"गुरदयाल सिंह": अवतरणों में अंतर
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05:08, 10 जनवरी 2018 का अवतरण
गुरदयाल सिंह
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पूरा नाम | गुरदयाल सिंह |
जन्म | 10 जनवरी, 1933 |
जन्म भूमि | जैतो, पंजाब |
कर्म भूमि | पंजाब |
कर्म-क्षेत्र | साहित्यकार |
मुख्य रचनाएँ | 'मढ़ी दा दीवा', 'परसा', 'रेत दी इक्क मुट्ठी', 'रूखे मिस्से बंदे' आदि। |
भाषा | पंजाबी |
पुरस्कार-उपाधि | साहित्य अकादमी पुरस्कार (1975), पद्मश्री (1998), ज्ञानपीठ पुरस्कार (1999) |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | अमृता प्रीतम के बाद गुरदयाल सिंह दूसरे पंजाबी साहित्यकार हैं, जिन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया। |
अद्यतन | 16:08, 5 दिसम्बर 2014 (IST)
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इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
गुरदयाल सिंह (अंग्रेज़ी: Gurdial Singh, जन्म: 10 जनवरी, 1933) एक प्रसिद्ध पंजाबी साहित्यकार हैं। इन्हें 1999 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। अमृता प्रीतम के बाद गुरदयाल सिंह दूसरे पंजाबी साहित्यकार हैं जिन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया। गुरदयाल सिंह आम आदमी की बात कहने वाले पंजाबी भाषा के विख्यात कथाकार हैं। कई प्रसिद्ध लेखकों की तरह उपन्यासकार के रूप में गुरदयाल सिंह की उपलब्धि को भी उनके आरंभिक जीवन के अनुभवों के संदर्भ में देखा जा सकता है।
जीवन परिचय
गुरदयाल सिंह का जन्म 10 जनवरी, 1933 को पंजाब के जैतो में हुआ। 12-13 वर्ष की आयु में, जब वह कुछ सोचने-समझने लायक़ हो रहे थे, पारिवारिक परिस्थितियों के कारण उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ा, ताकि बढ़ई के धंधे में वह अपने पिता की मदद कर सकें। गुरदयाल का जीवन केवल शारीरिक मेहनत तक सिमट गया, जिसमें कोई बौद्धिक या आध्यात्मिक तत्त्व नहीं था। स्कूल छोड़ देने के बाद भी उन्होंने अपने स्कूल ले प्रधानाध्यापक से संपर्क बनाए रखा, जिन्होंने गुरदयाल की प्रतिभा को पहचाना और अपना अध्ययन निजी तौर पर जारी रखने के लिए प्रोत्साहित किया। गुरदयाल ने स्कूल छोड़ने के लगभग 10 वर्ष बाद स्वतंत्र छात्र के रूप में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। उनके हितैषी प्रधानाध्यापक ने एक सरकारी प्राइमरी स्कूल में अध्यापक की नौकरी दिलाने में भी उनकी मदद की।
लेखन शैली
1966 में उनका पहला उपन्यास "मढ़ी दा दीवा" प्रकाशित हुआ, जिसमें एक दलित और एक विवाहित जाट महिला के मौन प्रेम की नाटकीय प्रस्तुति थी। यह दुखांत प्रेम कहानी इतनी सहजता और सरलता से अभिव्यक्त की गई कि पाठक कथाशिल्प पर उनकी अद्भुत पकड़ और अपने पात्रों व सामाजिक परिवेश की उनकी गहरी समझ से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। इसमें दलित वर्ग की ग़रीबी और उनके भावात्मक असंतोष का वर्णन अत्यंत सहजता से किया गया। इसी कारण पूरे लेखकीय जीवन में उन्हें मित्रहीन के मित्र की तरह जाना जाता रहा है। कथाकार के रूप में उनका शिल्प इतना समर्थ है कि अपनी महत्त्वपूर्ण कृति "परसा" में उन्होंने अपने नायक के जीवन के अप्रत्याशित उतार - चढ़ावों का विस्तृत और सफलतापूर्णक निरूपण किया है। इस उपन्यास के नायक के तीन बेटे हैं। पहला खेल प्रशिक्षक है, जो इंग्लैंड में जाकर बस जाता है, दूसरा पुलिस अधिकारी है, जिसकी जीवन शैली अपने पिता के जीवन से बिल्कुल अलग है, तीसरा बेटा नक्सली हो जाता है और एक पुलिस मुठभेड़ में मारा जाता है। परसा आधुनिक भारतीय कथा साहित्य के एक अविस्मरणीय चरित्र की तरह अपनी छाप छोड़ता है। अपने आसपास के यथार्थ को प्रमाणिकता और विलक्षण कलात्मकता के साथ प्रस्तुत करना गुरदयाल सिंह की विशिष्टता है और यहीं उनके सभी उपन्यासों को अद्भुत रूप से पठनीय बनाती है।
प्रमुख कृतियाँ
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सम्मान एवं पुरस्कार
- साहित्य अकादमी पुरस्कार (1975)
- पंजाब साहित्य अकादमी पुरस्कार (1989)
- सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार (1986)
- शिरोमणि साहित्यकार पुरस्कार (1992)
- पद्मश्री (1998)
- ज्ञानपीठ पुरस्कार (1999)
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- पुस्तक- भारत ज्ञानकोश खंड-6 | पृष्ठ संख्या- 40
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख
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