
  5. रानियों के परिवार के साथ राज्यग्रहण-ये पाँच गृहस्थपाक्षिक चरित्र हैं तथा
  6. रोगी, वृद्ध आदि चार निमित्तों को देखकर ससंवेग प्रव्रज्या,
  7. नेरंजना के तट पर 6 वर्षों तक कठिन तपश्चरण,
  8. बोधिवृक्ष के मूल में उपस्थिति,
  9. मार का सेना के साथ दमन,
  10. वैशाख पूर्णिमा की रात्रि में बुद्धत्वप्राप्त,
  11. धर्मचक्र प्रवर्तन तथा
  12. कुशीनगर में महापरिनिर्वाण-ये सात चरित्र प्रव्रज्यापाक्षिक हैं।

श्रावक

अर्हत्, प्रत्येकबुद्ध अर्हत् एवं बुद्ध इन तीनों को जब अनुपधिशेषनिर्वाण की प्राप्ति हो जाती है, तब इनकी जड़ सन्तति एवं चेतन-सन्तति दोनों धाराएं सर्वथा समाप्त हो जाती हैं। इन दोनों धाराओं का अभाव ही अनुपधिशेषनिर्वाण है और इसकी भी द्रव्यसत्ता वैभाषिक स्वीकार करते हैं। इनके मत में सभी धर्म द्रव्यसत् और अर्थक्रियाकारी माने जाते हैं। आकाश, निर्वाण आदि सभी धर्म इसी प्रकार के होते हैं। जो सर्वथा नहीं होते, जैसे शशविषाण, वन्ध्यापुत्र आदि असत् होते हैं। कुछ ऐसे भी वैभाषिक थे, जो निरुधिशेषनिर्वाण के अनन्तर भी चेतनधारा का अस्तित्व मानते थे। वैभाषिकों के मत में सम्भोगकाय एवं धर्मकाय नहीं होता। केवल निर्माणकाय ही होता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तदस्तिवादात् सर्वास्तिवादा इष्टा:- अभिधर्मकोशभाष्य

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